सुसंस्कृत परिवार का निर्माण कैसे हो?

February 1968

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पारिवारिक कलह तथा अव्यवस्था से ऊब कर लोग संस्था को ही तोड़ देने की पेशकश करने लगे हैं। किन्तु उन्हें इस विषय में पाश्चात्य देशों के उदाहरण से शिक्षा लेनी चाहिये। कुछ समय में योरोपीय देशों में सम्मिलित परिवार प्रथा को तोड़कर सुख-शाँति के प्रयोग किए जा रहे हैं। किन्तु वाँछित उद्देश्य की पूर्ति होती नहीं दीखती।

विवाह होते ही तरुण, माँ-बाप और छोटे भाई-बहनों को छोड़कर परिवार से अलग हो जाते हैं। कुछ समय तो इनके दिन सुख-चैन से बीतते, फिर पति-पत्नी में कहा सुनी होने लगती है। उसका जहाँ एक कारण सद्गुणों का अभाव है वहाँ दूसरा कारण यह भी है कि जब पति-पत्नी अलग अकेले रहते हैं तब केवल उन दोनों को ही समस्याओं का सामना करना पड़ता है जिससे जल्दी ही चिड़चिड़े बन जाते हैं। कोई समस्याओं में हाथ बटाने वाला नहीं होता। यह सुविधा तो सम्मिलित परिवार में ही सम्भव हो सकती है। सम्मिलित परिवार की समस्या सारे परिजनों की होती है। हर आदमी उसमें हाथ बटाता है। उनका दबाव किन्हीं दो पर नहीं पड़ता। सम्मिलित परिवारों में एक दूसरे के अनेक लोग सहायक रहते हैं। थोड़ा-थोड़ा करके सारा भार तथा उत्तरदायित्व बट जाता है, सभी हल्के रहते हैं।

पृथक परिवारों में यह सुविधा नहीं रहती। सारी पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक तथा वैयक्तिक समस्याओं का भार दो पति-पत्नी पर ही पड़ता है, जिससे वे शीघ्र ही थक जाते हैं और एक दूसरे से लड़ने-झगड़ने लगते हैं। तलाक और सम्बन्ध-विच्छेद की स्थिति आते देर नहीं लगती। इसका भी कारण है। वह यह कि सम्मिलित परिवारों में गुरुजनों का दबाव रहता है। पति-पत्नी का झगड़ा ज्यादा नहीं बढ़ पाता। एक तो वे अदब तथा शर्म के मारे स्वयं ही लड़ने में संकोच करते हैं, दूसरे जब कभी उनमें कहा-सुनी की नौबत आती है तो दूसरे लोग मध्यस्थ बनकर उनको समझाते हैं और बात जहाँ की तहाँ समाप्त हो जाती है। वह बढ़कर तलाक तथा सम्बन्ध-विच्छेद तक नहीं पहुँच पाती।

परिवार से टूट-फूट कर लोग अलग घर तो जरूर बना लेते हैं लेकिन पारिवारिक सुख-शाँति से वंचित ही बने रहते हैं। पति-पत्नी तो आपस में झगड़ते ही रहते हैं, साथ ही जब बच्चे हो जाते हैं तो वह भी ज्यों-ज्यों बढ़ते जाते हैं, समस्यायें बढ़ाते जाते हैं। अनेक प्रकार की अवाँछनीय बातें करते और सयाने होने पर परिवार से अलग जा बसते हैं। बूढ़े माता-पिता बुद्धिमत्तापूर्वक जो कुछ जवानी में मितव्ययिता से बचा पाते हैं, वही उनके बुढ़ापे का सहारा और सम्बल बनता है। जो बच्चों को लाड़-प्यार देने के लिए खाली हाथ ही बने रहते हैं उनका बुढ़ापा बुरी तरह कंटकाकीर्ण हो जाता है। इस प्रकार पाश्चात्य देशों में तरुण माता-पिता को अनाथ छोड़ने का पाप भी लेते हैं, पारिवारिक सुख-शाँति भी नहीं पाते।

परिवार के सम्मिलन पृथक पृथकता पर घर की सुख-शाँति निर्भर नहीं है। उसका हेतु कुछ और ही है। वह है परिजनों का सद्गुणी होना। परिवार के लोग यदि सद्गुणी हैं तो परिवार चाहे मिलकर चले चाहे पृथक उसमें शाँति बनी रहेगी। और यदि वे दुर्गुणी हैं तो किसी भी अवस्था में सुख-शाँति रह सकना सम्भव नहीं। अच्छा यही है कि आपस में मिलजुलकर रहा जाय और सारे परिजनों को अधिक से अधिक सद्गुणी बनाया जाये।

सोचने की बात है कि जब पृथक परिवार प्रथा पाश्चात्य देशों में सफल नहीं हो रही है, जहां न विधवाओं का प्रश्न है, न वृद्धों की समस्या। वैधव्य जैसा वहाँ कोई दुर्भाग्य नहीं है और वृद्धता के विषय में भी कोई चिन्ता की बात नहीं है। एक तो वहाँ लोग प्रायः सम्पन्न होते ही हैं, दूसरे बेसहारा वृद्धों के लिए सरकार की ओर से वृत्तियाँ भी मिलती हैं जिससे वे अपनी जीवन नौका पार लगा लेते हैं। बीमारी की दशा में अस्पताल और नर्सें अच्छी देखभाल कर देती हैं। किन्तु भारतीय समाज में इन सुविधाओं का अभाव है। विधवाओं की समस्या का कोई समुचित हल कुरीतियों तथा जड़ रूढ़ियों के कारण, कार्यान्वित नहीं हो पा रहा है। अनाथालयों की दशा गिर गई हैं। वृद्धों तथा अपाहिजों के लिए ऐसी वृत्तियों की कमी है जिनके सहारे वे अपना शेष जीवन ठीक प्रकार से यापन कर सकें। भारतीय सभ्यता तथा समाज रचना का तकाजा है कि यहाँ सम्मिलित परिवार प्रथा सुरक्षित रक्खी जाये। जरूरत केवल इस बात की है कि परिवारों का वातावरण तथा सदस्यों का स्वभाव सम्मिलित प्रथा के अनुकूल ढाला जा सके, जिससे कि उनमें कलह, विद्वेष अथवा विवाद की परिस्थितियाँ न पनपने पावें। पारिवारिक सुख-शाँति सम्मिलित अथवा पृथक परिवार प्रथा पर निर्भर नहीं है। वह निर्भर है सदस्यों के गुण कर्म स्वभाव की श्रेष्ठता पर।

सभी अभिभावक चाहते हैं कि उनके बच्चे और उनके परिजन श्रेष्ठ बनें, आपस में प्रेमपूर्वक मिलजुल कर रहें। उसके लिए वे सभी को समझाते और ऊँच-नीच सुझाते हैं। झगड़ने वाले सदस्यों को वे प्रेम का महत्व बतलाते, मिलजुलकर रहने के लाभों से अवगत कराते और हर अवसर पर कुछ न कुछ उपदेश देते रहते हैं। किन्तु उसका कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ता। एक-आध दिन के लिए सदस्य शाँतिपूर्वक रहते हैं और फिर लड़ने-झगड़ने लगते हैं। इस प्रभावहीनता के दो कारण हैं। एक तो यह कि यह उपदेश क्रम केवल उस समय चलता है जब कोई सदस्य आपस में लड़-झगड़ रहे होते हैं। उसके बाद बन्द हो जाता है। यदि यही उपदेश झगड़ा हो अथवा न हो, प्रतिदिन नियमित रूप से चलता रहे तो उनके संस्कार बनते रह सकते हैं और धीरे-धीरे सुधार हो सकता है। दूसरा कारण यह रहता है कि अभिभावक उपदेश तो देते रहते हैं किन्तु स्वयं वैसा आचरण नहीं करते। आचरण के अभाव में उपदेश का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। दीपक दीपक से जलता जरूर है किन्तु जलते हुए दीपक से, बुझे हुये से नहीं। जो स्वयं गुणवान है वही दूसरों को गुणवान बना सकता है। जो स्वच्छ है वही दूसरों को स्वच्छ बना सकता है। सच्चा उपदेश आचरण का प्रभाव है। जो उपदेश दिया जा रहा है, यदि वह उपदेशक के आचरण में चरितार्थ नहीं है तो उसका रंच प्रभाव भी किसी पर नहीं पड़ेगा। इस विषय में एक उदाहरण बहुत प्रसिद्ध है-

एक महात्मा इसके लिए प्रसिद्ध थे कि उनके उपदेश का दूसरों पर बड़ा अनुकूल प्रभाव पड़ता है। वे जिससे जो कुछ कह देते हैं वह वैसा ही करने लगता है। महात्मा जी का यह प्रभाव सुनकर एक स्त्री अपने दस साल के बालक को लेकर उनके पास गई और कहा- “महात्माजी यह बच्चा गुड़ बहुत खाया करता है। डाक्टरों ने बतलाया है कि यदि यह गुड़ खाना बन्द नहीं करेगा तो बहुत बीमार पड़ जायेगा। आप कृपा करके इसे समझा दें जिससे गुड़ खाना बन्दकर दे। हम लोगों के कहने का तो इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।”

उस स्त्री की बात सुन कर महात्माजी कुछ गम्भीर हो गये, और थोड़ी देर विचार करने के बाद बोले- “इसको दस दिन बाद लेकर आना, तब मैं इसको गुड़ छोड़ने के लिये समझा दूँगा।” स्त्री चली गई।

दस दिन बाद लड़के को लेकर फिर आई। महात्माजी ने लड़के को गुड़ न खाने के लिए समझाया और उसने उनकी बात मान ली। वहाँ बैठे अनेक आदमियों ने महात्मा से पूछा कि यह बात तो वह उस दिन भी कह सकते थे तब क्या कारण था कि उस दिन न कहकर आज दस दिन बाद कही।

महात्माजी ने बतलाया कि तब मैं स्वयं गुड़ खाया करता था। यदि उस दिन लड़के को उसे छोड़ देने के लिए उपदेश देता तो उसका प्रभाव न पड़ता। इन दस दिनों में मैंने गुड़ खाना छोड़ दिया और उसके प्रति अरुचि उत्पन्न करली। इस प्रकार मैं उपदेश करने का अधिकारी तो हो ही गया, साथ ही आशा है कि उपदेश का पूरा-पूरा प्रभाव बालक पर पड़ेगा। आचरणशून्य आदर्श का उपदेशदाता न तो अधिकारी है और न उसका वाँछित प्रभाव ही पड़ता है।

प्रायः सभी अभिभावक चाहते हैं कि हमारे बच्चे, स्त्री, परिजन सभी अच्छे बनें, अच्छे रास्ते पर चलें, जैसा वे चाहें बनें। इसके लिए वे उन्हें समय-समय पर बहुत प्रकार से समझाते भी रहते हैं, उपदेश भी करते हैं, किन्तु सब बेकार चला जाता है। न बच्चे सुधरते हैं और न परिजन इच्छानुकूल आचरण करते हैं। उसका कारण केवल यही है कि वे उन्हें उपदेश तो बहुत कुछ करते हैं किन्तु यह आदर्श स्वयं अपने आचरण में चरितार्थ नहीं करते।

कहना न होगा कि दुर्गुणी परिजन उतना ही दुःख देते हैं जितना शरीर में लगा हुआ कोई रोग। पारिवारिक सुख-शाँति के लिए परिजनों का सुधार करना उसी प्रकार आवश्यक है जिस प्रकार शरीर को सुखी रखने के लिये रोग का उपचार। रोग, आग और दुर्गुण बड़ी जल्दी बढ़ जाने वाले होते हैं। रोग की यह समझकर उपेक्षा कर दी जाय कि जरा-सी सर्दी-जुकाम है, इसकी क्या परवाह की जाय, तो यही छोटा-सा रोग बढ़कर भयंकर रूप धारण कर लेता है और तब उसका उपचार दुःसाध्य हो जाता है। चिनगारी समझकर आग की उपेक्षा कर दी जाय तो वह धीरे-धीरे बढ़कर दावानल का रूप धारण कर लेती है। इसी प्रकार दुर्गुण के प्रवेश करते ही यदि सुधार का प्रयत्न न किया जायेगा तो जल्दी ही वह स्वभाव का अंग बन जायेगा और तब उससे छुटकारा पा सकना सरल न रहेगा। इसलिए आवश्यक है कि अभी कोई विशेष बिगाड़ नहीं हुआ है कोई खास देर नहीं हुई है, इसलिए परिजनों के सुधार में आज से ही तुरन्त लग जाना चाहिये। ज्यों-ज्यों विलम्ब होता जायेगा बच्चे तथा परिजनों के दुर्गुण स्वभाव का अंग बनते जायेंगे और तब उनके सुधार के लिए बहुत प्रयत्न करना होगा और सफलता की आशा ज्यादा न रहेगी।

जो पारिवारिक सुख-शाँति के लिये सच्चाई के साथ इच्छुक हो गया उसे ही परिवार के सुधार में उसी तत्परता से लग जाना चाहिये जिस प्रकार स्वस्थ रहने का अभिलाषी व्यक्ति शरीर को निरोग करने में लग जाता है। किन्तु यह काम केवल समझाने बुझाने अथवा उपदेश देने से नहीं होगा। उपदेश का यदि कोई प्रभाव पड़ता भी है तो बहुत छोटी सीमा तक। गुणों की दिशा में परिवार का पूरा कायाकल्प तभी सम्भव होगा जब अभिभावक स्वयं अपना आचरण आदर्श बनायें, और ऐसा कुछ भी न करें कि जिसका बुरा प्रभाव बच्चों अथवा परिजनों पर पड़े अथवा जो आप उनमें नहीं देखना चाहते।

व्यक्तिगत आचरण के अभाव में परिवार सुधार की आकाँक्षा और उसके लिए दिये जाने वाले उपदेश निराशाजनक ही रहेंगे। यदि किसी को अपनी इस आकाँक्षा को मूर्तिमान देखना है कि उसके बच्चे भले, भोले, आज्ञाकारी और कुशाग्र बुद्धि बनें समाज की सेवा और संसार में उन्नति करें। उनका शील स्वभाव समुज्ज्वल बनकर न केवल उन्हें बल्कि अभिभावकों को भी प्रशंसनीय बना दें, सारे परिजन परस्पर पर प्रेम भाव, त्याग-भावना और उदारतापूर्वक रहें तो उसे स्वयं अपने चरित्र में इन गुणों का विकास करना होगा। अन्यथा उनकी यह आकाँक्षा उसी प्रकार अतृप्त रह जायेगी जिस प्रकार अकर्मण्य निर्धन व्यक्ति किसी भी सुख-सुविधा के लिए तरसकर रह जाते हैं।

परिवार सुधार के प्रयत्न में बच्चों का विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है। जो प्रौढ़ हो चुके हैं उनके संस्कार दृढ़ तथा श्रमसाध्य हो चुके होते हैं किन्तु बच्चे विकासोन्मुख होते हैं। उनकी मनोभूमि कोमल तथा अनुकरणीय होती है। कोई भी डाला हुआ संस्कार वे शीघ्रता से ग्रहण कर लेते हैं। यदि पढ़ने वाला बच्चा ठीक से पढ़ता-लिखता नहीं है तो इसका उत्तरदायित्व तो शिक्षक के सिर जा सकता है किन्तु यदि उसकी आदतें खराब हैं स्वभाव अपरिवारिक है तो उसका दोष माता-पिता पर ही आयेगा। जिस प्रकार कोई बालक शिक्षक से अक्षर ज्ञान प्राप्त करता है। उसी प्रकार वह माता-पिता से स्वभाव ग्रहण करता है। ग्रहण ही नहीं करता बल्कि वह उनके गुण दोषों में स्वयं ढलता जाता है। जिन माता-पिता में परस्पर कलह, संघर्ष और मनोमालिन्य चलता रहता है, उनके बालक भी स्वभावतः द्वेषी, ईर्ष्यालु, घृणा करने वाले और कटुवादी हो जाते हैं। उनमें अश्रद्धा तथा अनादर्श का दोष उत्पन्न हो जाता है, जो आगे चल पूरे परिवार, समाज और यहाँ तक धर्म तथा ईश्वर के प्रति अवज्ञा के रूप में प्रकट होता रहता है। ऐसे दुर्गुणी बालक स्वयं सुखपूर्वक रह सकेंगे अथवा पारिवारिक सुख-शाँति का आदर कर सकेंगे ऐसी आशा नहीं की जा सकती।

बच्चे अधिक लाड़-प्यार और उपेक्षा से, और परिजन स्वार्थ, अनुदारता, अधिकार भावना के प्रदर्शन से विद्रोही हो जाते हैं। इसलिए हर बुद्धिमान अभिभावक अपने सद्गुणों का विकास कर समुचित रूप से बालकों का पालन-पोषण तथा निर्माण करे तो उसकी पारिवारिक सुख-शाँति निश्चय ही निश्चित हो जायेगी।


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