परिवार को कुसंस्कारी न बनने दिया जाय।

September 1966

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अनेक लोगों का कहना है कि आज पारिवारिक जीवन में फैली फूट, बिखराव तथा गृहकलह का कारण आर्थिक अभाव है। घर-घर लोगों की आवश्यकताएँ बढ़ती चली जाती हैं किन्तु आमदनी बढ़ने का मार्ग दिखलाई नहीं देता। हर व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये परेशान हो रहा है, इच्छाओं की आपूर्ति लोगों में क्रोध, असहिष्णुता तथा चिड़चिड़ापन बढ़ा रही है। असंतोष से प्रेरित लोगों का पारस्परिक प्रेम कम हो गया है। इसी लिए घर-घर में फूट तथा लड़ाई झगड़ा दिखाई देता है। यदि लोगों की आर्थिक कठिनाइयाँ दूर हो जायें, उनकी आवश्यकताओं एवं इच्छाओं की प्रकाम पूर्ति होती रहे तो मनों में माधुर्य तथा स्वभाव में सरलता बनी रहे। फिर उनमें न तो आपस में लड़ाई-झगड़ा हो, न टूट फूट और न किसी प्रकार का गृह कलह ही दिखाई दे। सब समान रूप से शान्त, सन्तुष्ट तथा सुखी जीवन बिताते हुए मिलजुल कर रहें।

लोगों की यह धारणा पूरी तरह सही नहीं है। आर्थिक कठिनाइयों में कुछ असन्तोष होता अवश्य है, किन्तु इस सीमा तक नहीं जिस सीमा तक घर-घर में दिखाई दे रहा है। यदि आर्थिक सम्पन्नता ही पारिवारिक सुख-शान्ति एवं सौहार्द्र का कारण रही होती तो सम्पन्न परिवारों में गृह-कलह एवं बिखराव दिखाई नहीं देता। संसार में जहाँ गरीब परिवार पड़े हैं वहाँ एक से एक बढ़कर सर्वसम्पन्न परिवार भी मौजूद हैं। गार्हस्थिक सुख-शान्ति यदि आर्थिक सम्पन्नता पर ही निर्भर होती तो हर धनवान परिवार को सुखी, सन्तुष्ट तथा संगठित रहना ही चाहिए। किन्तु वास्तविक इसके विपरीत है।

एकबार गरीब परिवारों में तो शान्ति एवं संगठन देखा जा सकता है किन्तु अमीर परिवारों में आयें दिन झगड़े और बटवारे होते रहते हैं। लड़के सयाने होते ही अपना हिस्सा अलग माँगते हैं। भाई-भाई से बटवारा करने के लिए न्यायालय की ओर दौड़ रहा है। कार रोजगारों के खण्ड होते, घरों में हिस्सें होते और सयाने सदस्यों को अलग बसते आये दिन देखा जा सकता है। गृह-कलह का जितना बड़ा कारण निर्धनता नहीं है उससे हजार लाख गुना बड़ा कारण सम्पन्नता है। धन के कारण-घरों में न केवल कही−सुनी ही होती रहती है बल्कि खून खराबी तक की नौबत आ जाती है। बड़े घरों की महिलायें गहने-कपड़ों की कमी ज्यादती को लेकर जूझा करती हैं और पुरुष आय व्यय को लेकर द्वन्द्व मचाये रहते हैं। ऊपर से लक-दक और मुस्कान से मीठी दिखाई देने वाली अमीर लोगों की जिन्दगी अन्दर से प्रायः कटु एवं क्लेश पूर्ण ही होती है। कदाचित ही कोई ऐसा भाग्यवान गृहपति हो जो धनवान हो और भाई बन्दों, पुत्र-पुत्रियों के बीच सुख-शान्ति की जिन्दगी बिता रहा हो। गृह कलह का कारण निर्धनता और सुख-शान्ति का आधार धन को मानने वाले भारी भ्रम में हैं, उन्हें अपनी धारणा में सुधार कर ही लेना चाहिये।

गृह-कलह का सारभूत कारण न तो निर्धनता है और न तो धनता। इसका आधारभूत कारण है परिवारों का असंस्कृत होना। जिस परिवार के सदस्य सुशील, सुसंस्कृत, सभ्य एवं उदात्त स्वभाव के होंगे उस परिवार में गृह-कलह कदाचित ही हो फिर चाहें वे निर्धन हों अथवा धनवान! परिवारों से गृह-कलह को अमोल नष्ट करने और उनमें संगठन,सुदृढ़ता,सुख और शान्ति बनाये रखने के लिये उनको सुसंस्कृत बनाना होगा।

संस्कार के अभाव में सुशिक्षित होने पर भी परिवारों के सयाने लड़के दुर्व्यसनी एवं दुर्गुणी बन जाते हैं। वे चारित्रिक महत्व और उसकी परिभाषा न जानने से उच्छृंखल, निरंकुश तथा अनुशासनहीन हो जाते हैं। घरों के बड़े-बूढ़े अधिकार एवं कर्तव्य में संतुलन न रख सकने के कारण क्लेश के कारण बन जाते हैं। स्त्रियाँ घर की सुख समृद्धि में शान्ति, सन्तोष, स्नेह सौहार्द्र एवं हँसी-खुशी के योगदान की महत्ता न जानने से गाल फुलाये, मुँह लटकाये, रूठी ऐंठी और चख-चख करती हुई वातावरण को असहनीय बनाये रहती हैं। संस्कारों के अभाव में उनका स्वभाव असहनशील एवं व्यंगचारी बन जाता है। घर की बड़ी बुढ़िया अधिकार लिप्सा से पीड़ित परिजनों का उठना बैठना तक दूभर कर देती हैं। इन सब विकारों, विकृतियों एवं त्रुटियों का कारण क्या है? परिवारों का असंस्कृत होना।

यदि परिवारों के सदस्य सुसंस्कृत हों तो वे अपने अधिकारों की सीमा और कर्तव्यों की प्रसार परिधि को पूरी तरह से समझ सकते हैं। फलस्वरूप उनमें संतुलन बनाए रखकर घर में गृह कलह होने का अवसर ही न आने दें। स्वार्थों के टकराने, कर्तव्य एवं अधिकारों में असंतुलन आने और हृदयों से त्याग भावना का तिरोधान हो जाने पर ही गृह-कलह का जन्म होता है। यदि प्रयत्नपूर्वक इन न्यूनताओं को दूर कर दिया जाये तो आज के जलते नरक कुण्ड के समान कलह-कुपित घर सुख-शान्ति के स्वर्ग बन जायें और तब परिवारों के उस मंगलमय वातावरण में क्या लौकिक और क्या पारलौकिक ऐसी कौन-सी समृद्धि हो सकती है, जो उपलब्ध नहीं की जा सकती।

परिवार को सुसंस्कृत बनाने का अर्थ है, उसके सदस्यों के गुण, कर्म, स्वभाव में सुन्दर विकास करना। दूसरों को दुःखदायी उनकी क्रियाओं, कुमार्ग पर ले जाने वाले उनके दुर्गुणों और क्रोध, द्वेष, दुर्भाव, ईर्ष्या, स्वार्थ, अनुदारता, असहिष्णुता आदि दोषों का परिमार्जन कर उनके स्थान पर सदाचार, सुशीलता प्रेम, परस्परता, उदारता, मधुरता और प्रसन्नता के बीजारोपण करना ही उनका संस्कार करना है। परिजनों में सुशील संस्कार विकसित करने का दायित्व गृहपति को ही अपने ऊपर लेना चाहिये। क्योंकि परिवार का मुख्य सदस्य एवं संचालक होने से उसका प्रभाव सबसे अधिक होता है। प्रायः गृहपति की बात कदाचित ही कोई सदस्य नीचे डालेगा। हाँ ऐसी परिस्थिति तब आ सकती है जब गृहपति स्वयं ही सुसंस्कृत न हो, स्वयं ही गुणों का अनुसरण न करता हो अथवा सुधार में सीख के स्थान पर अधिकार का प्रयोग करे और दण्ड अथवा डर के आधार पर वाँछित संस्कारों को आरोपित करने का प्रयत्न करे। ऐसी भूल से पहले से ही असंस्कृत परिवार में गृह कलह का एक और कारण बन जायेगा और पुण्य प्रयत्न अभिशाप के रूप में फलीभूत होने लगेगा।

परिवार को गुणी, सदाचारी तथा सुशील बनाने के लिए सबसे पहले गृहपति को वैसा बनना होगा। यदि उसमें बीड़ी, सिगरेट, पान, तम्बाकू, शराब आदि का कोई दुर्व्यसन हो तो उसे तुरन्त त्याग देना चाहिये। अपनी आवश्यकताओं को यथासम्भव संक्षेप कर देना चाहिये। अपना जीवन क्रम एक निश्चित दिनचर्या में नियमित कर देना चाहिए। क्रोध, कटुता तथा उत्तेजना से स्वभाव को मुक्त कर प्रसन्नता, स्थिरता तथा मधुरता सिद्ध करनी चाहिये। अधिकारों की परिधि संकुचित कर कर्तव्यों का दायरा बढ़ा देना चाहिए। गुरुता गौरव नहीं गर्व छोड़कर विनम्रता की विशेषता विकसित करनी चाहिए। आत्म-संयम एवं आत्म-अनुशासन से अपने को सजाकर एक आदर्श मुखिया के समान अपने जीवन को एक अनुकरणीय उदाहरण के रूप में सबके सामने रखना चाहिए। गृहपति का इस प्रकार से सुसंस्कृत किया हुआ जीवन साकार शिक्षा के रूप में परिवार के प्रत्येक सदस्य को अन्तराल तक प्रभावित करेगा और वे धीरे-धीरे स्वभावतः स्वयं ही सुसंस्कृत एवं सुशील बनने लगेंगे।

इसके अतिरिक्त अनेक ऐसे उपयोगी उपाय हैं जिनको शिक्षा एवं प्रशिक्षण के रूप में काम में लाकर सदस्यों को संस्कार की दिशा में और अधिक अग्रसर किया जा सकता है।

परिवार के प्रत्येक सदस्य को हर सम्भव उपाय से शिक्षित एवं साक्षर बनाना ही चाहिये। उनमें से विकासोन्मुख सदस्यों को शिक्षा और विकसित एवं प्रौढ़ निरक्षर सदस्यों के लिये साक्षरता की व्यवस्था करनी चाहिये। बिना शिक्षा एवं साक्षरता के संस्कार शोधन में कठिनाई होगी। शिक्षा जीवन-निर्माण की आधारशिला है ऐसा मानकर विद्यालय के योग्य सदस्यों को विद्यालय में जाना चाहिए और अन्यों को घर पर ही पढ़ने का प्रबन्ध करना चाहिए। घर-घर लगने वाली चटसार में छोटों को बड़ों से पढ़ने और बड़ों को छोटों से पढ़ने में किंचित मात्र भी संकोच न करना चाहिए। जिस परिवार के सारे सदस्य शिक्षा में रुचि वान बना लिये गये मानों उसके सुसंस्कृत होने की सम्भावनायें सुनिश्चित बना दी गई।

आस्तिकता शुभ संस्कारों की जननी है। घर के हर सदस्य को आस्तिक बनाने के लिये परिवार का वातावरण धार्मिक बनाये रक्खा जाये। इसके लिए नित्य ही प्रातः अथवा सायंकाल सामूहिक प्रार्थना का कार्यक्रम चलाया जाये। चटसार के समय ही नित्य प्रति, गीता, रामायण, भागवत अथवा किसी अन्य धर्मग्रन्थ का वाचन श्रवण होना चाहिये और पर्वोत्सवों के अतिरिक्त साप्ताहिक अथवा पाक्षिक भजन, कीर्तन की व्यवस्था की जानी चाहिये। इस प्रकार घर का वातावरण धार्मिक बनाये रहने से सदस्यों के चरित्र में दुर्गुणों के समावेश की सम्भावनाएँ बड़ी सीमा तक निकल ही जायेंगी।

इस प्रकार मानसिक सुधार के साथ-साथ सुसंस्कार जागृत करने के लिये शारीरिक सुधार की भी आवश्यकता है। शारीरिक सुधार में स्वास्थ्य का प्रमुख स्थान है। स्वास्थ्य सुधार के लिये शारीरिक व्यायाम की बहुत आवश्यकता है। इसके लिये वृद्ध व्यक्ति प्रातःभ्रमण का कार्यक्रम बना सकते हैं। तरुण सदस्य परिश्रम पूर्ण व्यायाम कर सकते हैं, किशोर अपने साथियों के साथ हॉकी, फुटबाल, बालीबाल आदि खेल खेलने जा सकते हैं। स्त्रियाँ अपने स्वास्थ्य के लिए अनाज पीस कूट सकती हैं। घरों में बागवानी, घर की सफाई कपड़ों का धोना और पानी भरना भी उनके लिए व्यायाम का लाभ दे सकता है।

भोजन के विषय में परिवार के सारे सदस्यों की रुचि एक जैसी बनाने का प्रयत्न किया जाना चाहिये। यह प्रयत्न सात्विक भोजन का अभ्यास कराने से सहज ही में सफल हो सकता है। तामसी अथवा राजसी भोजन करने से ही मनुष्य की रुचि तथा जिह्वा बिगड़ जाती है। सात्विक आहार मनुष्य की रुचि को सरल, साधारण तथा स्थिर बना देता है। सात्विक वृत्ति वाले व्यक्ति को साधारण तथा सादे से सादे भोजन में स्वाद आता है। अस्तु घर की रसोई को पराकाष्ठा तक सरल, सात्विक तथा साधारण रखना चाहिये। भोजन का स्तर इतना माध्यमिक होना चाहिये जो तीसों दिन समान रूप से चलता रहे। यह नहीं होना चाहिये कि दो दिन तो पूरी पकवान, मेवा-मिष्ठान अथवा खीर, हलुवा बन गया और बाकी दिन शाक-दाल में भी कमी होती रहे। साधारण एवं समान भोजन जहाँ स्वास्थ्य में असन्तुलन नहीं लाता वहाँ अल्पव्ययी भी होता है। शाक, सब्जी तथा ऋतु फलों की अधिकता दूध, दही, मक्खन, मलाई आदि पौष्टिक पदार्थों से किसी भी दशा में कम लाभकर नहीं होती।

परिवार के सारे सदस्यों के वस्त्र एक ही स्तर के आवश्यकतानुसार मोटे एवं मजबूत होने चाहिए। वस्त्रों की विषमता सदस्यों में स्पर्धा जगा देती है। फैशन, प्रदर्शन तथा अलंकरणों को तो पूरे परिवार से पूरी तरह बहिष्कृत कर देना चाहिये। वस्त्र अधिक से अधिक स्वच्छ तथा कम से कम विचित्रता पूर्ण रक्खे जायें। सादी वेशभूषा सदस्यों में सात्विक स्वभाव को विकसित करेगी।

घर के आय-व्यय का ज्ञान हर समझदार सदस्य को रहना ही चाहिए। इसके लिये उनको सम्मिलित करके घर का बजट बनाना बहुत ही उपयोगी रहेगा। घर के अव्यय का ज्ञान रहने से कोई भी सदस्य अपनी आवश्यकताओं को आर्थिक परिधि से बाहर ले जाने से बचेगा। इस प्रकार उसमें सन्तोष तथा मितव्ययता का विकास होगा।

इन उपायों को काम में लाने के अतिरिक्त गृहपति का कर्तव्य है कि वह घर की व्यवस्था पर पूरा ध्यान दे। सदस्यों का आपसी मनोमालिन्य दूर करने के लिये दैनिक गोष्ठी करे जिसमें वह सब को गुणों की महिमा तथा पारस्परिक प्रेम का महत्व समझाए। उन्हें ऐसी कहानियाँ तथा समाचार सुनाये जो चरित्र-निर्माण तथा सौहार्द्र की दिशा में प्रेरक हों।

कहना न होगा कि इस प्रकार अपने उदाहरण के साथ यदि गृहपति संस्कार शोधन के इन कतिपय उपायों को अविकल रूप से काम में लाये तो कोई कारण नहीं कि उसका परिवार सुसंस्कृत न हो जाये और गृह कलह दूर होकर उसके स्थान पर सुख-शान्ति का वातावरण न रहने लगे।


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