यह बसन्तोत्सव 40 दिन तक जारी रखा जाय

February 1968

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यह अंक पाठकों के हाथ में पहुँचेगा, तब तक 3 फरवरी को सद्ज्ञान की देव गंगा- वीणापाणि- भगवती सरस्वती का जन्मोत्सव बसन्त-पंचमी (3 फरवरी) को सम्पन्न हो चुका होगा। अखण्ड ज्योति के हर सदस्य ने उसे किसी-न-किसी रूप में मनाया होगा, क्योंकि हम सबके लिए यह एक विशिष्ट पारिवारिक शुभ दिन है। इसी दिन ‘अखण्ड-ज्योति’ प्रकाशित हुई, इसी दिन ‘युग-निर्माण-योजना’ आरम्भ हुई, इसी दिन ‘गायत्री तपोभूमि’ की नीव रखी गई, इसी दिन ‘यज्ञ आन्दोलन’ प्रारंभ किया गया एवं हमारा आध्यात्मिक जन्म-दिन भी है। अपनी ‘उपासना’ भी इसी दिन से आरम्भ की, लोक-मंगल के कार्यक्रमों में भी इसी दिन हमने हाथ डाला और अब जीवन की अन्तिम तप साधना भी इसी दिन से आरम्भ होगी। इसलिए व्यक्तिगत रूप से हमारे लिए और सामूहिक रूप से समस्त परिवार के लिए यह एक प्रेरणापूर्ण प्रकाश पर्व है। इसे उत्साहपूर्वक मनाये जाने में हमारी आन्तरिक अभिव्यञ्जना की अभिव्यक्ति ही होती है। इस सम्बन्ध में जहाँ जितना उत्साह देखने को मिले वहाँ उतनी ही निष्ठा आँकी जा सकती है। इस संदर्भ में बरती जाने वाली उपेक्षा को हमारे प्रति- हमारे मिशन के प्रति उपेक्षा कहा जाय तो उसे अनुचित नहीं कहा जायेगा।

बसन्त पेड़-पौधों को पुष्प पल्लवों से लाद देता है। कोयलें, कूकतीं, तितलियाँ फुदकतीं, भ्रमर गूँजते हैं, मधु-मक्खियाँ अति उत्साहपूर्वक मधु संचय के पुरुषार्थ में लगती हैं और देखते-देखते अपना छत्ता शहद से भर लेती हैं। हर नर तनधारी के मन में उत्साह जगता है, पशु प्रवृत्ति में यह उत्साह कामुकता की ओर मुड़ जाता है। देव प्रवृत्ति में यही उत्साह उत्कृष्टता के सम्पादन में लगता है। हर हालत में आन्तरिक हलचल अवश्य उत्पन्न होती हैं। इस उत्साह को 40 दिन तक मनाये जाने वाले देशव्यापी बसंतोत्सवों के रूप में देखा जा सकता है। अब तो मनुष्य बड़ा आलसी, स्वार्थी और संकीर्ण होता जाता है। अन्यथा कुछ दिन पूर्व तक देहातों में गीत वाद्य, नृत्य आदि की इन दिनों धूम मची रहती थी और इस धूम-धाम की पूर्णाहुति अति उत्साह के पर्व होली के दिन की जाती थी। अब भी जहाँ उत्साह पूर्णतया नहीं मर गया है वहाँ कई तरह के साँस्कृतिक हर्षोत्सवों का आयोजन होता दिखाई देता है।

अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्य निश्चित रूप से चुने हुए मणि-मुक्ता हैं। 29 वर्ष के परिश्रम से हमने बहुत खोज-बीन के बाद इन आध्यात्मिक संचित पूँजी के धनी मानियों को एकत्रित किया और एक माला में पिरोया है। वे आज राख से ढके हुए अंगार की तरह निष्क्रिय भले ही दिखाई पड़ते हैं, पर वस्तुतः उनके भीतर एक चिनगारी मौजूद है, जो अवसर मिलते ही अपनी उष्णता एवं प्रकाश ज्योति का परिचय देगी। ऐसे लोगों की अन्तरात्माएं इस शुभ अवसर पर उल्लासित न हों, ऐसा संभव नहीं। अजान की आवाज सुनते ही हर दीनदार मुसलमान नमाज पढ़ने को उठ खड़ा होता है। मन्दिर में होने वाली शंख-ध्वनि सुन कर हर भावनाशील हिन्दू उपासना के लिए प्रस्तुत होता है। बिगुल बजते ही सैनिक दौड़ कर मैदान में पंक्ति बद्ध हो जाते हैं। घण्टी बजते ही सर्कस का खेल आरम्भ हो जाता है। इस वर्ष का बसन्तोत्सव कुछ ऐसी ही नवीन प्रेरणा लेकर उपस्थित हुआ है। जिसका उद्देश्य हम में से हर किसी की उदासीनता, उपेक्षा एवं अकर्मण्यता का निराकरण करके रख देना है।

कहना न होगा कि यह ऐतिहासिक अवसर है। हजारों वर्षों बाद युगान्तर का पुण्य पर्व आता है। जब आता है तब जागृत आत्माओं के कन्धों पर कुछ विशेष जिम्मेदारी डालता है। आग लगने पर फायर ब्रिगेड वाले पुकारे जाते हैं और उन्हें तत्परतापूर्वक अपना काम पूरा करना होता है। उपद्रव होने पर पुलिस को पुकारा जाता है, सीमा आक्रमण का मुकाबला करने के लिए सैनिकों को तुरन्त मोर्चा सम्भालना पड़ता है, दुर्घटना में घायलों की मरहम पट्टी करने के लिए डाक्टरी दस्ता सब काम छोड़कर उसी में जुट जाता है, बाढ़, भूकम्प, अग्निकाण्ड, महामारी आदि आकस्मिक विपत्तियों में पीड़ितों की सेवा सहायता के लिए हर सहृदय व्यक्ति को तुरन्त दौड़ना पड़ता है। आज की स्थिति ठीक ऐसी ही है।

युगान्तर, प्रसव पीड़ा की तरह इस संसार के लिए मानव-जाति के लिए विषम विभीषिकाओं जैसी अगणित समस्यायें लेकर आँधी-तूफान की तरह बढ़ता चला आ रहा है। ऐसे आपत्तिकाल में कोई जागृत आत्मा “निर्वाह में व्यस्त होने” का बहाना लेकर अपने महान आध्यात्मिक उत्तरदायित्व की उपेक्षा नहीं कर सकती। ऐसे अवसरों पर आत्मा की, परमात्मा की, भाव भरी पुकार को अनसुना कर सकना किसी पाषाण हृदय के मूढ़ मानव के लिए ही सम्भव हो सकता है।

यों बसन्त हर वर्ष आता है। अखण्ड-ज्योति परिवार भी 28 बसन्त गुजार चुका है। कभी वैसी आवश्यकता नहीं समझी गई जैसी आज है, इसलिए कभी कोई विशेष सन्देश एवं उद्बोधन भी उपस्थित नहीं किया गया। पर अब मजबूरी है। सोते बच्चों को जगाने में माँ-बाप को क्या प्रसन्नता होगी? पर जब मजबूरी की बात हो- स्कूल जाने का समय हो चला हो- तब तो जगाना ही पड़ता है। अब हमें भी परिजनों को ऐसी ही मजबूरी में झकझोरना पड़ रहा है।

यह बसन्तोत्सव पूरे उत्साह के साथ मनाया जाय, यह प्रेरणा गत अंक में दी जा चुकी है। सम्भवतः अधिकाँश ने उसे किसी-न-किसी रूप में मनाया भी होगा। पर उतने से ही काम न चलेगा। एक दिन का हवन या उत्सव तो एक छोटी हलचल मात्र है। उसे देर तक कार्य पद्धति के रूप में परिणत किया जाना चाहिये। 40 दिन का बसन्तोत्सव माना जाता है, बसन्त-पंचमी से उसका आरम्भ होता है और होली के दिन उसकी पूर्णाहुति। यह सारी अवधि पर्व काल है। चन्द्र, सूर्य ग्रहणों का आरम्भ और अन्त होने के समय का ही उल्लेख होता है पर वस्तुतः जितनी देर ग्रहण रहता है वह सारा ही समय पर्व काल है। ठीक इसी प्रकार बसन्त-पंचमी और होली की दो तिथियाँ आदि अन्त की गणना है। इन्हें यज्ञ का अग्नि स्थापना और पूर्णाहुति कर्म कह सकते हैं। आहुतियां तो बीच के समय में ही होती हैं। हमारा बसन्त पर्व पूरे 40 दिन तक चलना चाहिये।

आत्म-निर्माण और लोक-निर्माण की 5-5 प्रक्रियायें गत दिसम्बर, जनवरी के अंकों में विस्तार पूर्वक बताई जा चुकी हैं। उन्हें अपने वैयक्तिक जीवन में और समीपवर्ती क्षेत्र में कार्यान्वित करने का ठीक यही 40 दिन का समय है। यदि थोड़ा उत्साह और पुरुषार्थ दिखाया जा सके, तो इस अवधि में युग-निर्माण की दिशा मैं आशाजनक प्रगति हो सकती है। बसन्त-पंचमी के दिन यदि उत्सव न मनाया जा सका हो तो वह अंक पहुँचते ही कोई सुविधा का दिन नियत करना चाहिए और उस दिन उत्सव एक छोटे गायत्री यज्ञ, सामूहिक जप, सत्संकल्प पाठ, 29 दीप दान, संगीत प्रवचन के साथ मना लेना चाहिए।

अपनी संस्था का- प्रवृत्ति, प्रक्रिया एवं लोक-सेवा का यह 29 वाँ बसन्त है। यही हमारी असली आयु है। इसलिए 29 दीपक जला कर, 29 पुष्प चढ़ा कर अपने मिशन के प्रति श्रद्धाञ्जलि अर्पित करने का एक कार्यक्रम हर जगह बनाया जा सकता है। अच्छा हो ऐसे आयोजन सामूहिक रूप से बड़े पैमाने पर अधिक लोगों की उपस्थिति में मनाये जांय और उस अवसर पर उपस्थित लोगों को युग-निर्माण-योजना की भावना एवं क्रिया पद्धति से परिचित कराने के लिए कुछ विशेष तैयारी की जाय। पर यदि इतना न बन पड़े तो भी एक छोटा पारिवारिक उत्सव तो हर कोई कठिनाई के कर सकता है। अपने ही बच्चे, पड़ौसी और कुटुम्बी एकत्रित कर ऐसा घरेलू उत्सव मनाने में किसी की कोई खास कठिनाई नहीं होनी चाहिए।

हवन के खर्च से गरीब को भी नहीं डरना चाहिए। स्त्री, पुरुष या कोई भी व्यक्ति 24 आहुतियाँ देकर बहुत सस्ते में यज्ञीय परम्परा को प्रतिष्ठित कर सकते हैं। एक सामग्री होमे दूसरा घी। शेष उपस्थित लोग मंत्रोच्चारण तथा क्रियाकलापों में भागीदारी रहें। आहुति केवल पूर्णाहुति की ही डालें। इस प्रकार पूरा यज्ञ कार्य भी हो सकता है और खर्च एक रुपये के आस-पास में चल सकता है। जहाँ आर्थिक कठिनाई हो वहाँ इस तरह काम चलाया जा सकता है। तब इस आयोजन में केवल उत्साह और प्रयत्न के होने न होने मात्र की समस्या रह जाती है, जिसे सुलझा ही लेना चाहिए। इन 40 दिनों की की अवधि में बसन्तोत्सव मनाये जाने का छोटा बड़ा प्रबन्ध हर परिजन को करना चाहिए। उपेक्षा किसी की भी नहीं करनी चाहिए।

उत्सव एक शुभारम्भ है। हमारा आध्यात्मिक उत्साह इस 40 दिन की अवधि में पूरी प्रौढ़ता के साथ बना रहना चाहिए। नव-निर्माण के रचनात्मक कार्यों में इन दिनों हमारी कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ होनी चाहिए। आत्म-निर्माण और लोक-निर्माण के लिए वैयक्तिक एवं सामूहिक स्तर पर उत्साहपूर्वक प्रयत्न किए जाने चाहिए। पहला काम आत्म-निर्माण का है। (1) उपासना, (2) जीवन शोधन, (3) परमार्थ, यह तीन स्तम्भ अध्यात्म के हैं। इन्हीं को भक्ति योग, कर्मयोग और ज्ञानयोग कहते हैं। इन्हीं से कारण, सूक्ष्म और स्थूल कर्तव्यों का परिष्कार होता है। इस तथ्य को पिछले दो अंकों में विस्तारपूर्वक समझाया जा चुका है। अधिकांश परिजन इस दिशा में पहले से ही प्रयत्नशील हैं। उन्हें अब अपनी तत्परता एवं निष्ठा और अधिक बढ़ा देनी चाहिए। जिन्होंने कोई खास आरम्भ नहीं किया है उन्हें अब ठीक इन्हीं दिनों आरम्भ कर देना चाहिए।

(1) उपासना (भक्ति योग):-

(1) नियमित उपासना हमारे जीवन का एक अनिवार्य अंग रहे। कभी किया कभी नहीं, यह ढील-पोल अब बन्द करनी चाहिए। अन्य उपासनाएं जो भी करनी हो करते रहें पर एक माला, 108 मन्त्र-गायत्री के हर किसी को नित्य जपने चाहिए। जिन्हें शारीरिक निर्बलता या अन्य असुविधा हो वे प्रातः उठते ही हाथ-मुँह धोकर पालथी मार कर बैठें और 6 मिनट में वह गायत्री मन्त्र मौन मानसिक जप करके उपरोक्त संख्या पूरी करलें। इतना तो हर कोई कर सकता है। बाल, वृद्ध, रोगी आसक्त, व्यस्त, नर-नारी किसी के लिए भी यह कठिन नहीं है। इसके बाद एक पाठ युग-निर्माण सत्संकल्प का अवश्य होना चाहिए। हम को एक बार इस आधार पर अपने मिशन की रूप-रेखा मस्तिष्क में घुमा लेना आवश्यक है। इसलिए जप के साथ यह पाठ भी आवश्यक रूप से जुड़ा रहना चाहिए। यह न्यूनतम एवं अनिवार्य है। अधिक जितना जिससे बन पड़े स्नान, पूजन आदि के साथ पूरे विधिविधान के साथ प्रसन्नतापूर्वक करते रहना चाहिए। अपने घर में एक पूजा स्थली स्थापित करनी चाहिए, जहाँ महिलायें साँयकाल दीपक, आरती और दोनों के समय चौके में बने हुए भोजन का भोग लगाने की प्रक्रिया जारी रख सकें।

छोटे बच्चों को भी इतना तो सिखा ही देना चाहिए कि वे माता-पिता, बड़ों की तरह इस पूजा वेदी के समीप जाकर प्रणाम किया करें। युग-निर्माण संकल्प का सामूहिक पाठ हमारे घरों का एक आवश्यक धर्म कृत्य बन जाना चाहिए। अपने यहाँ यह क्रम चल रहा हो तो अपने प्रभाव परिचय के अन्य लोगों के यहाँ इस आस्तिकता एवं उपासना की प्रक्रिया को फैलाया जाय।

(2) जिनकी उपासना देर से चल रही है। उन्हें अब ध्यान साधना की ओर कदम बढ़ाने चाहिए। ‘उपासना में भावना का समावेश’ पर पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए। परमेश्वर को अपना जीवन सहचर साथी, सभी मान कर उससे अनन्त प्रेम करना उसकी सत्ता में अपनी सत्ता-उसकी इच्छा में अपनी इच्छा समर्पित करना, प्रेम का सच्चा स्वरूप है। परमात्मा से केवल प्रकाश और साहस माँगा जाय, उसे अपनी प्रेम की सच्चाई प्रकट करने का प्रमाण सेवा और पवित्रता की प्रवृत्ति बढ़ा कर दिया जाय। साँसारिक पदार्थ न माँगे जाय न उसके लिए रोया गिड़गिड़ाया जाय। सच्ची भक्ति का यही स्वरूप है। वह केवल आत्म-कल्याण और ईश्वरीय प्रेम प्राप्ति के लिए की जाती है। लौकिक कामनाओं को जब तक भक्ति के साथ जोड़ रखा जायेगा तब तक उसमें वास्तविकता नहीं आ सकती, इसलिए जिनका उपासना क्रम देर से चल रहा है। अब उन्हें स्तर की उत्कृष्टता बढ़ानी चाहिए और उपासना में प्रेम भावना का समन्वय कर अपने सारे जीवन-क्रम को प्रेम, सेवा, मधुरता, पवित्रता, त्याग और परमार्थ की भावना से ओत-प्रोत करना चाहिए ताकि उन्हें इसी जीवन में स्वर्ग और मुक्ति का प्रत्यक्ष रसास्वादन उपलब्ध होना तत्काल आरम्भ हो जाय।

जीवन शोधन (कर्मयोग):-

आत्म निरीक्षण, आत्म-सुधार, निर्माण और विकास ही कर्मयोग का सच्चा स्वरूप है। अपनी समीक्षा करने में पक्षपात करने से ही हमारे भीतर असंख्य दोष दुर्गुण बढ़े हैं और अनौचित्य से संघर्ष करने का शौर्य, साहस खो बैठने से वे जमकर बैठ गए हैं- हटने का नाम नहीं लेते। हमें अपनी शारीरिक और मानसिक त्रुटियों को बारीकी से ढूँढ़ना पड़ेगा और उन्हें हटाने के लिए अनवरत संघर्ष करते रहने को जीवन साधना का अविच्छिन्न अंग बनाना पड़ेगा। उत्कृष्ट आदर्श और दिव्य जीवन के निर्माण का यही एक मात्र राजमार्ग है। हर महामानव ने यही जीवन साधना की है और इसी मार्ग पर चलते हुए जीवनोद्देश्य प्राप्त करने में सफलता पाई है। हमें भी यही मार्ग अपनाना होगा। अन्यथा आध्यात्मिक प्रगति- महानता की उपलब्धि एक दिन स्वप्न बनी रहेगी। जिस पवित्रता के आधार पर ईश्वर को प्रसन्न और आकर्षित किया जा सकता है, वह एकमात्र जीवन साधना की चिरकालीन तपश्चर्या से ही प्राप्त होता है। पूजा पाठ की औपचारिक पद्धतियाँ उस दिशा में सहायक तो हैं पर लक्ष्य तक ही पहुँचा सकतीं। अपूर्णता से पूर्णता की ओर तुच्छता से महानता की ओर प्रगति का एक माध्यम जीवन-साधना ही है। उसी के आधार पर आत्मा को परमात्मा, नर को नारायण, पुरुष को पुरुषोत्तम बनाने का अवसर मिलता है।

(1) कर्मयोग से परिपूर्ण जीवन के लिए- प्रातः, सायं ‘हर दिन नया जन्म हर रात नई मौत’ का चिन्तन करते हुए अपने को अधिकाधिक पवित्र उत्कृष्ट एवं आदर्श बनाने का प्रयत्न जारी रखना चाहिए। दिन भर की शारीरिक और मानसिक दिनचर्या पर सतर्कतापूर्वक नियन्त्रण रखना और रात को वैराग्य की भावना के साथ निश्चित होकर निद्रा माता की गोद में सो जाना। यह क्रम यदि एक वर्ष तक नियमपूर्वक जारी रखा जा सके तो इस प्रकार से आध्यात्मिक कायाकल्प हो सकता है। लोगों को पूजा पाठ का मनोवाँछित लाभ न मिलने की शिकायत करते सुना जाता है, पर जीवन साधना का सत्परिणाम न मिले ऐसा कदापि सम्भव नहीं। जो चाहे परीक्षा करके देख ले। एक वर्ष के लिए यह परीक्षा हममें से प्रत्येक को आरम्भ कर देनी चाहिए और यदि लाभ हो तो आगे भी जारी रखना चाहिए।

(2) स्वाध्याय आत्मा का भोजन है। अपना पेट काट कर भी, आवश्यक कार्यों में कमी करके भी जीवन साहित्य को पढ़ने के लिए समय निकालना चाहिए। मानसिक शुद्धि के लिए, आत्मा की क्षुधा बुझाने के लिए ऐसा स्वाध्याय नितान्त आवश्यक है। एक घण्टा समय और दस पैसा रोज इस ज्ञान यज्ञ के लिए जिनने अभी खर्च करने का क्रम नहीं बनाया है, उन्हें अब बना लेना चाहिए। इसमें न तो कंजूसी करनी चाहिए और न उपेक्षा बरतनी चाहिए। पेड़ के सहारे बेल ऊँची चढ़ती है। स्वाध्याय और सत्संग के सहारे आत्मिक स्तर उठता है। उपयुक्त स्वाध्याय और सत्संग घर बैठे उपलब्ध करने की जो प्रक्रिया युग-निर्माण के अंतर्गत चल रही है, उस लाभ से किसी को भी वंचित नहीं रहना चाहिए। जेवर, जायदाद और नोट नहीं, परिवार की सच्ची सम्पत्ति जीवन निर्माण का प्रेरणाप्रद साहित्य है। अपने घर में एक ज्ञान मन्दिर- घरेलू नव निर्माण पुस्तकालय- रखना चाहिए, जिससे स्वयं को, अपने परिवार को, पड़ौसी और मित्रों को प्रेरणाप्रद प्रकाश मिलता रहे। यह ज्ञान यज्ञ हर घर में चलते रहना चाहिए। अखण्ड-ज्योति और युग-निर्माण पत्रिकाएं तथा सस्ते ट्रैक्टों में कुछ पैसा खर्च करके इसी 40 दिन की अवधि में हमें अपना ज्ञान मन्दिर आरम्भ कर लेना चाहिए और दस पैसा प्रतिदिन इस ज्ञान-यज्ञ के लिए निकाल कर आगे भी इस भण्डार को बढ़ाने का क्रम जारी रखना चाहिए।

(3) परमार्थ (ज्ञान-योग):-

स्वार्थ, लौकिक समुदाय इकट्ठा करने की प्रवृत्ति और परमार्थ आत्मिक पारलौकिक विभूतियाँ एकत्रित करने की आकाँक्षा को कहते हैं। अज्ञान का अर्थ है स्वार्थ में लिपटे रहना और ज्ञान का तात्पर्य है परमार्थ के लिए पुरुषार्थ करना। गायत्री मंत्र में इसी सद्ज्ञान की ऋतम्भरा प्रज्ञा की आराधना है, जिससे हमारा अन्तःकरण स्वार्थ से विरत होकर परमार्थ पथ पर अग्रसर हो। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ असतो मा सद्गमय, मृत्योर्माऽमृतंगमय’, की पुकार में इसी आन्तरिक उपलब्धि के लिए आत्मा ने परमात्मा से पुकार की है। सो हमें आत्म-कल्याण और लोक-मंगल दोनों ही प्रयोजन सिद्ध करने वाले इस महान अवलम्बन ही को दृढ़तापूर्वक पकड़ना चाहिए। परमार्थ के लिए अपने, समय, श्रम, धन, उत्साह एवं पुरुषार्थ की उचित मात्रा में नियोजित करना चाहिये।

कहना न होगा कि इस युग की- संसार की- मानव जाति की समस्त विपत्तियों का एकमात्र कारण दुष्प्रवृत्तियों का बढ़ना है। अनुपयुक्त विचारणायें, मान्यतायें, आस्थायें अपना कर ही मनुष्य दुर्दशा के गर्त में गिरा है। आज या आज से हजार वर्ष बाद जब कभी भी विश्व-कल्याण का दिन आना होगा, उसका आधार विचार शुद्धि, विचार क्रान्ति होगा। इसलिए छुट पुट पुण्य धर्मों से मिलने वाले क्षणिक परिणामों से सन्तुष्ट न होकर हमें दूरदर्शी बुद्धिमानों की तरह मानव जाति की व्यथा हरने के लिए सद्ज्ञान का प्रकाश जन-जन के अन्तःकरण में पहुँचाने- प्रतिष्ठापित करने का प्रयत्न करना चाहिए। इस ज्ञान दान से बढ़कर इस युग का और कोई परमार्थ हो नहीं सकता।

(1) हमें झोला पुस्तकालय चलाने चाहिये। यही इस युग की सच्ची देव पूजा है। भगवती सरस्वती की, माता गायत्री की, वास्तविक आराधना इसी रूप में हो सकती है। प्रतिमाओं के मन्दिर नहीं- ज्ञान के मन्दिर स्थापित करना इस युग की माँग है। बड़े पुस्तकालय तो मिलजुल कर संगठित रूप से बन सकते हैं, उनके लिए धन भी चाहिये। पर झोला पुस्तकालय को निर्धन से निर्धन और व्यस्त से व्यस्त व्यक्ति भी चला सकता है। अपने परिचितों और मित्रों में सद्ज्ञान साहित्य पहुँचाने और वापिस लेने का छोटा-सा, झंझट, मन से संकोच त्याग देने पर बड़े मजे में चलता रह सकता है। यह परमार्थ देखने में छोटा भले ही लगता है, पर है असाधारण अति महान्। इसके फलस्वरूप सैंकड़ों, हजारों आत्माओं के जीवन क्रम में आशाजनक प्रकाश उत्पन्न हो सकता है और वे बदल कर कुछ-से-कुछ बन सकते हैं। इस परिवर्तन का सारा पुण्य उस झोला पुस्तकालय चलाने वाले को नहीं तो और किसे मिलेगा?

(2) हर क्षेत्रों से एक ऐसा प्रचारक नियुक्त करने का प्रयत्न करते रहें जो नव-निर्माण साहित्य को पढ़ाने और बेचने में अपना सारा समय लगाये और इस साहित्य से थोड़ी आजीविका भी प्राप्त करता रहे।

(3) संगठन की शक्ति को भुलाया नहीं जा सकता। इस युग में संगठन ही एकमात्र सच्ची शक्ति है जिसके आधार पर व्यक्ति और समाज को कुमार्ग पर चलने से विरत कर सन्मार्ग पर चलने के लिए विवश किया जा सकता है। इस शक्ति का उद्भव हमें अखण्ड-ज्योति परिवार के परिजनों में उन्हें युग-निर्माण शाखाओं के अंतर्गत संगठित करके आरम्भ करना चाहिये। जहाँ जितने परिजन हैं वे इन 40 दिनों के भीतर हो। अपना संगठन बनालें और एक-मात्र कार्यवाहक पदाधिकारी नियुक्त करलें। उसका कार्यालय स्थान भी नियुक्त हो जाना चाहिये।

शाखा को सबसे पहले दो काम हाथ में लेने चाहिये। (1) सदस्यों के जन्मोत्सव मनाने की योजना बनाना। (2) शाखा कार्यालय में नव-निर्माण पुस्तकालय स्थापित करना है। जन्मोत्सव मनाकर प्रत्येक परिजन को उसका जीवनोद्देश्य, जीवन का स्वरूप और जीवन का लक्ष्य समझाया और उत्कृष्टता के मार्ग पर अग्रसर किया जा सकता है। नव-निर्माण पुस्तकालय, शाखा सदस्यों तथा आत्म-विचारशील लोगों की मनोवृत्तियों में, सत्प्रवृत्तियों एवं सद्विचारणाओं का बीजारोपण करेगा। व्यक्ति और समाज का निर्माण करने के लिए यह दोनों ही कार्य नितान्त आवश्यक हैं। इसके बाद शतसूत्री रचनात्मक कार्यक्रमों में से जहाँ जिन्हें कार्यान्वित किया जा सके उसे करना चाहिये। पर्व और संस्कार मनाने का क्रम भी संगठित शाखायें आसानी से चला सकती है।

(4) अन्तरिक्ष की शुद्धि के लिए दस अश्वमेधों का जो संकल्प अखण्ड-ज्योति परिवार ने किया है उसमें भागीदार होने तथा दूसरों को भागीदार बनाने के लिये दौड़धूप करनी चाहिये। हर दिन 24 लक्ष गायत्री मंत्र जप कर अनुष्ठान पूरा करने के लिये ऐसे 24 हजार भागीदारों की आवश्यकता है जो एक माला (108) गायत्री मंत्र जप एवं सत्संकल्प पाठ नित्य करते रहें। स्वयं को तथा अपने परिवार में हर सदस्य को इसमें भागीदार बनाना चाहिये तथा संपर्क के जिन लोगों को इसके लिये तैयार किया जा सके करना चाहिए। 10 व्यक्ति अपने प्रभाव क्षेत्र में बनाकर 10 हजार गायत्री-मंत्र जप हर रोज कराने का प्रयत्न हर शाखा संगठन को करना ही चाहिये। बड़ी शाखायें 25 हजार जप भी हर दिन कराने की प्रतिज्ञा में सफल हो सकती हैं।

(5) इस जप का हवन भी होता है। सो गायत्री जयन्ती, गुरु पूर्णिमा, विजय-दशमी, बसन्त पंचमी, होली इन पाँच पर्वों पर एक एक कुण्ड से पाँच सामूहिक हवन हर वर्ष हर शाखाओं को करते रहना चाहिये। और उन अवसरों पर युग-निर्माण विचारधारा पर बोलने के लिए सम्मिलित वक्ताओं को प्रवचन करने के लिए पहले से ही तैयार करना चाहिये। बड़ी शाखायें 5 कुण्डों का क्षेत्रीय यज्ञ कर सकती हैं, जिनमें समीपवर्ती शाखाओं के प्रतिनिधियों को एकत्रित किया जाय। हवन, नामकरण, विद्यारम्भ, मुण्डन, यज्ञोपवीत आदि संस्कार कराये जांय। ऐसे आयोजनों में मथुरा से हमारे प्रतिनिधि भी यज्ञ प्रवचन, संस्कार एवं मार्गदर्शन के लिए भेजे जा सकते हैं। जहाँ सम्भव हो ऐसे पंचकुण्डी सामूहिक यज्ञों की व्यवस्था की जाय, उनके साथ युग-निर्माण सम्मेलन अनिवार्य रूप से जुड़े रहने चाहिये। आहुति-यज्ञ की ही तरह ज्ञान-यज्ञ को भी समान महत्व का मानना चाहिए और दोनों की समान तत्परता के साथ व्यवस्था करनी चाहिये।

परमार्थ प्रयोजनों में हमारी प्रशिक्षण कामना का पूर्ण करना, और इस सेवा से अधिक लोगों को लाभ देने की व्यवस्था करना भी एक बहुत बड़ा काम है।

(6) अपने परिवार, गाँव या क्षेत्र से कम-से-कम एक 15 वर्ष से 40 वर्ष तक आयु का व्यक्ति एक वर्ष के जीवन कला प्रशिक्षण में भेजना चाहिये, जो आत्म-सुधार और आर्थिक स्वावलम्बन की शिक्षा प्राप्त कर अपना कल्याण करने के अतिरिक्त उस क्षेत्र में भी उस सत् प्रवृत्तियों को फैला सकने में समर्थ हो सके।

(7) शिल्प-शिक्षा में इस वर्ष कितने ही नये उपयोगी विषय बढ़ाये गये हैं। उनके आकर्षण से स्वावलम्बन प्रिय छात्र प्रसन्नता से इस शिक्षण में आ सकते हैं। नियमावली मंगा लेनी चाहिये और उसे अधिकाधिक किशोरों को पढ़ाकर इस शिक्षा के लिए प्रोत्साहित करना चाहिये।

ढलती आयु के गृह कार्यों से निवृत्त व्यक्तियों को जेष्ठ सुदी 15 से अश्विन सुदी 15 तक 4 महीने चातुर्मास साधना तथा शिक्षा के लिए मथुरा भेजना चाहिये। जो जन-नेतृत्व, जन-जागरण की योग्यता प्राप्त करने के साथ-साथ एक महत्वपूर्ण उपासना क्रम भी इस तीर्थ स्थान पर रहकर पूरा करलें।

(8) आगामी जेष्ठ में 9-9 दिन के दो शिविर होंगे। प्रथम शिविर जेष्ठ सुदी 2 (29 मई) से लेकर गायत्री जयंती जेष्ठ सुदी 10 (6 जून) तक है। एकादशी एक दिन की छुट्टी पुराने लोगों को जाने और नयों को आने के लिए रहेगी। दूसरा शिविर जेष्ठ सुदी 12 (8 जून) से लेकर अषाढ़ वदी 5 तक (16 जून) रहेगा। इन्हें परामर्श शिविर कहना चाहिए। वैयक्तिक समस्याओं के समाधान एवं हल इन दिनों प्रस्तुत किये जायेंगे, जिनके आधार पर जीवन की अगणित कठिनाइयों और समस्याओं को सुलझाया जा सके। हर आगंतुकों की व्यक्तिगत समस्याओं को सुलझाया जा सके। हर आगंतुकों की व्यक्तिगत समस्याओं के संबंध में उन्हें विशेष परामर्श दिये जायेंगे। व्रज के समस्त तीर्थों की सामूहिक यात्रा का कार्यक्रम भी उसी में सम्मिलित है।

प्रयत्न यह करना चाहिये कि स्वयं इन शिविरों में आयें और दूसरे विचारशीलों को भी लायें। 9 दिन में एक गायत्री अनुष्ठान भी यहाँ रह कर करें। तीर्थ यात्रा तथा समस्याओं के समाधान का महत्वपूर्ण परामर्श भी प्राप्त करें। जिन्हें जिस शिविर में आने की सुविधा हो वे पहले से ही स्वीकृति प्राप्त कर लें। ताकि स्थान की कमी के कारण देर से आया हुआ प्रार्थना-पत्र अस्वीकृत होने की कठिनाई न आने पावे। एक वर्षीय छात्रों को तो अभी से अपना स्थान सुरक्षित कराना चाहिये। क्योंकि 60 छात्र लेने हैं अधिक का स्थान विद्यालय में नहीं है। देर से आवेदन पत्र भेजने वालों को अगले वर्ष के लिये प्रतीक्षा में ठहरना पड़ेगा। चार महीने और एक वर्ष के लिए आने वाले शिक्षार्थी भी दूसरे शिविर में सम्मिलित रहेंगे।

उपरोक्त त्रिविध शिक्षा से अधिक लोग लाभ उठा सकें और हमें भी इन थोड़े दिनों में कुछ महत्वपूर्ण शिक्षा सेवा करने का अवसर मिल जाय इसके लिए सब परिजनों को यह प्रयत्न करना चाहिये कि उनके क्षेत्र में अधिकाधिक व्यक्ति इन प्रशिक्षणों के लिए मथुरा पहुँचें।

परमार्थ की दृष्टि से ज्ञान-योग सबसे उत्तम है। ज्ञान-यज्ञ से बढ़ कर कोई यज्ञ नहीं। ज्ञान दान से बढ़ कर कोई दान नहीं। यही महान अभियान अपनी संस्था द्वारा चलाया जा रहा है। इन गतिविधियों में अपनी गतिविधियाँ जोड़ कर हमें आत्म-कल्याण और लोक-मंगल का सम्मिलित परमार्थ प्रयोजन सिद्ध करना चाहिये। ज्ञान-योग की साधना में उपरोक्त कार्यक्रम आज की स्थिति में सर्वोच्च है।

सद्ज्ञान की देवी- ऋतंभरा प्रज्ञा की प्रेरक- वीणापाणि सरस्वती का जन्मदिन बसन्त-पंचमी इसी प्रेरणा को लेकर आता है। इस प्रकाश को अपना कर ही हम भगवती की सच्ची आराधना कर सकते हैं और अपने मिशन के प्रति सच्ची श्रद्धाञ्जलि अर्पित कर सकते हैं।

बसन्तोत्सव- अपनी पुण्य प्रक्रिया का जन्मोत्सव गत 3 फरवरी बसन्त-पंचमी से आरम्भ हुआ है। इस धर्मोत्सव को पूरे 40 दिन चलना चाहिये। इस अवधि में उपासनात्मक, जीवन शोधन परक तथा पारमार्थिक पुण्य प्रयोजनों के लिए- भक्ति-योग, कर्म-योग और ज्ञान-योग की साधना के लिए- सच्ची श्रद्धा और तत्परता के साथ हम पूरा-पूरा प्रयत्न करें। इसकी पूर्णाहुति होली के दिन प्रेम मिलन- गायत्री यज्ञ तथा युग-निर्माण कार्यक्रमों के साथ सम्पन्न की जाय। 40 दिन में यों सवालक्ष गायत्री अनुष्ठान होता है। यह 40 दिन यदि आत्म-कल्याण और लोक-मंगल की प्रस्तुत प्रक्रिया को सफल बनाने में लगाये जा सकें तो समझना चाहिये, एक अतिशय उच्च कोटि का धर्मानुष्ठान सम्पन्न हो गया। इसे सम्पन्न करने का हम अपने प्रत्येक परिजन से- अन्तःकरण की पूरी गहराई के साथ आग्रहपूर्वक अनुरोध करते हैं और आशा करते हैं जो किया जायेगा उसका विवरण भी हमें यथासमय प्राप्त होगा।


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