उपासना- अर्थात् परमात्मा की समीपता

February 1968

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संसार के सारे पदार्थ और सारी क्रियायें साधन हैं। साध्य है केवल आत्म-शाँति। यदि आत्मा में शाँति का अभाव है तो किसी के पास कितना ही वैभव, कितनी ही विभूति और कितनी ही शक्ति क्यों न हो, समाज में कितना ही आदर सम्मान क्यों न हो, उसे कोई भी ऐसी अनुभूति नहीं हो सकती जिसे सुख की संज्ञा दी जा सके।

इसी आत्म-शाँति के अभाव में, अपनी समझ से संसार का सारा सुख भोग लेने पर भी बड़े-बड़े सम्राटों और श्रीमन्तों को असन्तोष से भरी भयानक मृत्यु मरना पड़ता है। तड़प-तड़प कर उनके प्राण निकलते हैं और कलप-कलप कर वे संसार छोड़ते हैं। जब संसार का सुख भोग लिया, पदार्थों का आनंद ले लिया, तब अन्त समय में कलपना किसलिये?

स्पष्ट है कि ऐसे व्यक्ति की आत्मा में असन्तोष होता है जो जीवात्मा को रह-रह कर संसार की ओर ढकेलता है। असन्तोष का निवास वहीं रहता है जहाँ शाँति नहीं होती। आत्मा में जब असन्तोष का ज्वर है तो वहाँ पर शाँति की शीतलता नहीं ही होनी चाहिये।

आत्मशाँति की उपलब्धि संसार के सुखों और पदार्थों के भोग से सम्भव नहीं। उसकी प्राप्ति तो तब होती है जब मनुष्य के जीवन और आचरण में श्रेष्ठता का समावेश होता है। श्रेष्ठता ही आत्मशाँति का एकमात्र आधार है। श्रेष्ठ आत्मा वाले व्यक्ति कितने ही गरीब और एकाकी क्यों न हों उन्हें असन्तोष की यातना सहन नहीं करनी पड़ती है। विद्वान, परमार्थी, भक्त तथा परोपकारी व्यक्ति श्रेष्ठ आत्मा वाले ही होते हैं। इसी सम्बल के आधार पर ही तो वे अभावों से भरा अपना जीवन शाँति के साथ-साथ जीते हैं और सन्तोष के साथ छोड़ते हैं। उन्हें किसी तरह का मनस्ताप नहीं सताता। ऋषि मुनि, महात्मा, मनीषी, चिन्तक तथा दार्शनिक व्यक्ति न कभी धन वैभववान रहे हैं और न उन्होंने साँसारिक पदार्थों के भोग में ही अपना जीवन निमग्न किया। उनका जीवन सदा ही सरलतम तथा सादा रहा है। भोजन वस्त्र और निवास जितना साधारण कोटि का हो सकता है उनका रहा। दिनचर्या और परिश्रम उनका इतना कठिन और कठोर रहा है जो किसी के लिये कष्ट के समान ही हो सकता है। आगे भी इस कोटि के व्यक्ति इसी प्रकार अभाव भरा जीवन ग्रहण करेंगे और आज भी जो जहाँ हैं, जाकर देखा जा सकता है, ऐसा ही जीवनयापन करते दिखलाई देंगे। तब भी उनके समान सुखी तथा सन्तुष्ट कोई दूसरे कदाचित ही रह पाते हैं। इसका केवल एक ही कारण है, और वह है उनकी आत्म-श्रेष्ठता। जिसने अपनी आत्मा में श्रेष्ठता का विकास कर लिया है आत्मशाँति उसकी अपनी वस्तु हो ही जाती है। साध्य पर अधिकार हो जाने पर साधनों में चिपटे रहना किसके लिए श्रेयस्कर हो सकता है? सूर्य का प्रकाश उपलब्ध होने पर दीपक जलाने की आवश्यक ही नहीं रह जाती।

जिसका विकल्प आत्मशांति है, उस श्रेष्ठता का लक्षण है शुभ दर्शन। श्रेष्ठ व्यक्ति को सारे संसार में, सारी दिशाओं में, सारी घटनाओं तथा सारे संयोगों में केवल कल्याण के ही दर्शन होते हैं। यह शुभ के लिए ही शुभ कर्म करता है और उसके परिणाम को किसी भी रूप में शुभ ही देखता और कल्पना करता है। निराशा, निरुत्साह, खेद, दुःख, पश्चाताप, अमंगल अथवा असम्भाव्य की आकाँक्षा उसे विचलित नहीं कर पाती। जो स्थिति उसकी सफलता तथा सम्पन्नता में रहती है वही असफलता एवं विपन्नता में रहती हैं। उसका हर्ष, उसका सुख और उसका सन्तोष भंग नहीं होता।

दुनियाँ पर यदि दृष्टिपात किया जाये तो एक-दो नहीं सैकड़ों हजारों व्यक्ति हँसते, खेलते, बोलते, मुदित तथा प्रसन्न होते दिखलाई देंगे। उनको देख कर यह यह कहना कठिन हो जायेगा कि इनके जीवन में कोई दुःख, ताप, अशाँति या असन्तोष भी हो सकता है। कहने के लिये यह भी कहा जा सकता है कि ये सब श्रेष्ठ-आत्मा व्यक्ति होंगे, इन्हें आत्मशाँति मिल चुकी होगी तभी तो यह प्रसन्नता इनके मुख-मण्डलों पर विराजमान दिखलाई दे रही है।

पर बात वास्तव में वैसी नहीं होती। उनकी प्रसन्नता का रूप वही होता है जैसे कोई स्वप्न अथवा सन्निपात में हँसता या प्रसन्न होता है। उनकी वह प्रसन्नता मौलिक नहीं होती और न स्थायी ही। वह किसी संयोग की प्रतिक्रिया मात्र ही होती है। या तो वे उस समय किसी पदार्थ भोग से छले होते हैं अथवा लाभ अथवा प्राप्ति से विमोहित। उनके हर्ष का हेतु खोजकर हटा दिया जाये तो उनका उल्लास भी नष्ट हो जायेगा।

वास्तविक अथवा आध्यात्मिक हर्ष तो वह माना जायेगा जो अहेतुक हो। जिसका आधार आत्मा के अतिरिक्त और कुछ न हो। संसार के नश्वर और उसके क्षणिक भोग सुख से अनुभव होने वाला हर्ष एक छलना, सो भी नश्वर छलना के समान ही होता जिसका प्रवंचन भी अधिक देर तक नहीं ठहरता। यथार्थ तथा स्थायी प्रसन्नता उसी को कहा जा सकता है जिसका विकल्प दुःख कदापि न हो। आज किसी को व्यापार में लाभ हुआ है, किसी का विवाह हुआ है अथवा किसी को पुत्र की प्राप्ति हुई है। वह प्रसन्न तथा हर्षित दिखलाई देता है। इसका अर्थ यह नहीं कि उस उल्लास के माध्यम से उसकी आत्म-श्रेष्ठता व्यक्त हुई है। वह हर्ष, वह उल्लास, वह प्रसन्नता उक्त लाभ अथवा उत्सव की प्रतिक्रिया मात्र होती है जो पुनः आवेग समाप्त हो जाने पर शमन हो जाती है। और मनुष्य अपनी उदासीन स्थिति में वापस चला जाता है और पुनः खेद और दुःख अनुभव करने लगता है।

जो प्रसन्नता लाभ में बनी रही, वही हानि में भी स्थिर रहे, जो संपत्ति के समय अनुभव हो वही विपत्ति के समय, जो अनुकूलताओं में जाग्रत रहे और प्रतिकूलताओं में भी नष्ट न हो, वही सच्ची तथा श्रेष्ठता-जन्य प्रसन्नता मानी जायेगी।

आत्मा की श्रेष्ठता परमात्मा की उपासना से प्राप्त होती है। नास्तिक अथवा अनाध्यात्मिक व्यक्ति संसार का कोई भी वैभव, कोई भी पदार्थ और कोई भी भोग क्यों न प्राप्त कर ले पर उसे सच्ची आत्मोत्कृष्टि नहीं मिल सकती है। इस संसार में जो कुछ शुभ है, श्रेष्ठ है, उत्कृष्ट और मंगलमय है वह सब उस परमात्मा की ही विभूति है। उसी से सम्पन्न होती है और उसी में आश्रित है। सृष्टि का सौंदर्य, पृथ्वी की संपन्नता, सागर का भण्डार, वनस्पतियों का स्वाद, औषधियों की शक्ति, ग्रह-नक्षत्रों का प्रकाश, ऋतुओं का आनन्द और मनुष्य की अनुभूति शक्ति- सबक पीछे उस परमात्मा की ही विभूति विराजमान है। संसार की सारी श्रेष्ठताओं को परमात्मा का आभास ही माना गया है। परमात्मा से ही सब कुछ सुन्दर है और उसी से सब कुछ मंगलमय है। अस्तु आत्मा की श्रेष्ठता प्राप्त करने के लिए संसार के साधनों की ओर न जाकर परमात्मा की ही उपासना करनी चाहिए।

उपासना का अर्थ है- समीप बैठना, सामीप्य अथवा उपसंग। जिसके समीप उपस्थ रहा जायेगा उसकी विशेषता अपने में आ जाना स्वाभाविक ही होता है। गर्म लोहे के पास स्थित ठण्डा लोहा उसकी गर्मी ग्रहण करता हुआ स्वयं भी गर्म हो जाता है। हिम के संपर्क में आने वाली वस्तु ठण्डी हो जाती है। जंगल में चन्दन वृक्ष के समीप उगा वृक्ष भी उसके संपर्क से चन्दन जैसी ही गन्ध वाला हो जाता है और प्रकाश के संग में आने वाली वस्तु भी प्रकाशित हो उठती है। संपर्क, संसर्ग अथवा उपस्थिति को गुण दोषों की ग्राह्यता का बहुत बड़ा कारण माना गया है।

उपासना में रहने वाला व्यक्ति परमात्मा के समीप ही रहता है और उसके परिणामस्वरूप उसकी विशेषताएं ग्रहण करता रहता है। परमात्मा सारी श्रेष्ठताओं तथा उत्कृष्टताओं का विधान है। इसलिए वे गुण उस उपासक में भी आने और बसने लगते हैं। कोई कारण नहीं कि मनुष्य हिमाच्छादित पर्वतों के समीप रहे और शीतलता अनुभव न करे। फूलों से भरी वाटिका में रहने तथा तन मन सुगन्धित न हो उठे, ऐसा होना संभव नहीं। जो भी उपासना द्वारा परमात्मा का सामीप्य प्राप्त करेगा उसके समीप बना रहेगा, उसमें परमात्मा का गुण, श्रेष्ठता का स्थानान्तरण होना चिर स्वाभाविक ही है।

हजारों लाखों व्यक्ति नित्य ही पूजा-पाठ करते दिखलाई देते हैं। वे ऐसा भी समझते हैं कि उपासना कर रहे हैं। बहुत से दूसरे लोग भी उन्हें उपासक मान बैठते हैं। पर उनकी यह उपासना वाँछित फल के साथ सफल नहीं होती। न तो उन्हें श्रेष्ठता मिलती है और न आत्म-शाँति। वे पूजा-पाठ करने के बाद भी झूठ बोलते हैं, मक्कारी करते हैं। क्रोध लोभ और मोह के वशीभूत रहते हैं जिसके फलस्वरूप मन में न तो शीतलता और न आत्मा में संतोष की अनुभूति होती है, ज्यों के त्यों, शोक-संतापों, यातनाओं, त्रासों, शंकाओं, अभावों तथा असन्तोषों से पीड़ित रहा करते हैं। पूरी तरह से यथावत भव-रोगी बने रहते हैं। परमात्मा के वे श्रेष्ठ गुण, जिन्हें प्रेम, सौहार्द, करुणा-दया, आत्मीयता, आनन्द, सन्तोष, शाँति आदि के नामों से पुकारा जाता है, प्राप्त नहीं होते। शतशः सिंचन के बाद भी स्थाणु के स्थाणु ही बने रहते हैं, न उनमें कोई पल्लव प्रस्फुटित होते हैं और न फूल खिलते हैं।

परमात्मा की उपासना करने से उसकी श्रेष्ठताओं का आत्मान्तरित होना एक अटल सत्य है। इसमें अपवाद हो नहीं सकता। जब उपासना करता दिखलाई देने पर भी जिस व्यक्ति में श्रेष्ठ परिवर्तन के लक्षण दृष्टिगोचर न हों कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति असंदिग्ध घोषणा कर सकता है कि वह उपासना, उपासना नहीं, बल्कि उसका आडंबर मात्र है, दिखावा है, प्रदर्शन है।

सच्ची उपासना का अर्थ है आत्मा को परमात्मा से जोड़ देना। ऐसा करने पर, जिस प्रकार प्रणाली द्वारा खाली जलाशय को भरे जलाशय से सम्बन्धित कर देने से उसकी जलराशि उसमें भी आने लगती है और रिक्त जलाशय भी उसकी तरह ही पूर्ण हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा द्वारा परमात्मा से सम्बन्ध बना लेने से परमात्मा की श्रेष्ठताएं मनुष्य में भी प्रवाहित हो जाती हैं। किन्तु इस माध्यम के बीच कोई व्यवधान रख दिया जाये तो प्रवाह रुक जायेगा। जलाशय को जल और मनुष्य के श्रेष्ठता प्राप्त नहीं होगी।

आग के पास आने पर ठण्डा लोहा ऊष्मा प्राप्त करता है। पर यदि आग और उसके बीच लकड़ी का एक पटला रख दिया जाये तो लोहा आग की गरमी से वंचित रह जायेगा। इसी प्रकार जब उपासना की विधि में आत्मा और परमात्मा के बीच कामनाओं का व्यवधान डाल दिया जाता है तो मनुष्य परमात्मा के गुणों को ग्रहण करने से वंचित हो जाता है। जिन उपासकों में परमात्मा के लक्षण संकलित होते दिखलाई न दें समझ लेना चाहिये कि उसकी आत्मा और परमात्मा के बीच कामनाओं, वाँछनाओं तथा वासनाओं का व्यवधान पड़ा हुआ है और जब तक यह व्यवधान हटाया नहीं जायेगा, उपासना का वास्तविक फल प्राप्त होना सम्भव नहीं। अधिकाँश पूजा-पाठ तथा चन्दन-वन्दन करने वाले उपासना नहीं उपासना का आडम्बर ही किया करते हैं। या तो उसके आधार पर उन्हें अपना महत्व प्रदर्शन करने का भाव घेरे रहता है अथवा उनकी उपासना का लक्ष्य किसी कामना की पूर्ति रहता है परमात्मतत्व की प्राप्ति नहीं।

मनुष्य जीवन का चिर साध्य है आत्म-शाँति, जिसका आधार है वे श्रेष्ठताएं जो परमात्मा के स्वाभाविक गुण हैं और जिन्हें उपासना के आधार पर ही पाया जा सकता है। किन्तु सच्ची उपासना वह है जो केवल उपासना के निष्काम होकर की जाये।

निष्काम रूप से उपासना प्रारम्भ कर परमात्मा से आत्मा का सम्बन्ध स्थापित करिये और श्रेष्ठताओं की उपलब्धि कर सुख-शाँति के अक्षय आनन्द से भरे जीवन और अनन्त अन्त की परख कीजिए।


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