केवल अपने लिये ही न जियें

February 1968

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नीति-शास्त्र का कथन है-

न पिवन्ति नद्यः स्व्यमेव स्वोदकं, न फलानि खादन्ति स्वयमेव वृक्षाः। घराघरो वर्षति नात्महेतवे, परोपकाराय सतां विभूतयः॥

“नदियाँ स्वयं अपने जल को नहीं पीतीं। न वृक्ष स्वयं अपने फल खाते हैं। बादल भी स्वयं अपने लिए नहीं बरसते- सज्जनों की सम्पदायें परोपकार के लिए ही होती हैं।”

इस उदाहरण में दिए और इसी तरह के अन्य प्राकृतिक उपादानों का महत्व इसीलिए है कि वह अपने द्वारा मानव जाति का ही नहीं प्राणीमात्र का उपकार करते हैं। जो उपादान उपकारी नहीं होते अथवा जो उपकार करने की प्रवृत्ति को छोड़ देते हैं उनकी सार्थकता नष्ट हो जाती है, महत्व समाप्त हो जाता है।

नदियों, वृक्षों और बादलों का महत्व तभी तक रहता है जब तक वे जल, भोजन और सिंचन की अपनी प्रवृत्ति बनाए रहते हैं, पर-सेवा और परोपकार में लगे रहते हैं। सूखने अथवा रीता हो जाने पर उनका महत्व समाप्त हो जाता है। संसार उनकी उपेक्षा कर देता है।

यही बात मनुष्य जीवन पर भी घटित होती है। मानव जीवन की सार्थकता तभी तक है जब तक वह कुछ न कुछ परमार्थ और परोपकार में लगता है। परोपकार भाव सच्चे मनुष्य का लक्षण है। यों तो संसार में स्वार्थी, कृपण और संकीर्ण व्यक्ति भी जीते और रहते हैं, पर उनका जीवन मानवीय नहीं। केवल स्वार्थ के साथ अपने लिए ही जीना अथवा सब कुछ करते रहना पशु-प्रवृत्ति का जीवन है, जो मनुष्य के लिए लज्जा की बात है। स्वार्थी मनुष्य का जीवन महत्त्वहीन तथा निःसार ही माना जायेगा।

मनुष्य प्रकृति के माध्यम से परमात्मा की ओर से न जाने कितना क्या पाते रहते हैं। मनुष्य का परम कर्तव्य है कि वह प्रकृति अथवा परमात्मा के प्रति इसका आभार प्रकट करे। कृतघ्नता सबसे बड़ा पाप है। किन्तु मनुष्य प्रकृति अथवा परमात्मा के प्रति उपकार के बदले में प्रत्युपकार कर भी क्या सकता है? प्रत्युपकार के लिए न तो उस तक पहुँचा ही जा सकता है और न सीधे-सीधे उसे हमारे प्रत्युपकार की आवश्यकता है। तथापि परमात्मा की कृपा के प्रति कृतज्ञता प्रकट करनी आवश्यक है। उसका सुन्दर-सा उपाय यही है कि उसके उपकार का प्रत्युपकार हम उसकी सृष्टि को दें अर्थात् संसार के प्राणियों के साथ उपकारी कार्यों का व्यवहार करें।

परमात्मा के उपकार का लाभ तो पशु भी उठाते हैं। वे परिस्थितिवश दासता रूप में तो मनुष्य का भला कर सकते हैं, पर स्वतन्त्रतापूर्वक स्वेच्छया प्रत्युपकार कर सकने में असमर्थ होते। यह सुविधा तो केवल मनुष्य को ही मिली है। उसे इसका लाभ उठाकर परमात्मा के उपकार का बदला उसकी सृष्टि का उपकार कर के देना ही चाहिए। मनुष्य शरीर का महत्व इसी में है कि इसके द्वारा संसार के दुःखी, पीड़ित और आवश्यकताग्रस्त प्राणियों का कुछ न कुछ हितसाधन करते ही रहा जाये। आज की यह योग्यता फिर कभी मिलेगी या नहीं, निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। और यदि स्पष्ट ही कहा जाये तो यह योग्यता फिर नहीं मिलेगी, क्योंकि इस मानव शरीर का मिलना निर्भर ही इस शर्त पर है कि मनुष्य पुण्य परमार्थ और परोपकार करता रहे। इसलिए बुद्धिमानी इसी में है कि मनुष्य आज की अपनी योग्यता और सामर्थ्य का यथासम्भव परोपकार पथ में उपयोग करता चले। इससे परमात्मा के प्रति कृतज्ञता का कर्तव्य भी पूरा होगा और आगे भी मनुष्य शरीर की सम्भावना निश्चित होगी।

संसार के सभी धर्मों और विद्वानों ने एक स्वर में परोपकार की महत्ता स्वीकार की है। प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान विक्टर ह्यूगो ने लिखा है- “परोपकार के लिए हम जितना अपने को जुटाते हैं, उतना ही हमारा हृदय भरता जाता है।” परोपकार-पुण्य से मनुष्य की चेतना न केवल विकसित ही होती है बल्कि ऊर्ध्वमुखी भी होती है। उसका हृदय विकसित, विशाल और महान हो जाता है। उसे अपने में एक पूर्णता का अनुभव होने लगता है। किसी का संकट घटा देने, आवश्यकता के समय सहायता करने, रोगी के सेवा-सुश्रूषा करने अथवा क्षुधित को भोजन करा देने से जो उस व्यक्ति की आत्मा को शाँति और सन्तोष प्राप्त होता है उसी का प्रतिफल परोपकारी के अन्तःकरण को प्रभावित कर उसकी आत्मा को प्रभावित कर असीम तृप्ति का समावेश कर सकता है।

संसार में यों तो एक से एक बढ़कर सुखी और सम्पन्न व्यक्ति दिखाई देते हैं। पर उनसे यदि सत्य का आधार देकर पूछा जाये- कि क्या वे वास्तविक रूप से सुखी हैं तो उनका उत्तर अधिकाँशतः नकारात्मक ही होगा। वे कह सकते हैं कि उन्हें संसार में सम्पत्ति-सुख, स्वास्थ्य-सुख, सन्तान-सुख, सामाजिक-सुख आदि सारे सुख मिले हुए हैं, तब भी इस सुख में एक अनजाना-सा अभाव अतृप्ति, असन्तोष और न्यूनता खटकती रहती है। ऐसा अनुभव होता रहता है, इस सुख में वह सुख नहीं मिल पा रहा जो मिलना चाहिये और शायद जो मिल भी सकता है।

यह कल्पना अथवा भावुकता मात्र नहीं है बल्कि एक सत्य है। इस प्रकार की एक अतृप्ति बड़े सुखी और सम्पन्न व्यक्ति को रहा करती है। इस अतृप्ति, इस कमी का कारण क्या है? इसका कारण है संसार से सब कुछ पाकर भी प्रत्युपकार के रूप में उसके साथ कुछ न करने की कृतघ्नता, जो खटका बनकर सुख साधनों में भी अतृप्ति के अंकुर उगा देती है। संसार के सारे सुख इंद्रियजन्य ही होते हैं जो शरीर तक ही सीमित रहते हैं। इनसे आत्मा की तृप्ति नहीं हो पाती। आत्मा की तृप्ति परमार्थपूर्ण परोपकार से ही होती है। मनुष्य की आत्मा स्वभावतः बड़ी ईमानदारी और न्यायपरायण होती है। संसार से सब कुछ पाकर जब बदले में उसे कुछ न देने का अभ्यास किया जाता है तो उसे एक पीड़ा, एक वेदना होती है, जिसका प्रभाव मनुष्य के हृदय में अभाव को जन्म देता रहता है। जो परोपकारी आत्मा की इस वेदना का कारण दूर करते रहते हैं वे संपन्नता की दशा में ही नहीं अभाव की दशा में भी एक अपूर्व सुख-सन्तोष और तृप्ति का अनुभव करते रहते हैं।

संसार की सारी साधनाओं को फल दूरगत होता है। किन्तु परोपकार की साधना ही ऐसी साधना है, सुख-शाँति और सन्तोष के रूप में जिसका फल तुरन्त ही मिलता रहता है। परोपकार से उत्पन्न सन्तोष की तुलना स्वार्थजन्य सुख से कदापि नहीं की जा सकती। जहाँ पहला सुख मिथ्या और प्रवंचनापूर्ण होता है वहाँ दूसरा सत्य और कल्याणकारी होता है। जीवन में सत्य और उच्चकोटि के सुख को पाने के लिए परोपकार धर्म का पालन करना निताँत आवश्यक है। मनुष्य अपनी ही सुख-सुविधा और वृद्धि-समृद्धि की ही बात न सोचता रहे वरन् उसे दूसरों को भी सुखी तथा संकटरहित बनाने का प्रयत्न भी करते रहना चाहिये। ऐसा किये बिना न तो लोक में सुख-शाँति मिलती है और न परलौकिक कल्याण का निश्चय होता है। परोपकार को परम धर्म ही नहीं परम पुण्य भी समझना चाहिये।

परोपकार एवं परमार्थ से न केवल व्यक्ति का ही मंगल होता है बल्कि उससे समाज और संसार का भी कल्याण होता है। सहायता, सौहार्द एवं सहानुभूति के आधार पर जिन व्यक्ति यों का कष्ट दूर किया जायेगा, संकट में जिनका हाथ बटाया जायेगा, उनमें भावनापूर्ण मानवता की चेतना विकसित होगी। वे स्वयं भी दूसरों की सहायता और सहयोग का महत्व समझने लगेंगे। उनकी आत्मा का विकास होगा, अन्तःकरण में दैवी भावना का जागरण होगा जिससे वे स्वयं भी तन-मन-धन किसी भी रूप से, यथासाध्य परोपकार तथा परहित में प्रवृत्त होने लगेंगे। इस प्रकार अच्छे, सदाशयी नागरिकों, गम्भीर भद्र पुरुषों की संख्या में वृद्धि होगी जो समाज तथा संसार के लिए एक कल्याणकारी बात ही मानी जायेगी।

परमार्थपूर्ण परोपकार मानव जाति की सुरक्षा, विकास और सुख-शाँति का साधन है। आज हम संसार अथवा समाज का जो भी विकसित स्वरूप देखते हैं यह सब पूर्व पुरुषों का ही उपकार है। यदि वे अपने ज्ञान, परिश्रम, पुरुषार्थ एवं उदार भावना द्वारा प्रगति एवं विकास के बन्द द्वार न खोज जाते तो आज मनुष्य जाति यहाँ पर न दिखाई देती बल्कि अतीत के उन्हीं बन्द कपाटों से सिर मार रही होती। इस उपकार के लिए मनुष्य जाति अपने पूर्व पुरुषों की ऋणी है।

किन्तु इस ‘ऋणी’ शब्द में निहित विनय-भाव से ही कृतज्ञता की पूर्ति नहीं हो जाती। इसके लिए उपकार का बदला उपकार से ही देना होगा। हम सबको वह करते ही रहना चाहिये जिससे विश्व-कल्याणकारी परोपकार की परम्परा चलती ही रहे। सेवा, सहयोग, त्याग और बलिदान के बल पर जिस प्रकार संसार आगे बढ़ा है उसी प्रकार वह इन्हीं प्रवृत्तियों द्वारा ही और आगे बढ़ेगा। प्रगति ही संसार का जीवन है। जिस दिन प्रगति का यह क्रम रुक जाएगा मनुष्य जाति अविराम भयानक अन्धकार में डूब जायेगा।

यदि मानव-समाज को जीवित रखना है तो उसके सदस्यों के बीच परस्पर सेवा, सहयोग, दया, सहानुभूति आदि की परोपकारी प्रवृत्तियाँ चलती ही रहनी चाहिये। हमें परोपकार को जीवन का एक अनिवार्य व्रत समझ ग्रहण कर लेना ही चाहिये और यह भ्रम हृदय से निकाल ही देना चाहिये कि परोपकार का आधार धन ही है अथवा समाज के लिए कोई बहुत बड़ा त्याग करना है। परोपकार वास्तव में एक आध्यात्मिक भावना है जिसे कभी भी किसी भी परिस्थिति में किसी भी यथासाध्य सत्कर्म द्वारा मूर्तिमान किया जा सकता है। इसे सब कर सकते हैं और सबको करना ही चाहिये।


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