सहानुभूति- आत्मा का प्रबल प्यास

February 1968

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एकाकी मनुष्य जीवन की शक्ति बड़ी सीमित और स्वल्प है। यदि सभी मनुष्य केवल अपने हित को हित मानें, निजी स्वार्थ तक ही सीमित रहें और जो उपेक्षित, कमजोर और पीड़ा से परेशान व्यक्ति हैं उनके प्रति अपनी सहानुभूति एवं संवेदना व्यक्त न करें तो संसार पीड़ाओं और निराशाओं का घर बन जाये। किसी स्वजन सम्बन्धी की सहानुभूति पाकर पीड़ित व्यक्ति को जो सन्तोष होता है वह किसी भी पुण्य से बेहतर है। सहानुभूति जीवन की महती भावना शक्ति है जो उसे कोमलता सरलता और आत्मानुभूति के आध्यात्मिक लक्ष्य तक सुविधापूर्वक पहुँचा देती है।

पूर्वारम्भ में जिन व्यक्तियों ने विश्व की दार्शनिक खोज और सत्य के ज्ञान के लिए तपश्चर्याऐं की अन्त में जब वे विश्व की विशालता और अनन्त की शक्ति की थाह नहीं पा सके, उनका असंतोष बढ़ता ही गया तो अन्त में इन्हें भी आत्मसन्तोष के लिए पीड़ित मानवता की सेवा के सहानुभूति पथ पर उतरना पड़ा। तब वे व्यक्ति महान से महानतर बन गये।

सहानुभूति से भी व्यक्तित्व में पूर्णता का विकास होता है इससे यह बात अच्छी प्रकार स्पष्ट हो जाती है। इसी के आधार पर मनुष्य अपनी निजता में भी विश्वात्मा, अनेक आत्माओं का प्रतीक बन जाता है। वह दूसरों के हृदय की बात सुनने लगता है, और इसी से वह आत्मा के गुणों का अध्ययन करने लगता है।

कन्फ्यूशियस, फ्रांसिस, बेकन तथा माओत्सेतुंग आदि आदि विद्वानों ने पहले सहानुभूति को ठगा जाने वाला तत्व समझा था, किन्तु बाद में वे जब जीवन की गहराइयों में उतरे तो उन्हें पता चला मनुष्य केवल सहानुभूति के कारण ही जिन्दा है। सहानुभूति का विस्तार और प्रसार हर घड़ी होना चाहिये। माओत्सेतुंग बड़े क्राँतिकारी रहे और हाल ही में फ्रेंच पत्रकार मोमानेत ने यह रहस्योद्घाटन किया कि माओ भी अब सहानुभूति की एक बूँद के लिए तरसते रहते हैं। यह संसार बना ही कुछ ऐसा है जिससे शक्तिशाली व्यक्ति को भी एक दिन सहानुभूति की आवश्यकता हो जाती है। यदि उसका एक सरल प्रवाह सामाजिक जीवन में बना रहे तो कष्ट और पीड़ाओं में भी मनुष्य की आशायें विनष्ट न हों, जीवन के प्रति उसकी श्रद्धा जागृत रहे।

‘ऐला वेलूदलकाक्स’ ने लिखा है- जब अपनी ओर देखो तो सख्ती से काम लो, किंतु जब तुम दूसरे मनुष्यों की ओर देखो तो नम्रता से काम लो। इस प्रकार के उपहास और निन्दा से दूर रहो तो निम्नस्तर के व्यक्तियों की जबान से निकलती और लोगों को पीड़ा पहुँचाती है। यह लक्षण ढूँढ़ना चाहिये जब हम किसी दूसरे के दुःख-दर्द को अपना सकें। ऐसी स्थिति में दोनों का उपकार होता है दोनों को सुख मिलता है।

सहानुभूति मनुष्य के जीवन में क्या जोड़ती और क्या घटाती है इस पर आज मनोविज्ञान भी बड़ी तत्परता से छान-बीन कर रहा है। कुछ मनोविज्ञानवेत्ताओं का निष्कर्ष है कि सहानुभूति देने वाले और लेने वाले दोनों की उम्र बढ़ती है। वह हृदय को शक्ति और भावनाओं को विशालता प्रदान करती है। कुत्तों और बिल्लियों पर प्रयोगशालाओं में प्रयोग किये गये, उनसे यह सिद्ध हुआ है कि सहानुभूति का स्पर्श होते ही फेफड़े गर्म हो जाते हैं, धमनियाँ अपने स्वाभाविक ताल पर स्थिर होने लगती हैं और रक्त का रंग निखरने लगता है।

फ्राँक लोवोस्की के उदाहरणों और खोजों से पता चलता है कि सहानुभूति देने वाले पर तो और भी उत्तम प्रभाव पड़ता है। जो सहानुभूति देते हैं वे व्यक्ति अधिकाँशतः दीर्घजीवी होते हैं। जिनके स्वभाव में आत्मीयता का और परदुःख-कातरता का यह भाव विशेष सजग होता है उनको अपने शरीर को रोगों से रक्षा के लिये औषधि नहीं ढूँढ़नी पड़ती। सहानुभूति भावना का अमृत है, जिसका सूक्ष्म लाभ आत्मदर्शन और स्थूल लाभपूर्ण निरोगता तक हो सकता है।

सम्भवतः इसी तथ्य की अनुभूति कर वाल्ट ह्विटमैन ने लिखा होगा- “मैं आपत्ति ग्रस्त मनुष्य से यह नहीं पूछता कि तुम्हारी दशा कैसी है, वरन् मैं स्वयं ही आपत्तिग्रस्त बन जाता हूँ, इससे मेरे हृदय को इतना बल मिला है कि मैं कह भी नहीं सकता।” फ्रेंच मनोविद्या विशारद गेवानियाँ लिखते हैं कि- दया और सहानुभूति की भावना मानसिक उत्थान की जितनी बड़ी दवा है। यदि तुम्हें संसार में कुछ अच्छा न लगता हो तो दूसरों के दर्द में सहायक बनना सीखो, इसी जीवन में वह आनन्द पाओगे कि उसके आगे सारे सुख भोग और वैभव फीके पड़ जायेंगे।

अल्वर्ट स्वाइत्जर का तो सारा जीवन ही मानव-प्रेम, करुणा और सहानुभूति की दार्शनिक अभिव्यक्ति है। एक बार उनसे किसी ने प्रश्न किया कि संसार में भीषण दुःख और कष्ट हैं इस सम्बन्ध में आपके क्या विचार हैं? इस पर उन्होंने हँस कर उत्तर दिया- “धरती में कभी वर्षा न हो, पानी की एक बूँद भी न रहे तो भी जब तक मनुष्य की आँखों में दया की चमक, मुख में प्रेम की भाषा और मन में सहानुभूति की तरंग है तब तक धरती कभी बंजर हो नहीं नहीं सकती।”

सौभाग्य की बात है कि मनुष्य के लिए यह पुण्य असीम और निर्बाध है। जिस सीमा तक हमने अपने आप पर, अपनी विचार और क्रियाशैली पर अधिकार पाया उसका अधिकाँश दूसरों के साथ सहानुभूति का व्यवहार करने में कर सकते हैं। इसके लिए आत्मविस्मृत होना पड़ेगा- अपने आप, अपने स्वार्थ, अपनी संकीर्णता को खोना होगा। जब तक हमें केवल अपना ध्यान होगा तब तक हम दूसरों का ध्यान नहीं रख कर सकते। दूसरों के कष्ट नहीं अपना सकते, दूसरों से प्रेम नहीं कर सकते। दूसरों के विचार में अपने आपको भूल जाना ही तो सहानुभूति है। उसका एक अंश पा जाने से भी मनुष्य का जीवन प्रेम से परिपूर्ण हो जाता है।

सहानुभूति के मार्ग की दो बाधायें हैं- “संकीर्णता और स्वार्थ।” जब तक दूसरों से घृणा करते रहोगे तब तक सहानुभूति का भाव आयेगा कैसे? सहानुभूति का वृत्त सीमित व संकुचित नहीं वह बड़ा विशाल है और केवल मनुष्य से मनुष्य के प्रेम की ही परिपुष्टि नहीं करता। वरन् जीवमात्र में आत्मानुभूति, दया करुणा और मैत्री की शिक्षा देता है। दीन-दुःखी की सेवा के लिए किया गया कर्म, चाहे वह मनुष्य हो अथवा पशु-पक्षी, परमात्मा की उपासना में गिना जाता है। उसका फल और पुण्य ईश्वर-आराधना से भी सौगुना बड़ा माना जाता है। अपने पराये, ऊँच-नीच, छोटे-बड़े का भेदभाव सहानुभूति को सार्थक नहीं करते वरन् उसकी परिभाषा को छोटा बनाते हैं। सहानुभूति सारे संसार के लिए एक जैसी हो वही सच्ची और सार्थक होती है।

सच्चे हृदय की सहानुभूति एक दिन शत्रु को भी मित्र बना देती है। तालमूट की एक कहानी है- किसी गाँव में एक सन्त रहता था। वह दीन-दुःखियों के घर जाता और उन्हें हल्का करने की कोशिश करता, इसमें उसकी लोकप्रियता बढ़ी, प्रतिष्ठा और सम्मान बढ़ा। कुछ व्यक्तियों को यह सम्मान अखरा और उन्होंने उस सन्त का अपमान करना शुरू कर दिया। उस पर कई तरह के दोषारोपण किये गये। उपहास किया गया और हँसी उड़ाई गई। सन्त के हृदय में इससे बड़ी चोट पहुँची। उन्होंने स्थान बदल लिया। अन्यत्र जाकर अपनी यह साधना प्रारम्भ कर दी। इनके चले जाने पर पुनः परिस्थितियाँ ऐसी बनीं जिससे लोगों ने उन उदारमना महात्मा की आवश्यकता अनुभव की, तब लोगों को अपनी भूल का पता चला। वे महात्माजी को साथ तो न ला सके पर उनके प्रति श्रद्धा का भाव कुछ ऐसा बना कि उन्हीं में से कई लोग उस वृत्ति वाले बने और उन्होंने सहानुभूति की आवश्यकता को अनुभव किया। सन्त को इसका पता चला तो वे बहुत प्रसन्न हुये और सेवा-भावना की उनकी आस्था और भी दृढ़ हो गई।

प्रेम प्रतिदान माँगता है पर सहानुभूति उनसे भी की जाती है जो हमें नहीं करते, इसलिये सहानुभूति बड़ी है। सहानुभूति दूसरों का प्रेम पाने का सर्वोत्तम उपाय है और आत्मसन्तोष का सर्वसुलभ साधन है। जिस व्यक्ति, जिस समाज में सहानुभूति जिन्दा रहती है, दुःख-दर्द और अभार में भी वहाँ के प्राणी राहत अनुभव करते हैं और दिव्यप्रेम के आदान-प्रदान का सुख प्राप्त करते हैं।


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