स्वार्थ ही न सोचते रहें- परमार्थ का भी ध्यान रखें।

February 1968

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परमार्थ मानव जीवन का सच्चा स्वार्थ है। ‘परम माने बड़ा, वास्तविक अर्थ माने प्रयोजन स्वार्थ। जो वास्तविक स्वार्थ बड़ा स्वार्थ है, उसी को परमार्थ कहते हैं। धन कमाना, स्वाद चखना, अहंकार जताना, यह बहुत छोटे और क्षणिक लाभ हैं। वास्तविक चिरस्थायी लाभ वह है जिसके आधार पर आत्मा की सुख-शान्ति और मुक्ति का पथ प्रशस्त हो सके। शरीर वाहन है, आत्मा स्वामी। वाहन की सुविधा, सुरक्षा का ध्यान तो रखा जाये पर स्वामी की सर्वथा उपेक्षा न कर दी जाय। यह तथ्य जिसकी समझ में आ जाता है वह आत्म कल्याण की विचारणा और क्रिया पद्धति को प्राथमिकता देता है। शरीर और परिवार के निर्वाह की भी वह व्यवस्था करता है पर आत्मा के लक्ष्य और उद्देश्य को साधने के लिए भी यह समुचित प्रयत्न करता है। उन महान प्रयोजनों में भी उसका समय, श्रम, पुरुषार्थ और मनोयोग कम-से-कम उतना तो लगता ही है, जितना शरीर निर्वाह में। हर दूरदर्शी और विवेकशील व्यक्ति की गतिविधि यही हो सकती है। वह जानता है कि शरीर तो कुछ दिन का साथी है।

सुख-दुःख, उत्थान-पतन का प्रतिफल तो अनन्त काल तक आत्मा के सामने ही आने वाले हैं। इसलिए शरीर मोह की एक सीमा होनी चाहिए और उसकी वासनाओं की पूर्ति में इतना न उलझ जाना चाहिए कि आत्मिक स्वार्थों की पूर्ण उपेक्षा ही होने लगे। उसके लिए फुरसत न मिलने आर्थिक तंगी का बहाना करके अब तो मन बहलाया जा सकता है, पर जब शरीर वृद्ध, रुग्ण अथवा मृत हो जाता है, तब भूल समझ में आती है और सूझता है कि इस तुच्छ वाहन के मनोरंजन में बहुमूल्य मानव जीवन चला गया और जो करना चाहिए था, उसको सर्वथा भुला दिया गया। वह घड़ी घोर पश्चात्ताप की होती है। तब अपनी भूल का पता चलता है किन्तु समय बीत चुका होता है और हाथ मल-मल कर पछताने के अतिरिक्त और कुछ शेष नहीं रहता।

अच्छा हो कि समय से पूर्व चेतें, अपने स्वरूप को समझें, आत्मा के हित साधन की बात सोचें और परमार्थ पथ के पथिक बनें। केवल राम नाम लेने से आत्मिक उद्देश्य पूरे हो सकते हैं, इस भ्रान्त धारणा को मन में से हटा देना चाहिए, इतना सस्ता आत्म-कल्याण का मार्ग नहीं हो सकता। पूजा उचित और आवश्यक है पर उसकी सफलता एवं सार्थकता तभी सम्भव है जब जीवन क्रम भी उत्कृष्ट स्तर का हो। अन्यथा तोता रटंत किसी का कुछ हित साधन नहीं कर सकती। नाम जप कर लेने मात्र से परमार्थ प्रयोजन सिद्धि हो जायगी यह सोचते रहना, सस्ते नुस्खों में मन बहलाते रहना उचित नहीं। हमें यथार्थवादी होना पड़ेगा। जीवन साधना के प्रधान अंग परमार्थ को अपनाना पड़ेगा। परमार्थ का, परम स्वार्थ का स्वरूप- आत्म-निर्माण है। जिससे लोक-मंगल के लिए सेवा धर्म अपनाना अपनी परोपकार परायण सेवा प्रवृत्ति का परिचय देना नितान्त आवश्यक है। जिसकी आत्मा में विश्व मानव की सेवा करने, इस संसार को अधिक सुन्दर सुव्यवस्थित एवं सुखी बनाने की भावनायें उठती रहती हैं और इस मार्ग चलने की प्रबल प्रेरणा करती है- वस्तुतः सच्चा परमार्थी और ईश्वर भक्त वही है। उसी का नाम-जप सार्थक कहा जा सकता है।

परमार्थ का जितना तत्व, जितना अंश हमारे जीवन क्रम में सम्मिलित होगा उतनी ही आन्तरिक शान्ति मिलेगी और उतना ही आत्म-कल्याण का पथ प्रशस्त होगा। परमार्थ साधना के बिना सेवा, धर्म का व्रत पालन किये बिना मनुष्य जन्म की सार्थकता एवं सफलता नहीं मानी जा सकती। इसलिए हर अध्यात्मवादी को अपने शारीरिक एवं साँसारिक स्वार्थों को सीमित रख कर आत्मिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए अधिकाधिक ध्यान देते चलने का क्रम बढ़ाना पड़ता है। यदि हम में कटु वास्तविकता और कठोर सचाई स्वीकार करने का साहस हो तो यही मानना पड़ेगा कि आत्म-कल्याण के लिए उदारता एवं लोक-सेवा में परायण होने की रीति-नीति अपनाई जाय। इसी में आत्म-कल्याण, लोक-कल्याण एवं ईश्वर की सच्ची प्रसन्नता का रहस्य सन्निहित है।

युग परिवर्तन की इस पुनीत बेला में परमार्थ के कुछ महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व अनायास ही हमारे सामने आ उपस्थित हुए हैं। प्रबुद्ध आत्माओं को विश्व के नव-निर्माण का उत्तरदायित्व वहन करना होगा। यह प्रयोजन अपनी उदारता, सेवा, साधना और परमार्थ प्रवृत्ति के अभिवर्धन से ही पूर्ण हो सकता है। जो संकीर्ण स्वार्थों तक सीमाबद्ध रह कर लोक मंगल के लिए कुछ भी योगदान नहीं कर सकते, उन्हें जागृत आत्मा नहीं कहा जा सकता। सोचते रहने, पढ़ते रहने, सुनते रहने से कुछ भला नहीं हो सकता। प्रयोजन तो काम करने से सिद्ध होता है। नव-निर्माण का उत्तरदायित्व आज युग पुरुष ने जागृत, प्रकाशवान एवं प्रबुद्ध आत्माओं के कंधे डाला है, उचित यही है कि हम उसे आगे बढ़कर हँसी-खुशी स्वीकार करें और निर्धारित दिशा में भावना एवं तत्परता के साथ अग्रसर हों।

नव-निर्माण का एक ही माध्यम है जन-मानस की दिशा मोड़ना। हजार वर्ष की गुलामी ने हमारे विचार संस्थान को जर्जर कर दिया है। हमारी आस्थाएं, मान्यताएं, आकांक्षाएं, विचारणाएं सब कुछ उल्टी हो गई हैं और विकृत स्थिति तक जा पहुँचा है, जिस सड़ी-गली और अवाँछनीय ही कहा जा सकता है। अपने पूर्व आदर्शों से हम सर्वथा भटक गये हैं। भारतीय महापुरुष, हमारे पूर्वज, जिन परम्पराओं, मर्यादाओं और क्रिया पद्धति को हमारे लिए एक थाती एवं विरासत के रूप में छोड़ गए थे, उनका हमने एक प्रकार से पूर्णतया परित्याग कर दिया है और ऐसी निकृष्ट रीति-नीति को अपना लिया है, जिसे सर्वथा अभारतीय, अधार्मिक, अवाँछनीय और अनुपयुक्त ही कहा जा सकता है। वस्तुतः विकृतियों और दुष्प्रवृत्तियों से जन-मानस को छुटकारा दिलाना- प्राचीन भारतीय, धार्मिक एवं आध्यात्मिक आदर्शों के अनुरूप जन-मानस का पुनः निर्माण करना यही तो युग-निर्माण योजना है। आज का सर्वोपरि परमार्थ यही है। आज की आवश्यकता यही है। आज का सामयिक धर्म कर्तव्य यही है। आत्म-कल्याण का उद्देश्य पूरा करने के लिए इसी पुण्य प्रयोजन में हमें सम्मिलित होना होगा। विश्व की सुख-शान्ति और मानवीय महानता की प्रतिष्ठापना उसी मार्ग पर चलने से होगी। जन मानस का संशोधन परिमार्जन किये बिना- विकृत आस्थाओं और विचारणाओं को बदले बिना और किसी प्रकार इस युग की कठिनाइयों, आपत्तियों, उलझनों, समस्याओं और विभीषिकाओं का समाधान नहीं किया जा सकता। आज की परिस्थितियाँ इसी समग्र धर्म को पालन करने और उसी का सरंजाम इकट्ठा करने की प्रेरणा हमें देती है।

मनुष्य बाँस की पोली बाँसुरी की तरह है- उसमें जैसी फूँक फूँकी जाती है, वैसे स्वर निकलते हैं। मनुष्य दर्पण की तरह है उसका जीवन आन्तरिक मान्यताओं का स्वरूप ही उस दर्पण में दिख पड़ता है। विचारधारा जैसी फूँक फूँकती है, मनुष्य वैसा सोचता, बोलता और करता है। इसलिए समाज को बदलना हो तो व्यक्तियों को बदलना पड़ेगा। व्यक्तियों को बदलना हो तो उनकी आस्थाएं और विचारणाएं उलटनी पड़ेंगी। उल्टे को उल्टा कर देने से सीधा हो जाता है। आज उलझी हुई लोकमानस को उलट दिया जाय तो व्यापक नरक को सुव्यवस्थित स्वर्ग एवं सतयुग में बदला जा सकता है। असुर को मनुष्य और मनुष्य को देवता बनाने का जादू विचार परिवर्तन गर्भ में छिपा हुआ है। विचार बदल जाने को ही कायाकल्प कहते हैं। शरीरों का कल्प कठिन है, पर अन्तःकरण का कल्प पूर्णतया सम्भव है। अगणित दुष्ट दुरात्मा सद्विचारों का पारस छूकर अपनी लोहे जैसी कलुषित कालिमा से मुक्त हुए हैं, और बहुमूल्य स्वर्ण की तरह सम्मानित हुए हैं। इस संसार में एक ही चमत्कार है- विचारों का परिवर्तन। डाक्टर नर को नारी और नारी को नर बनाने में असमर्थ है पर आध्यात्म की प्रेरणा विचार परिवर्तन का प्रकाश देकर पशु को मनुष्य और मनुष्य को देवता बनाने में पूर्णतया समर्थ है। समय आ गया जब कि इस जादू का व्यापक परिमाण में प्रयोग किया जाना चाहिए।

मनुष्य का अंतःकरण बदल डालने से उसका बाह्य जीवन बदलेगा। व्यक्तियों के बदलने से समाज-संसार का बदलना सुनिश्चित है। समाज और कुछ नहीं व्यक्तियों का समूह मात्र ही तो है। व्यक्ति बदले या समाज बदले। समाज का, समूह का, बदलना ही युग परिवर्तन है। अतएव हम इस तथ्य को बार-बार भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि आज ही विपन्न परिस्थितियों को बदलने की सच्ची इच्छा हो तो सच्चा मार्ग भी अपनाना पड़ेगा। धन, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि का बढ़ना ही उचित है। पर उतने मात्र से कुछ काम नहीं चलेगा। अन्तरंग में दुष्टता भरी पड़ी हो तो यह समृद्धि एवं सभ्यता सर्प को दूध पिलाने की तरह व्यक्ति और समाज के लिए और अधिक संकट उत्पन्न करेगी। साधन सम्पन्न दुरात्मा के लिए एक भयानक विपत्ति एवं दुर्धर्ष अभिशाप ही सिद्ध हो सकती है। इससे तो वे कम भयंकर हैं जो दुष्ट है पर समर्थ एवं साधन सम्पन्न नहीं। सुख सुविधा के साधनों को बढ़ाना चाहिए पर साथ ही आन्तरिक महानता एवं सज्जनता भी बढ़नी चाहिए। अन्यथा बढ़ी हुई भौतिक शक्ति एवं सम्पन्नता प्राचीन काल के रावण, कंस, भस्मासुर, सहस्रबाहु, हिरण्यकश्यप, वृत्रासुर आदि का उदाहरण ही प्रस्तुत करेगी। संसार में सम्पन्नता एवं सुविधा बढ़ाने से भी पूर्व मानवीय अन्तःकरण के स्तर को ऊँचा उठाने की आवश्यकता है। इस महती आवश्यकता की आज उपेक्षा की जा रही है, फलतः भौतिक उन्नति की योजनायें किन्हीं समस्याओं को सुलझाने में समर्थ नहीं हो रही है। बढ़ती हुई समृद्धि उसकी आन्तरिक दुष्टता को आग में घी डालने की तरह बढ़ा रही हैं।

अशिक्षितों की अपेक्षा शिक्षित, निर्बलों की अपेक्षा बलवान्, निर्धनों की अपेक्षा धनी आदि संसार पर अधिक विपत्ति बरसा रहे हैं। कारण स्पष्ट है पहले जब वे असमर्थ थे तब उनकी दुष्टता भी सीमित दुष्परिणाम उत्पन्न कर पाती थी, अब जितने ही साधन बढ़े उतनी ही अधिक विभीषिकाएं वे उपस्थित करते चले जा रहे हैं। दोष साधन सामग्री का नहीं दुष्टता के निराकरण पर ध्यान देने का है। सम्पत्ति बढ़े तो साथ ही सज्जनता भी बढ़े। उस संतुलन का ध्यान रखकर ही सच्ची प्रगति सम्भव है। आज हमारा नेतृत्व यही भूल कर रहा है। सम्पदा बढ़ाने की बात सोचें यह तो उचित है पर सज्जनता बढ़ाने के अनुकरणीय आदर्शों के अभिवर्धन करने की दिशा में कुछ न करें यह अक्षम्य है। ऐसी उपेक्षा से उस तथा कथित समृद्धि अभिवर्धन का कोई शुभ परिणाम निकलने वाला नहीं है।

इस घुटन भरे वातावरण का- अन्याय अविवेक एवं असन्तोष भरे लोक-मानस का परिवर्तन, पुनर्निर्माण आज की वह महती आवश्यकता है जिसकी देर तक उपेक्षा करना अवाँछनीय परिणाम उत्पन्न करेगा। राजनैतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने के बाद इन 20 वर्षों में हमारे देश का भावनात्मक पतन ही हुआ है। लोग स्वार्थों की लड़ाई लड़ने में लग गये हैं। अराजकता की स्थिति बढ़ती चली जा रही है। इसका एक मात्र कारण जन-मानस में उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता के बीज बोने, उगाने और बढ़ाने के सच्चे निर्माण की दिशा में बढ़ती गई उपेक्षा ही है।

वैयक्तिक एवं सामूहिक स्तर पर हमें आज की इस महती आवश्यकता पर सबसे अधिक ध्यान देना चाहिए। वह उपाय सोचने चाहिए जिनसे जन-मानस में आदर्शवादिता की प्रतिष्ठापना हो सके। वह प्रयत्न करने चाहिए जिससे लोग वर्तमान में सड़ी-गली मान्यताओं से घोर घृणा करने लगें और उनको परित्याग करने में संकोच, झिझक और भीरुता त्याग कर आदर्शवादी आस्थाओं को अपनाने में साहस का परिचय दे सकें। यह विचार शुद्धि- विचार क्रान्ति ही विश्व के- व्यक्ति के नवनिर्माण का प्रयोजन पूरा करेगी। हमारी युग निर्माण योजना यही सन्देश- यही प्रकाश- लेकर सर्व साधारण के सन्मुख उपस्थित होती है। वह हर प्रबुद्ध व्यक्ति को प्रोत्साहित करती है कि लम्बी-चौड़ी वैयक्तिक सुख-सुविधाओं की उन्नति और समृद्धि की बात सोचना कुछ दिन के लिए स्थगित करे और अपना ध्यान विचार क्राँति की सामयिक आवश्यकता को पूरा करने में लगादें। स्वार्थ को सीमित कर परमार्थ की महती आवश्यकता को पूर्ण करने की ओर यदि हम आवश्यक ध्यान देने लगें तो अपने जीवन का परम लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं और संसार के नये निर्माण में ऐतिहासिक योगदान कर सकते हैं।


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