सर्वोत्कृष्ट परमार्थ- ज्ञान-यज्ञ

February 1968

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भगवान ने गीता में कहा है-

“श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाद् ज्ञान यज्ञः परंतपः। सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते॥”

“हे परंतप! द्रव्य-यज्ञ से ज्ञान-यज्ञ श्रेष्ठ है। क्योंकि जितने भी कर्म हैं वे सब ज्ञान में ही समाप्त होते हैं। ज्ञानदान सर्वोपरि पुण्य है, शुभ कार्य है।”

अपने उपरोक्त कथन में भगवान ने द्रव्य-यज्ञ और ज्ञान-यज्ञ की तुलना में ज्ञान-यज्ञ को द्रव्य-यज्ञ से श्रेष्ठ बतलाया है। ऐसा क्यों है- इस पर विचार करने से पूर्व यह समझ लेना आवश्यक है कि द्रव्य-यज्ञ और ज्ञान-यज्ञ है क्या? द्रव्य-यज्ञ का एक अर्थ अथवा आशय सामग्री द्वारा अग्नि में मन्त्रोच्चार के साथ हवन करना है। दूसरा तात्पर्य यह है कि द्रव्य अर्थात् भौतिक विभूतियों का धर्मोक्त व्यवहार करना। अपवर्ग चतुष्टय के अर्थ की उपलब्धि और उसका उपभोग। द्रव्य-अर्थ अथवा विभूतियों को इस प्रकार से उपार्जित करना जिससे न तो समाज में किसी को कष्ट हो और न अपने को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष में किसी कलंक, अपवाद, भय अथवा आशंका का भोगी बनना पड़े। साथ ही उसका उपभोग एवं उपयोग इस प्रकार करना जिससे अपना, अपनी आत्मा का और समाज का सच्चा हितसाधन हो- द्रव्य-यज्ञ कहा जा सकता है।

यज्ञ का सूक्ष्म अर्थ पदार्थ एवं क्रिया के यापन की उस विधि की ओर संकेत करता है जिसके अंतर्गत परमार्थ का कोई न कोई भाव चल रहा हो। जो मनुष्य शुभ उपायों द्वारा द्रव्य उपार्जन करता है, उसके उपार्जन में समाज की आर्थिक उन्नति की भावना रखता है, अपने धनाभाव को दूर करना नैतिक कर्तव्य समझता है, प्राप्त धन में आत्मभाव न रखकर उसको समाज की सम्पत्ति मानता है और उसी भाव से आगे क्रियाशील रहने के लिए अपने पर जरूरत-भर खर्च करता है, वह इस ढंग से कि उसका पूरी तरह तन, मन और बुद्धि की शक्ति का विकास करने में उपयोग हो। शेष का उचित भाग समाज के कल्याण के लिए दान द्वारा, सहायता द्वारा अथवा संस्थापना द्वारा खर्च करता है, परमार्थ परोपकार और पुण्य कार्यों में लगाता है वह निश्चय ही द्रव्य-यज्ञ करता है। जिसका फल किसी प्रकार भी अग्निहोत्र से कम नहीं होता।

जिस प्रकार इस द्रव्ययज्ञ का कर्मयोग से सम्बन्ध है, उसी प्रकार ज्ञानयज्ञ का सम्बन्ध ज्ञानयोग से है। द्रव्य की भाँति ही ज्ञान का उपार्जन करना, उसका संचय तथा अभिवर्धन करना, शारीरिक, साँसारिक संकटों के काटने और आत्मा के बन्धन दूर करने के साथ संसार में विद्या का प्रकाश फैलाने, अविद्या को मिटाने, माया मोह को नष्ट करने में उसका यापन और वितरण करना- ज्ञानयज्ञ ही कहा जायेगा।

विधिभाव से करने और सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण करने पर विदित होगा कि इन दोनों यज्ञों का परम-परिणाम एक ही है तथापि भगवान ने द्रव्ययज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ को श्रेष्ठ बतलाया है। वह किन कारणों से? उनमें से एक कारण तो भगवान ने स्वयं ही प्रकट कर दिया है- वह यह कि जितने भी कर्म हैं उनकी परिसमाप्ति ज्ञान में ही होती है। निश्चय ही इन कर्मों की परिसमाप्ति का अध्यात्मिक अर्थ तो यही है कि ज्ञान प्राप्त हो जाने पर किये हुये कर्मों के सारे अच्छे-बुरे फल नष्ट हो जाते हैं और पुण्य पाप दोनों के बन्धनों से छूटकर सर्वथा मुक्त हो जाता है, अपनी मूल परिस्थिति को प्राप्त कर लेता है। इसी तात्पर्य को इन शब्दों में भी कहा जा सकता है कि ज्ञानी को कर्मों का बन्धन नहीं लगता वह सर्वथा उससे मुक्त रहता है। ऐसा क्यों होता है? इसलिए कि ज्ञानी जो कुछ करता है करने योग्य कर्तव्यों को परमात्मा के लिए ही, उसकी आज्ञा अनुभव करता हुआ ही करता है। वह जो कुछ करता है उसका फल भी उसी को समर्पित कर देता है। ऐसे त्यागी तथा निर्लिप्त ज्ञानी पुरुष को कर्मों का फल बोध भी किस प्रकार रहता है।

किन्तु इसके अतिरिक्त- “कर्म की परिसमाप्ति ज्ञान में होती है”- का एक भौतिक तथा लाक्षणिक अर्थ भी है। वह यह कि ज्ञान में ही कर्मों की पराकाष्ठा होती है अर्थात् कर्म का साँगोपांग ज्ञान रखने वाला कर्म को पारंगत कुशलता के साथ करता है और उसी के अनुसार उसके पुरस्कार का अधिकारी होता है।

भगवानोवाचित इस कारण के अतिरिक्त ज्ञानयज्ञ की श्रेष्ठता के अन्य कारण भी हैं। जैसे- द्रव्ययज्ञ का आयोजन करने में बहुत से उपादान एवं उपकरणों की आवश्यकता होती है, जबकि ज्ञानयज्ञ के लिए किन्हीं विशेष साधनों की जरूरत नहीं होती। द्रव्य-यज्ञ का संपादन करने के लिए द्रव्य की जरूरत है पर ज्ञानयज्ञ में इसकी आवश्यकता नहीं है। ज्ञानयज्ञ के लिए जिज्ञासा और बुद्धि दो साधनों की जरूरत है वह मनुष्य को निसर्ग रूप से ही मिले रहते हैं। विचार कृषि के लिए स्वाध्याय और स्वाध्याय के लिए पुस्तकों की जो आवश्यकता है वह किसी भी योग्य पुस्तकालय से पूरी हो सकती है। पुस्तकें माँगकर भी काम चलाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त वह स्वाध्याय सत्संग के माध्यम से भी किया जा सकता है। इसमें तो किसी प्रकार के व्यय की आवश्यकता है ही नहीं।

बिना धन के द्रव्य-यज्ञ कठिन है। इसलिए उसकी आराधना के लिए आर्थिक पुरुषार्थ करना ही होगा। आज की दुनियाँ में यदि आर्थिक पुरुषार्थ की प्रकृति सर्वथा पवित्र एवं निष्कलंक बनाये रखना असम्भव नहीं तो कम से कम कठिन तो है ही। किन्तु ज्ञानयज्ञ की साधना में ऐसी कोई कठिनाई नहीं है। थोड़ा सजग रहकर ज्ञान का उपार्जन पवित्रतापूर्वक किया जा सकता है। अनैतिक एवं अनुचित विचार-संस्कार से थोड़ा सतर्क रहकर विशुद्ध एवं कल्याणकारी ज्ञान का अर्जन किया ही जा सकता है।

द्रव्ययज्ञ के विस्तार के लिए जो दान अथवा परोपकार का आयोजन चलाना होगा उसमें प्रदत्त धन के किसी अपात्र के पास पहुँच जाने की आशंका हो सकती है। वह अपात्र उसका दुरुपयोग कर हित में अहित की सम्भावना उपस्थित कर सकता है। किन्तु ज्ञानयज्ञ में यह आशंका नहीं रहती। उसके लिए पात्र अपात्र का बन्धन नहीं होता। बल्कि ज्ञान का दान उनके लिए तो और भी उपादेय है जो पथ भूले हुये हैं और अविद्या के अन्धकार में भटक रहे हैं। और यदि सच कहा जाय तो ज्ञानदान के अधिक अधिकारी वही हैं जिनका मार्ग ठीक नहीं है, जिनके संस्कार विकृत हो गये हैं।

द्रव्य क्षरणशील उपादान है। वह आज है तो यह निश्चय नहीं कि कल भी रह सकता है। ऐसी स्थिति में किसी भी द्रव्य-याज्ञिक को किसी समय भी अधनता का सामना करना पड़ सकता है और तब उसके उस कार्यक्रम में व्यवधान पड़ सकता है। किन्तु ज्ञानयज्ञ में उसकी संभावना नहीं रहती। ज्ञान ही एक ऐसा तत्व है जो क्षरणशीलता से सर्वथा मुक्त रहता है। ज्ञान बढ़ता है घटता तो कदापि नहीं और नाश तो उसका कभी होता ही नहीं है। द्रव्य-यज्ञ का द्रव्य तो साथ ही नहीं उसका पुण्य ही साथ जाता है, जबकि ज्ञान-पुण्य साथ भी मनुष्य के साथ जाता है। जिससे पुण्य-बल पर या तो परिपाक में वह बन्धन मुक्त हो जाता है अथवा परिपक्वता के लिए उसे मनुष्य योनि ही प्राप्त होती है जिसमें होश आते ही पूर्वजन्मीय ज्ञान प्रतिविम्बित हो उठता है।

द्रव्य-यज्ञ से परमार्थ पथ में किसी की द्रव्य द्वारा एक छोटी सीमा तक ही सहायता सम्भव हो सकती है और वह भी कुछेक पात्रों को ही। किन्तु ज्ञानयज्ञ में एक पुस्तक, एक प्रवचन और एक पर्यटन द्वारा सैंकड़ों हजारों की भुक्ति से लेकर मुक्ति तक सहायता की जा सकती है। द्रव्यदान पाकर कोई बहुत कम समय तक ही अपनी कठिनाई दूर रख सकता है, किन्तु जिसको ज्ञान दान कर दिया जाता है उसके लिए तो कठिनाइयाँ महत्वहीन हो जाती हैं। दूसरे वह उस ज्ञान द्वारा हर देशकाल में अनुकूलताएं अर्जित कर सकता है। जहाँ धन उसे कुछ समय तक ही सहायक तथा लाभकर होगा वहाँ ज्ञान उसे आजीवन ही नहीं जीवनोपराँत भी साथ देता रहता है। इन्हीं सब सुविधा व्यवस्था के कारण ही ज्ञानयज्ञ को द्रव्ययज्ञ से श्रेष्ठ बताया और माना गया है।

ज्ञानयज्ञ का पारलौकिक फल जो होता है वह तो होता ही है। इस लोक में भी उसका लाभ कम नहीं होता। ज्ञान द्वारा ही तो मनुष्य को आत्मा की अमरता का, परमात्मा की व्यापकता एवं विभुता का, उसके प्रेम, न्याय और अनुकम्पा का और मानव जीवन के महान कर्त्तव्यों का बोध होता है। ज्ञान द्वारा ही कुविचारों और कुकर्मों के प्रति घृणा होती है और परमार्थ पथ पर चलने की प्रेरणा होती है। ज्ञान के आधार पर मनुष्य साधनहीन स्थिति में भी अपनी आत्मिक शाँति और मानसिक स्थिरता बनाए रहता है। अभाव, आवश्यकतायें अथवा गहनताएं अपनी तृप्ति के लिए उसे अनुचित मार्ग पर ढकेल सकने में सफल नहीं हो पातीं। ज्ञानवान मनुष्य अनबूझ अथवा प्राकृतिक प्रेरणा के वश होकर कोई काम नहीं करता। वह जो कुछ करता है भली भाँति सोच-विचार कर विवेकपूर्वक ही करता है, जिससे वह कर्म के दुष्परिणामों और उनके बन्धनों से बहुतायत में बचा रहता है। ज्ञान आलोक परलोक के विस्तृत पथ पर प्रकाश एवं दिशिदाता ध्रुवतारों की भाँति सदैव साथ बना रहता है- जिससे मनुष्य के पथभ्रष्ट होने का भय नहीं रहता और वह सरलतापूर्वक अपने लक्ष्य तक पहुँच जाता है।

ज्ञान ही मनुष्य को अन्य जीवधारियों से भिन्न तथा उत्कृष्ट बना देता है। अन्यथा मनुष्य भी अन्य प्राणियों की भाँति एक साधारण जन्तु ही है। ज्ञान के आधार पर ही वह अपनी मानसिक तथा शारीरिक क्षमताओं एवं योग्यताओं का विकास कर उन्नति करता है और सृष्टि में परमात्मा के बाद अपना विशिष्ट स्थान बनाता है। मानवीय प्रतिभा का विकास ज्ञान द्वारा ही होता है। उसके विवेक में आध्यात्मिक प्रकाश का कारण ज्ञान ही होता है और ज्ञान के आधार पर ही मनुष्य आत्मा-परमात्मा सत्य-असत्य, प्रकृति और पुरुष को पहचान कर उसे यथायोग्य सम्बन्ध स्थापित कर पाता है।

ज्ञान की महिमा अपार है। जो ज्ञानार्जन के लिए उत्सुक होता है उस पर परमात्मा की महती कृपा ही समझनी चाहिये। ज्ञान की जिज्ञासा इस बात की सूचना है कि मनुष्य का भवबन्धन से त्राण पाने का संयोग आ लगा है। जिन्होंने भी संसार के दुःखों में त्राण पाया है और पारलौकिक संसार में अपना स्थान सुरक्षित किया है उन्होंने एकमात्र सद्ज्ञान का ही अवलम्ब लिया है। संसार के दुःखों से परित्राण पाने के लिये मनुष्य को सदैव ही ज्ञान की आवश्यकता रही है। इसलिए सभी यज्ञों में श्रेष्ठ मनुष्य को ज्ञानयज्ञ का ही यजन एवं विस्तार करते रहना चाहिए। फिर उसके लिए शिक्षा, स्वाध्याय अथवा सत्संग जिसकी भी आवश्यकता हो उसे पूरा करने में प्रमाद अथवा आलस्य नहीं करना चाहिये।


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