अशान्ति के चार कारण और उनका निवारण

September 1966

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व्यक्ति हो अथवा राष्ट्र, तब तक उन्नत एवं समृद्ध नहीं हो सकता जब तक उसमें शाँति का अभाव रहेगा। उन्नति की सारी सम्भावनायें शाँतिपूर्ण वातावरण में ही निहित रहती हैं। संघर्ष, युद्ध एवं क्षोभ उन्नति के सबसे बड़े शत्रु हैं। इनसे अशाँति का जन्म होता है और अशाँति मानव की सृजन शक्ति को नष्ट कर डालती है। अशाँति से क्षुब्ध-चित्त मनुष्य का मन किसी काम में नहीं लगता और यदि वह हठपूर्वक लगाता भी है तो उसका काम ठीक से नहीं होता, जल्दी थक जाता है और काम को छोड़कर बैठ रहता है! अकर्मण्यता की स्थिति में उन्नति असम्भव है।

बड़े से बड़े व्यक्ति और उन्नत से उन्नत राष्ट्र को ले लीजिये। जब तक उनका वातावरण शाँतिपूर्ण बना रहता है वे उन्नति के मार्ग पर चलते हुये दिन-दिन आगे बढ़ते रहते हैं। किन्तु ज्योंही उनमें आन्तरिक क्षोभ अथवा कलह उत्पन्न होती है, उनकी उन्नति स्थिर नहीं रह पाती, उनका पतन हो जाता है, विनाश हो जाता है। संसार में न जाने कितने व्यक्ति एवं राष्ट्र इसी अशाँति के कारण मिटे हैं और मिटते रहते हैं। उन्नत होने और उसको स्थिर बनाये रखने के लिये शाँति की नितान्त आवश्यकता है।

अशाँति के अन्य अनेक कारण हो सकते हैं किन्तु चार मूलभूत कारण हैं। अभाव, अहं, असहयोग तथा अज्ञान, इन कारणों की उपस्थिति में कोई भी व्यक्ति अथवा राष्ट्र शाँतिपूर्ण स्थिति में नहीं रह सकता।

जहाँ अभाव है, आवश्यकताओं की आपूर्ति है वहाँ शाँति का हो सकना सम्भव नहीं। मनुष्य कितना भी संतोषी एवं सहनशील क्यों न हो यदि उसे रोटी, कपड़े, निवास स्थान, आवश्यक वस्तुओं की कमी रहेगी—शाँतिपूर्वक नहीं रह सकता। पेट की ज्वाला कब तक सहन की जा सकती है? शीत, घाम, वर्षा आदि के कष्टों की कब तक उपेक्षा की जा सकती है? फिर मनुष्य अकेला तो होता नहीं, उसका परिवार भी होता है, उसके बच्चे तथा आश्रित भी होते हैं। मनुष्य अपने पर कष्ट एक बार सहन भी कर सकता है, चुपचाप पड़े रह सकता है किन्तु इतना कठोर कदापि नहीं हो सकता कि अपने आश्रितों तथा बच्चों को अभाव का कष्ट सहते देखकर भी विचलित न हो। वह अवश्य विचलित होगा, उसे चिन्ता होगी जिसके परिणामस्वरूप उसकी शाँति सुरक्षित नहीं रह सकती! वह अशाँत, बेचैन तथा क्षुब्ध होगा ही।

अहं भी अशाँति का बहुत बड़ा कारण है। मनुष्य के पास जर, जन, जमीन सब कुछ है, किसी प्रकार का अभाव नहीं है। रोटी, कपड़ा, घर मकान सबकी सुविधा है, हर वस्तु आवश्यकता भर ही नहीं अधिकता पूर्ण है तब भी वह अहंकार की दुर्बलता के कारण अशाँत रहेगा। अहं-प्रधान व्यक्ति अपनी मनोनुकूलता में जरा सा विघ्न पड़ते ही उत्तेजित हो उठता है। उसे क्रोध हो आता है जिससे उसका चित्त अशाँति से भर जाता है। अहं का दोष मनुष्य को ईर्ष्यालु भी बना देता है। अपनी उन्नति के सामने अहंकारी व्यक्ति दूसरे की उन्नति सहन नहीं कर पाता। वह यथासम्भव हर उचित अनुचित कोशिश करता है कि वह तो दिन-दिन उन्नति करता रहे किन्तु कोई दूसरा उन्नति न कर सके। समाज में सब उससे नीचे तथा निर्धन ही रहें। न कोई उसके बराबर हो सके और न आगे निकल सके। दूसरे की प्रगति में रोड़े अटकाना अहंकारी का विशेष दोष है। इस निम्न प्रवृत्ति के कारण ईर्ष्या, द्वेष, कलह एवं संघर्ष का जन्म होता है और तब उस आक्रान्त स्थिति में समाज अथवा व्यक्ति का शान्त रहना किस प्रकार सम्भव हो सकता है? अहंकारी व्यक्ति किसी को उन्नति करते देखेगा तो उसे डाह होगी, उसके चित्त की शाँति नष्ट हो जायेगी। किसी की प्रगति रोकने में असफल होने पर आत्मग्लानि होगी जिससे शाँति का रहना सम्भव नहीं। किसी के पथ में अवरोध बनने से अपवाद एवं लाँछन का लक्ष्य बनना पड़ेगा जिससे शाँति का भंग होना स्वाभाविक है। अहंकारी व्यक्ति अपने स्वभाव-दोष के कारण कभी भी शाँति नहीं पा सकता।

मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज की व्यवस्था परस्पर सहयोग पर ही निर्भर रहा करती है। असहयोग की स्थिति में समाज की प्रगति अवरुद्ध हो जाया करती है। कोई भी सामाजिक प्राणी अकेले अपने बल पर जीवन गाड़ी को नहीं खींच सकता। मालिक को यदि मजदूर सहयोग न करे तो उसका कारबार नहीं चल सकता। मालिक का असहयोग मजदूरों के लिये रोटी रोजी का अभाव ला सकता है। स्त्री-पुरुष के असहयोग में परिवार की सुख-शाँति नष्ट हो सकती है। पिता पुत्र का असहयोग एक दूसरे के विनाश का कारण बन सकता है। व्यापारी तथा किसान के बीच असहयोग उन दोनों की ही नहीं समग्र समाज की हानि का हेतु होगा। जनता एवं सरकार का पारस्परिक असहयोग देश को गिरा देता है। असहयोग से उत्पन्न इन तथा इन जैसी असंख्यों हानियों के बीच व्यक्ति अथवा समाज की शाँति किस प्रकार अक्षुण्ण रह सकती है। मनुष्य आज किसी न किसी रूप में दूसरे मनुष्यों पर निर्भर है। एक अकेले वह अपना जीवन चला सकने में समर्थ नहीं है।

असहयोग स्वार्थ एवं संघर्ष को भी जन्म देता है। स्वार्थी व्यक्तियों तो स्वभाव से असहयोगी होता है अथवा असहयोग को प्रश्रय देने से अनुसार बन जाता है। सहयोग की स्थिति में जिस प्रेम, पारस्परिकता, सहानुभूति तथा सहकारिता की वृद्धि होती है वह रुद्ध हो जाती है। इन आवश्यक मानवीय गुणों के अभाव में समाज में शाँति का वातावरण सम्भव नहीं हो सकता। असहयोगी केवल स्वार्थी ही नहीं कुटिल एवं कपटी भी होता है। वह दूसरे के काम तो नहीं ही आता साथ ही किसी न किसी आडम्बर द्वारा दूसरे से लाभ उठा लिया करता है। वह अपने सहयोग को इस ढंग से सहयोग का रूप दे दिया करता है कि सामान्य जन उसके दोष को नहीं जान पाते। किन्तु जब उसका दोष समाज पर उद्घाटित हो जाता है तब उसे समाज का असहयोग इस सीमा तक सहन करना पड़ता है कि उसका पूरा जीवन ही अशाँत हो जाता है। समाज में असहयोग की प्रवृत्तियाँ अशाँति का बहुत बड़ा कारण हैं।

अज्ञान तो अशाँति का जीता-जागता रूप ही है। जिस प्रकार अंधकार में मनुष्य भटकता हुआ बेचैन रहा करता है, उसी प्रकार अज्ञान की दशा में भी मनुष्य अशाँत रहा करता है। अज्ञानी पग-पग पर ठगा जाता है। अज्ञता के कारण वह किसी काम को सफलतापूर्वक नहीं कर पाता। मूढ़ मनुष्य का कहीं भी आदर नहीं होता। अज्ञानी व्यक्ति जीवन व्यवस्था से शून्य रहकर अपने लिये कष्टों के बीज बोता रहता है। मूढ़ मनुष्य को सत्य असत्य, हित, अनहित का ज्ञान नहीं होता। विवेकहीनता की दशा में उसके हर व्यवहार में असत्य एवं मिथ्यात्व का समावेश हो जाता है। आडम्बर, प्रदर्शन एवं कृत्रिमता अज्ञान का ही अभिशाप है। अव्यावहारिक होने से अज्ञानी व्यक्ति समाज में यथायोग्य शिष्टाचार पालन करने में भी भूल करता रहता है जिससे उसे तिरस्कार का भाजन बनना पड़ता है जो उसमें मानसिक क्षोभ को जन्म देता है।

अज्ञान के कारण—जीवन का लक्ष्य न जानने के कारण—मनुष्य अधिकतर रास्ते से भटक कर कंटकाकीर्ण पगडंडियों में उलझ जाता है। जीवन की सारी हानियाँ, असफलतायें, निराशाएं अज्ञान के ही फल कहे गये हैं। अज्ञान के कारण ही मनुष्य असत्य में सत्य और सत्य में असत्य की भ्राँति पा जाता है। अनिश्चय के कारण अज्ञानी व्यक्ति भय, संदेह, अविश्वास एवं आशंका से पग-पग पर आक्रान्त एवं अशाँत रहा करता है। रूढ़िवाद, मूढ़वाद एवं अंधविश्वास अज्ञान की ही तो देन है। अज्ञान के कारण आत्म-अविश्वासी होकर मनुष्य पराधीन तथा परावलम्बी बना रहता है, जिससे उसे परानु ग्रहपूर्ण जीवन बिताने की यातना सहन करनी पड़ती है। पराधीनता की स्थिति में भी कोई शाँत चित्त रह सकता है यह बात सर्वथा असम्भव है। अज्ञानी व्यक्ति समाज में दुवृत्तियों तथा दुराचार को जन्म देता है जिसके कारण वह दूसरों की शाँति में बाधक बनकर अपनी शाँति भी नष्ट कर लिया करता है।

शाँतिपूर्ण स्थिति के लिये मनुष्य को पुरुषार्थी, सुशील, सहयोगी तथा विवेकवान बनना ही होगा। मनुष्य अपने सामाजिक व्यक्तित्व को पहचाने। समाज की उन्नति में ही अपनी उन्नति समझे। अपने सामाजिक स्वरूप को जान लेने पर मनुष्य कोई भी ऐसा काम करते संकोच करता है जो किसी प्रकार भी सार्वजनिक जीवन के लिये अहितकर हो सकता है। जब मनुष्य व्यक्ति को समष्टि में विलीन कर देता है उसकी स्वार्थ एवं संकीर्णता की दुखदाई वृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। समाज का हित आगे रखकर सोचने और व्यवहार करने वालों को पूरे समाज का सहयोग अनायास ही मिलने लगता है जो उनकी उन्नति एवं विकास में सर्वथा सहायक होता है। समाज द्वारा हाथों हाथ लिये गये व्यक्ति का जीवन कितना सुख-शाँति पूर्ण हो सकता है यह किसी भी सच्चे समाज-सेवक के निकट संपर्क में आकर जाना जा सकता है।

सामाजिक सहयोग एवं सहकारिता सुख-शाँतिपूर्ण जीवन की गारंटी है। मनुष्यों का पारस्परिक सहयोग तथा सहकारिता समाज में अभाव को प्रवेश नहीं करने देती और वर्तमान अभाव को भगा देती है। सहयोग एवं सहकारिता की स्थिति में हर मनुष्य दो हाथ से हजार हाथ वाला हो जाता है। अपने परिश्रम एवं पुरुषार्थ को समाज की सेवा में समर्पित कर देने वाले निःस्वार्थी व्यक्तियों के लिये सम्पूर्ण समाज का परिश्रम एवं पुरुषार्थ उनका अपना हो जाता है। सुख-दुख को मिल बाँटकर भोग करने वालों के बीच अशाँति अथवा असंतोष का कोई अवसर ही नहीं रहता। प्रेम, सहानुभूति, संवेदना, एवं पारस्परिकता की मानवीय भावनाएँ सहयोग एवं सहकारिता से ही सम्भव होती हैं।

किन्तु मनुष्य को इन गुणों की उपलब्धि भी तब हो सकती है जब वह अज्ञान के निविड़ अंधकार से निकलकर जीवन के सच्चे प्रकाश में आये। अज्ञानी व्यक्ति प्रेम, सहानुभूति, सहयोग, तथा निःस्वार्थ भावना के मानवीय गुणों की महत्ता से सर्वथा अनभिज्ञ रहता है। दुराग्रह एवं दुर्व्यवहार अज्ञान के कष्टकारक दोष हैं। सत्य, असत्य एवं उचित अनुचित का निर्णय कर सकने वाला ज्ञान प्राप्त करने के लिये स्वाध्याय एवं सत्संग हर प्रकार से सहायक हो सकते हैं। जिन्हें संयोगवश स्वाध्याय की सुविधा प्राप्त नहीं है, उन्हें सत्संग तथा प्रामाणिक व्यक्तियों के कथनों, निर्देशों तथा उपदेशों में निश्चय करके अपने चरित्र का विकास करना चाहिये। सत्य के समर्थन में अपनी मान्यताओं, परम्पराओं, धारणाओं, रूढ़ियों, आग्रहों तथा अंधविश्वासों का त्याग कर सकने का साहस भी ज्ञान ही है। सत्य को यथावत स्वीकार कर लेने और उसको अपने व्यवहार में लाने वाले व्यक्ति ज्ञानी ही कहे जायेंगे फिर चाहे वे निरक्षर ही क्यों न हों।

सामाजिक चेतना से ओत प्रोत पुरुषार्थी व्यक्ति के जीवन में अभाव अथवा अशाँति की सम्भावना अधिक नहीं रहती। अशाँति, असंतोष एवं अभाव तो आलसी, स्वार्थी, असहयोगी तथा असामाजिक व्यक्ति का दया भाग है जो अपनी अज्ञानपूर्ण प्रवृत्तियों के कारण पायेगा और भोगेगा।

यदि आपके जीवन में अशाँति है, असंतोष है तो अपनी परीक्षा कीजिये, अपनी प्रवृत्तियों को परखिए और उन कारणों को खोज-खोज कर निकालते रहिये जो उसके आधार बने हुये हैं और तब देखिये कि आपकी जीवन धारा सुख एवं शाँति के सुन्दर कुलों के बीच बहती चलती है या नहीं?


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