आत्मा की पुकार सुनें और उसे सार्थक करें

February 1968

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पता नहीं आपने कभी ध्यान दिया या नहीं- अन्तर में जब-तब एक आवाज उठा करती है कि- “अरे तू यह क्या कर रहा है? क्या इसीलिए तुझे यह सर्व सम्पन्न शरीर मिला है? उठ अपना स्वरूप, अपनी शक्ति पहचान और उन अच्छे कामों को कर जिनकी तुझसे अपेक्षा जा रही है।”

यह पुकार करने वाला कोई नहीं होता। परमात्मा ही होता है जो आत्मा-रूप मैं सबके अन्दर विद्यमान रहता है। अब जो इस आवाज का आदर करते और जाग उठते हैं वे संसार में श्रेयस्कर कार्य कर दिखलाते हैं, उनका ईश्वर उनकी पूरी सहायता करता है।

यह आवाज उस समय ही अधिकतर उठा करती है जब मनुष्य या तो स्वार्थ एवं संकीर्णता की परिसीमा पार करने लगता है अथवा वह काम करता है जो उसे नहीं करना चाहिये। अपनी क्षमताओं की तुलना में छोटा काम करते हुये जब कोई शक्तियों का अपमान करता है, तब भी यह आँतरिक आवाज टोका करती है।

इसका एकमात्र आशय यही होता है कि ऐ मेरे अंश- मनुष्य, तू ऐसा काम न कर जिससे कि मुझे लज्जा अथवा आत्मग्लानि हो, और नहीं वे छोटे-मोटे काम कर, क्योंकि तू अधिक ऊँचे काम करने के लिए नियुक्त किया गया है। ये निम्न अथवा हेय कार्य तेरी क्षमता अनुरूप नहीं हैं।

जो आस्तिक एवं आत्मविश्वासी इस परमात्म पुकार को सुन कर प्रेरित होते हैं, अपनी निहित शक्तियों का आह्वान करते और कटिबद्ध होकर दृढ़तापूर्वक कर्तव्यों में तत्पर हो जाते हैं, वे निश्चय यहीं अपना वर्तमान स्थिति से बहुत आगे बढ़ कर चाँद-सितारों की तरह चमक उठते हैं, फिर उनका अभियान आर्थिक हो अथवा आध्यात्मिक। इस परमात्म-पुकार का तकाजा है कि जो जहाँ पर है वहाँ पर न रहे। उससे आगे बढ़े और निरन्तर आगे बढ़ता ही जाये। मानवीय विकास एवं उन्नति की न तो कोई सीमा है और न विराम।

संसार के जितने भी महापुरुष आज जन साधारण के प्रेरणा केन्द्र एवं प्रकाश स्तम्भ बने हुये हैं उन्होंने इस आँतरिक पुकार की कभी उपेक्षा नहीं की। उन्होंने आवाज सुनी, जागे और तत्काल आयोजन में लग गये, आगे की ओर चल पड़े। ऐसे जागृतिवान महापुरुषों में से अमेरिका के भूत-भूतपूर्व प्रेसीडेन्ट जार्ज वाशिंगटन भी एक थे।

जार्ज वाशिंगटन अमेरिका के एक साधारण किसान के पुत्र थे। उनके पिता बहुत ही साधारण स्थिति के व्यक्ति थे। बेटे को हल, फाल, जमीन तथा कुदाल आदि ऐसे के अतिरिक्त उच्च शिक्षा जैसी कोई चीज दे सकने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। निदान वयस्क होने पर उन्होंने जार्ज वाशिंगटन को वे सब चीजें सौंप दीं।

वाशिंगटन भी तो प्रारंभ से लेकर अब तक उसी वातावरण में पला था। उसकी कल्पना भी उन चीजों, उन कार्यों और उस वातावरण से आगे कैसे जा सकती थी। खुशी-खुशी उसने हल लिया और पिता की तरह सामान्य रूप से खेती बारी में लग गया।

वाशिंगटन किसान बन गया। किन्तु उसकी आत्मा उस कार्य में तादात्म्य अनुभव नहीं कर रही थी। इसलिए नहीं कि खेती कोई निकृष्ट कार्य था, बल्कि इस आभास के कारण कि वह उसे भी ऊँचा कोई काम कर सकता है जिसमें राष्ट्र, समाज अथवा संसार का अधिक हित संपादित हो सके।

उसका आभास प्रकाश बना है और वह प्रकाश एक दिन, जब वह हल चला रहा था आवाज बनकर उसके अन्तराल में गूँज उठा- “वाशिंगटन क्या कर रहा है? यह खेती का काम तो कोई दूसरा भी कर लेगा। तू जिस उद्देश्य के लिए आया है उसे याद कर। देख देश की वेदी तुझे अपने उद्धार के लिए आह्वान कर रही है।” हर रुक गया और वाशिंगटन अपने उद्देश्य पथ पर अग्रसर हो उठा। महापुरुषत्व और मानवीय महिमा इसी संदेह रहित आत्मविश्वास, आस्था, आकस्मिकता एवं साहस के सुन्दर शिवालय में निवास करती है।

वाशिंगटन ने आवाज सुनी, जागा और अपने से कह उठा- अवश्य ही मैं बड़ा काम करने के लिए इस संसार में आया हूँ। मैं उसे करूंगा, और वह बड़ा काम है देश को विदेशियों की दासता से मुक्त कराना। संसार का कोई अवरोध जीवन की कोई भी कठिनाई, पथ का कोई संकट और साधनों का कोई भी अभाव मुझे मेरे अभीष्ट लक्ष्य से विचलित नहीं कर सकता। उसका संकल्प बलिदान बनकर उसके रोम-रोम में तद्रूप हो गया।

प्रयत्न अध्ययन एवं विचार से प्रारम्भ हुआ और तब तक चलता रहा जब तक पूर्ण परिपक्व होकर क्रियात्मक प्रेरणा में परिणित नहीं हो गया।

अपने इस विकास एवं निर्माण में वाशिंगटन को कितने प्रकार की कठिनाइयों से जूझना पड़ा होगा, इसको बतलाया नहीं जा सकता। केवल इस बात से एक धुँधला-सा आभास ही पाया जा सकता है कि एक दीन-हीन किसान के अनपढ़ पुत्र की स्थिति राष्ट्रोद्धार की महानता तक के दुरूह पथ को पार करना, अपने अध्यवसाय के बल पर संस्कारों एवं कुप्रवृत्तियों को जीतकर जीवन में ही पुनर्जीवन पा लेने से कम कठिन, साथ ही कम श्रेयस्कर नहीं है।

किन्तु जिन्हें कुछ करना ही है उनके लिए कष्ट, संकट, श्रम, श्राँति अथवा विश्राँति का क्या अर्थ? वे यदि कुछ जानते हैं तो काम-काम और निःस्वार्थ काम। वाशिंगटन ने समागत प्रतिकूलताओं का भी सहर्ष स्वागत करते हुये यही किया और एक दिन आया जब उन्होंने राष्ट्र के दासता पाश काट फेंके और राष्ट्र ने उनकी सेवाओं के मूल्याँकन के रूप में, उसके पास जो राष्ट्रपति का सर्वोच्च सम्मान था वह दिया और आज भी सैंकड़ों साल बीत जाने पर उनके नाम, उनकी प्रतिभाओं और उनके स्मारकों को वही सम्मान दिया जाता है।

प्रत्येक मनुष्य के जीवन का एक लक्ष्य होता है। वह यह कि वह जो कुछ है, वहीं नहीं रहना है, उसे जितना भी हो सके आगे बढ़ाना और ऊँचे चढ़ाना है। अपनी वर्तमान परिधि से निकल कर अधिक विस्तृत सीमाओं में प्रवेश करना है। जिस कक्षा के बाद दूसरी कक्षा पाना ही है। एक स्तर से उठकर दूसरा स्तर पकड़ना ही है और अन्त में उसे यह सन्तोष लाभ करना ही है कि उसने जीवन को कीड़े-मकोड़ों की तरह एक गढ़े में पड़े-पड़े नष्ट नहीं किया है। उसने उन्नति एवं विकास किया है। आगे बढ़कर चेतन होने का प्रमाण दिया है और अपने इस विश्वास को प्रकट कर दिया है कि यह सुर दुर्लभ मानव जीवन तृष्णा एवं वासनाओं की वेदी पर वध करने के लिए नहीं बल्कि किसी सदुद्देश्य, उच्च आदर्श की पवित्र वेदिका पर फूल की तरह उत्सर्ग कर देने के लिए है।

जिसे अपनी निकृष्ट नैतिक स्थिति, जीवन का निम्न स्तर काँटे की तरह नहीं चुभती, जिसकी हीनावस्था उसे तिरस्कृत नहीं करती, जो इस लाँछना एवं अपमान को यों ही सहन कर लेता है, उसे यदि मृत मान लिया जाये तो कोई दोष नहीं। जिसमें जरा भी जीवन है, थोड़ी मनुष्यता है वह जीवन के इस अपमान, इस लाँछना को सहन नहीं कर सकता। उसके हृदय में वेदना होगी, आत्म-ग्लानि होगी और परिस्थितियों को धिक्कार, पुरुषार्थ के लिये ललकार कर उठ खड़ा होगा और अडिग संकल्प के साथ सब कुछ बदलकर रख देगा। संसार में ऐसे भी महापुरुष हुये हैं जिन्होंने असम्भव माने जाने वाले परिवर्तनों को घटित करके दिखा दिया और उनमें से एक महाकवि कालिदास भी थे।

लोक-प्रसिद्ध है कि कालिदास एक वज्र मूर्ख लकड़हारे थे। इतने मूर्ख कि जिस डाल पर बैठते थे उसी को काटते हुये कई बार पथिकों द्वारा उतारे गए। इतने मूर्ख और इतने अज्ञानी कि ‘भेड़’ कहे और ‘भें’ कहकर चिढ़ाये जाते। न माँ न बाप न कोई भाई-बन्धु। यों ही विनोददायक होने से रोटी-लँगोटी मिल जाती थी। अब ऐसे प्रचण्ड मूर्ख के विषय में क्या कभी यह कल्पना की जा सकती थी कि वह एक दिन प्रकाँड पण्डित बनकर संसार का कवि-शिरोमणि बनेगा। किन्तु कालिदास ने संसार में न केवल इस कल्पना को ही जन्म दिया वरन् उसे अतिरूप में चरितार्थ कर के दिखला दिया। लगन एवं पुरुषार्थ की यही महिमा है।

तत्कालीन विदुषी राजकुमारी विद्योत्तमा से शास्त्रार्थ एवं पाँडित्य में पराजित होकर, चिढ़े हुये पण्डित लोग दैवात् विद्योत्तमा का विवाह छल से कालिदास से करा देने में सफल हो गये।

कालिदास और विद्योत्तमा का परिचय हुआ और प्रथम क्षण में ही उस विदुषी ने मूर्खराज कालिदास को पहचान लिया। उसने ‘हाय’ करके कपाल पर हाथ मारा और रोते हुये यह कहकर कालिदास को अपने कक्ष से बाहर ढकेल दिया कि- अपने से महान पति की आकाँक्षा रखने वाली मैं तुझ महामूर्ख को पति स्वीकार कर विद्या को अपमानित और अविद्या को आहत नहीं कर सकती। चला जा यहाँ से। मेरे साथ छल किया गया है।

कालिदास को धक्का मिला और उसकी आत्मा में एक झटका लगा। आत्म-विभोर कालिदास चौंक कर सहसा जाग उठे। उनकी आत्मा में अचेत पड़े मनुष्य की मूर्छा टूट गई। उनका अपमान हुआ इसकी पीड़ा तो उनके प्राणों तक में कसक ही उठी किन्तु उसे भी अधिक वेदना विद्योत्तमा के उन आँसुओं को देखकर हुई जिनके पीछे एक उज्ज्वल एवं उच्च दाम्पत्य जीवन की आकाँक्षा तड़प रही थी।

जागरण हो चुका था। कालिदास सोच सके- संभव है यह भारतीय ललना दुबारा विवाह न करे और योंही इतने महान एवं मूल्यवान जीवन को शोक-सन्ताप एवं पश्चाताप में जलाकर नष्ट कर डाले। समाज की इतनी बड़ी क्षति केवल इसलिए हो सकती है कि मैं अशिक्षित एवं असंस्कृत हूँ। कितना निसर्ग सुख हो यदि मैं अपने को इसके योग्य बना सकूँ। विचार आते ही अन्तराल से आवाज आई ‘क्यों नहीं पुरुषार्थ एवं संकल्प बल से क्या नहीं हो सकता?’ कालिदास चले गए और विद्योत्तमा आँखों में आँसू लिए बैठी रही।

और फिर चार-छः, दस-बारह, अनेकानेक वर्षों तक कालिदास का सम्बन्ध संसार की हर बात से टूटकर जुड़ गया। अध्ययन से दिन और रात, संध्या और प्रातः कब आए और कब गए कुछ पता नहीं। इन दशाब्दियों तक यदि कालिदास को कुछ ज्ञात था तो केवल अपनी एकाग्रता और अध्ययन।

कालिदास ने अध्यवसाय को तपस्या की सीमा में पहुँचा कर जो कुछ पाया वह लेकर चल दिये। विद्योत्तमा अपने कक्ष में वही वेदना लिए बैठी थी कि सहसा उसने दरवाजे पर थाप के साथ शुद्ध एवं परिमार्जित संस्कृत में सुना- “प्रियतमे द्वारमकपाटं देहि।” वह उठी द्वारा खोला- देखा-कौन! मैं महामूर्ख कालिदास! कालिदास मुस्करा उठे। विद्योत्तमा हर्ष विह्वल हो उठी। अब वह मूर्ख कालिदास की पत्नी वही महाकवि कालिदास प्रेरणादायिनी प्राणेश्वरी थी। दोनों के उस पुनर्मिलन ने कालिदास की साधना और विद्योत्तमा की वेदना सफल एवं सार्थक बना दी।

यह है संकल्पपूर्ण पुरुषार्थ एवं लगन का चमत्कार। जब दीन से दीन और मूर्ख से मूर्ख होने पर भी संसार में लोगों ने सर्वोच्च स्थितियों पर पदार्पण कर पुरुषार्थ की महिमा को प्रकट कर दिया जब कोई कारण नहीं कि हम आप कोई भी अपनी वर्तमान स्थिति से आगे बढ़कर श्रेय प्राप्त नहीं कर सकते।


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