ज्ञान ही सच्चा तीर्थ-स्नान

February 1968

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ज्ञान ही सच्चा तीर्थ-स्नान -

प्रयाग के सेट्टिराज की कन्या अर्बुद पांचाल के धनी सेठ पुत्र मणियार को व्याही गई। अर्बुद शिक्षिता थी, ज्ञानवान थी, वैसे ही उसके विचार, कार्य, योजनायें भी स्वच्छ सुन्दर और पवित्र होती थीं। ससुर के यहाँ पैर रखते ही उसने घर को एक नई रोशनी में बदल दिया।

मणियार महान् ईश्वर भक्त था, किन्तु उसका वैयक्तिक जीवन, कुविचार और बुरे आचरणों में ग्रस्त होने के कारण, दुःखी और अशान्त था।

अर्बुद ने कहा- स्वामी दुःख और अशान्ति का कारण स्वच्छ मन है, आप ज्ञान के प्रकाश से पहले अपने अन्तर-तम को मिटाइये, तभी शान्ति मिलेगी। मणियार ने कहा- नहीं! हम लोग तीर्थ-स्नान करने चलेंगे। तीर्थ-स्नान से मन पवित्र हो जाता है।

अर्बुद स्त्री थी झुकना पड़ा। तीर्थ-यात्रा पर चलने से पूर्व उसने एक पोटली में कुछ आलू बाँध लिये। जहाँ-जहाँ मणियार ने स्नान किया उसने इस आलुओं का भी स्नान कराया। घर लौटते-लौटते आलू सड़ गए। अर्बुद ने उस दिन भोजन की थाली में वह आलू भी रख दिये। उनकी दुर्गन्ध पाकर मणियार चिल्लाया- यह दुर्गन्ध कहाँ से आ रही है?

अर्बुद ने हँस कर कहा- यह आलू तो तीर्थ-स्नान करके आये हैं फिर भी इनमें दुर्गन्ध है क्या? मणियार समझ गया यदि मन को ज्ञान के जल से न धोया जा सका तो सचमुच तीर्थ-स्नान व्यर्थ है। वह उस दिन से ज्ञान आराधना में जुट गया।


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