उन दिनों रोम में दासों पर बड़े अत्याचार किये जाते थे। एण्ड्री नामक एक दास भी जो अपने मालिक द्वारा बुरी तरह सताया जाता था, एक दिन अवसर पाकर रात में भाग निकला। भागते-भागते वे एक जंगल में पहुँच गया। किन्तु संयोगवश वह जिस वृक्ष के नीचे बैठकर अपने जीवन पर सोचने लगा उसी के निकट एक झाड़ी में एक सिंह बैठा था। एण्ड्री ने सोचा कि वह निर्दयी मालिक से तो ज्यों-त्यों बच गया किन्तु इस शेर से कदापि नहीं बच सकता। पर एण्ड्री को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि सिंह धीरे से उसके पास आया और उसके हाथ पर अपना पंजा रख दिया। एण्ड्री ने देखा कि उसके पंजे में काँटा लगा हुआ था। एण्ड्री ने अपना चाकू निकाला और शेर के पंजे का काँटा निकाल दिया।
अदालत लगी और राज-नियम के अनुसार भागने के अपराधी एण्ड्री को प्राणदंड सुना दिया गया और यह तय हुआ कि उसे भूखे शेर के सम्मुख डालकर मरवाया जाये। इसके लिये एक शेर भी पकड़कर आ गया और कई दिन तक भूखा भी रक्खा गया। नियत दिन और समय पर रोम के अमीर, आबाल-वृद्ध, स्त्री पुरुष उस मृत्यु-दृश्य का खेल देखने के लिये आये। एण्ड्री भूखे शेर के पिंजरे में ढकेल दिया गया। शेर भयानक रूप से गरजकर एण्ड्री के पास आया और मुँह फैलाकर उसे दबोचने ही वाला था कि दर्शकों ने आश्चर्य से देखा कि शेर उसे खाने के बजाय सिर झुकाये मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुए एण्ड्री के पास दुम हिलाकर गुर-गुर करने लगा। एण्ड्री ने सिर उठाया और देखा कि वह उसका वही मित्र सिंह था जिसका उसने काँटा निकाला था। अप्रत्याशित दृश्य देखकर न्यायाधीश ने कहा कि एण्ड्री भाग्यवान है उसे सदा के लिए मुक्त कर दिया जाय। निश्चय ही परोपकार कभी निष्फल नहीं जाता।