गायत्री महाशक्ति का स्वरूप और रहस्य

September 1966

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(यह लेख-माला अगले पाँच वर्ष तक नियमित रूप से चलती रहेगी। गायत्री महाशक्ति के रहस्यों पर इन लेखों में महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ेगा। अगले अंकों को सुरक्षित रखा जा सके, तो पाठकों को आध्यात्मिक विद्या का एक सर्वांग सुन्दर ग्रन्थ मिल जायेगा।)

गायत्री महामन्त्र भारतीय तत्वज्ञान एवं अध्यात्म-विद्या का मूलभूत आधार है। चारों वेदों में उन्हीं 24 अक्षरों की व्याख्या हुई है। वट-वृक्ष की समस्त विशालता उसके नन्हे-से बीज में जिस प्रकार सन्निहित रहती है, उसी प्रकार वेदों में जिस अविच्छिन्न ज्ञान-विज्ञान का विशद् वर्णन है, उसे बीज-रूप से गायत्री मन्त्र में पाया जा सकता है।

भारतीय धर्म में प्रचलित उपासना-पद्धतियों में सर्वोत्तम गायत्री ही है। उसे अनादि माना गया है। देवता, ऋषि, मनीषी उसका अवलम्बन लेकर आत्मिक प्रगति के पथ पर आगे बढ़े हैं और इसी आधार पर उन्होंने समृद्धियाँ, सिद्धियाँ एवं विभूतियाँ उपलब्ध की हैं। हमारा प्राचीन इतिहास बड़ा गौरवपूर्ण है। इस गौरव-गरिमा का श्रेय हमारे पूर्व पुरुषों द्वारा उपार्जित आत्म-शक्ति को ही है। कहना न होगा कि इस दिव्य उपार्जन में गायत्री महामन्त्र का ही सर्वोत्तम स्थान है।

स्थूल प्रकृति की शक्तियों का वैज्ञानिकों ने बहुत कुछ पता लगा लिया है, यद्यपि जो खोज शेष है वह प्राप्त उपलब्धियों की तुलना में कहीं अधिक है, फिर भी निस्सन्देह इस दिशा में बहुत प्रयत्न हुआ है। जो सफलता मिली है, वह सराहनीय है। प्राचीनकाल के तत्वदर्शी विज्ञानवेत्ता भौतिक विज्ञान की शक्ति और उसके उपार्जन की कष्ट साध्य प्रणाली से भली-भाँति परिचित थे, इसलिये वे उसे बाल क्रीड़ा जैसी उपहासास्पद एवं उपेक्षणीय मानते थे। उनकी दृष्टि में सूक्ष्त जगत और उसमें सन्निहित अद्भुत, अनुपम एवं दिव्य शक्तियों की महत्ता थी, इसलिए उन्होंने अपना सारा ध्यान उसी ओर लगाया था, श्रम भी उसी दिशा में किया था। फलस्वरूप पाया भी इतना अधिक था कि धरती पर स्वर्ग अवतरित करना, मनुष्य में देवत्व का दर्शन करना, सम्भव हो सका था।

आज के वैज्ञानिक जिस प्रकार भौतिक शक्ति यों का पता लगाकर उनका उपयोग यन्त्रों द्वारा कर रहे हैं, और अपनी सफलता से मानव-जाति को लाभान्वित कर रहे हैं, उसी प्रकार प्राचीन काल के तत्वदर्शी वैज्ञानिकों ने—ऋषियों ने चेतन-जगत में समाविष्ट एक-से-एक महत्तर शक्तियों की जानकारी प्राप्त की थी और उनके उपयोग का लाभ मानव-जाति को दिया था। इस प्रकार की उनकी अगणित उपलब्धियों में गायत्री-शक्ति का मानव-उपयोग के लिए अवतरण हो सकना, एक बहुत बड़ा वरदान है।

जड़ जगत् में काम करने वाली विद्युत, गुरुत्वाकर्षण, अणु-विकिरण, ब्रह्माँड व्यापी ईथर, उद्भव और विलय आदि अगणित शक्तियों का पता लगाया गया है। उसी प्रकार चेतन जगत में व्याप्त शक्ति-पुँजों में से जितना कुछ ढूँढ़ा जा सका है उसका महत्व, उपयोग एवं परिणाम इतना अधिक है कि यदि उसमें से कोई थोड़ा-सा भी उपयोग कर सके तो अपने व्यक्तित्व को सुनिश्चित करते हुए महामानव, अतिमानव, नरदेव एवं नर-नारायण बन सकता है।

अणु-समूह की गतिशीलता से उस भौतिक जगत का सारा क्रिया−कलाप चलता है। उसी प्रकार सूक्ष्म जगत के महदाकाश में चेतना की एक अविच्छिन्न धारा बहती है उसी के फलस्वरूप जीवन के जितने भी स्वरूप विकसित एवं अविकसित जीवों में पाये जाते हैं वे उस दिव्य चेतना की गतिशीलता ही प्रदर्शन करते हैं। इस अचिन्त्य, अगोचर, अनुपम, विश्व ब्रह्माण्ड में लहराती हुई चेतना का नाम ‘ब्रह्म’ है। ब्रह्म इस समस्त विश्व ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। कोई कण उसकी उपस्थित से रहित नहीं। भौतिक जगत की गतिविधियों की प्रेरणा इस ब्रह्म से ही मिलती है। आइन्स्टीन प्रकृति चोटी के गण्यमान्य वैज्ञानिकों ने निस्संकोच भाव से यह स्वीकार किया है कि प्रकृति को सक्रिय रखने वाली अणु गति शीलता वस्तुतः किसी अज्ञात चेतनशक्ति के नियन्त्रण में काम करती है और उसी की शक्ति का अनुदान लेकर यह निर्जीव संसार सजीव जैसी चेष्टा कर रहा है। आज के वैज्ञानिक भले ही उस ब्रह्म-चेतना का स्वरूप ठीक तरह समझने में समर्थ न हो पा रहे हों, पर वह दिन दूर नहीं, जब उसका अस्तित्व भावना क्षेत्र तक सीमित न रहकर स्थूल जगत में भी प्रत्यक्ष अनुभव किया जाने लगेगा। भारतीय तत्वदर्शियों ने इस ब्रह्म-चेतना की सत्ता चिर अतीत में ही जान ली थी और उस शक्ति के मानव जीवन में उपयोग करने की प्रक्रिया का एक व्यवस्थित विधान बनाकर मानव प्राणी के नगण्य अस्तित्व को इतनी महत्तम स्थिति में परिणित किया था, जिससे स्वयं तक ब्रह्मभूतं हो सकें। इस विज्ञान का नाम ‘अध्यात्म’ रखा गया।

नगण्य दृष्टिगोचर होने वाली अणु आत्मा जिस प्रक्रिया का अवलम्बन करने से विभु बन सके, नर से नारायण के रूप में विकसित हो सके—परम आत्मा— परमात्मा बन सके, उस विद्या का नाम अध्यात्म अथवा ब्रह्म विद्या रखा गया। ब्रह्म अपने आप में दृष्टा मात्र है। वह ऐसा है तो सही पर अपनी महत्ता एवं गरिमा के अनुरूप उत्पादन एवं व्यवस्था की प्रक्रिया का भी निर्धारण करता है। उसकी सक्रियता शक्ति-यद्यपि उसी का अंग है तो भी उसकी क्रिया प्रणाली की भिन्नता देखते हुए उसे ब्रह्म की पूरक—सामर्थ्य भी कहा जा सकता है।

पुराणों में गायत्री महाशक्ति का निरूपण ब्रह्मा जी को पत्नी के रूप में हुआ। ब्रह्म अर्थात् ब्रह्म—पत्नी, अर्धांगिनी, अर्थात् क्षमता। पौराणिक उपाख्यान के अनुसार अलंकार यह है कि ब्रह्माजी की दो पत्नी थीं, एक गायत्री दूसरी सावित्री। गायत्री अर्थात् चेतन जगत में काम करने वाली शक्ति । भौतिक विज्ञान सावित्री उपासना का विधान प्रस्तुत करता है। विभिन्न प्रकार के वैज्ञानिक आविष्कार एवं उपकरण सावित्री शक्ति की अनुकम्पा के ही प्रतीक हैं। गायत्री वह शक्ति है जो प्राणियों के भीतर विभिन्न प्रकार की प्रतिभाओं, विशेषताओं और महत्ताओं के रूप में परिलक्षित होती है। जो इस शक्ति के उपयोग का विधान—विज्ञान ठीक तरह जानता है वह उससे वैसा ही लाभ भी उठाता है जैसा कि भौतिक जगत के वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशालाओं, मशीनों तथा कारखानों के माध्यम से उपार्जित करते हैं।

सामान्य स्थिति का नरपशु व्यक्तित्व की दृष्टि से विकसित होकर मानव, महा-मानव, अति-मानव बनता है तो उसे अनन्त चैतन्य सागर में कल्लोल करने वाली इस ब्राह्मी शक्ति का ही आश्रय लेना पड़ेगा। आकाशवाणी के विभिन्न स्टेशनों से विभिन्न स्तरों पर, विभिन्न अभिभाषण प्रसारित होते रहते हैं। हमारा रेडियो यंत्र यदि निष्क्रिय पड़ा हो तो उसमें कोई ध्वनि सुनाई न देगी, पर यदि उसमें बिजली चालू कर दी जाय और सुई निर्धारित मीटर पर लगादी जाय तो जिस भी स्टेशन का प्रसारण मन्द या तीव्र ध्वनि में सुनना हो सुना जा सकेगा। ठीक इसी प्रकार ब्राह्मी महाशक्ति—गायत्री-सर्वव्यापक होते हुए भी असम्बद्ध लोगों का कोई विशेष हित साधन नहीं कर पाती, पर जो उसके साथ अन्तः चेतना को जोड़ देते हैं वे उस धारा का अवतरण अपने में होता हुआ देखते हैं और उसका लाभ उठाते हैं। गायत्री उपासना की शास्त्रोक पद्धति एक ऐसी ही वैज्ञानिक प्रणाली है जो जीव को ब्राह्मी सत्ता के साथ जोड़कर वैसा ही लाभ उठाने का अवसर प्रस्तुत करती है जैसा कि खाली तालाब भरे तालाब के साथ नाली द्वारा जोड़ दिया जाय तो कुछ ही देर में जल से भर जाने का लाभ ले लेता है।

यों साधारण उपासना क्रम में गायत्री को एक देवी के रूप में चित्रित, अंकित किया गया है। त्रिकाल संध्या में ब्राह्मी, वैष्णवी, शाँभावी आकार-प्रकार में उसका ध्यान भजन किया जाता है। माता के रूप में उसकी भावना करते हैं और नारी आकृति की प्रतिमा में उसका पूजन, वन्दन सम्पन्न करते हैं। पर यह तो ध्यान की एकाग्रता और भक्ति भावना के जागरण का एक तरीका मात्र है। उपासना के लिये मानवीय मनोभूमि की रचना के अनुरूप शब्द रूप एवं भावों का निर्धारण करना पड़ता है। विद्युत महाशक्ति के विश्वव्यापी सूक्ष्म रूप को वैज्ञानिक जानते हैं। साधारण लोग उसे बत्ती—पंखा, आदि के रूप में कार्य करते हुए ही देखते हैं। उनकी दृष्टि में ये उपकरण ही विद्युत महाशक्ति के प्रत्यक्ष रूप हैं। ठीक इसी प्रकार उपासना प्रकरण में गायत्री की माता के रूप में पूजा अर्चा की जाती है और उसके साथ वैसा ही सम्बन्ध जोड़ा जाता है जैसा कि साँसारिक माँ-बेटे का होता है। यह प्रक्रिया आवश्यक है। क्योंकि निराकार तत्व के साथ पंचभौतिक मन अपना सम्बन्ध जोड़ ही नहीं सकता। निराकार का ध्यान सम्भव नहीं, और न उसके साथ किसी प्रकार आत्मीयता की भावना उठ सकती है। इसलिये ब्राह्मी शक्ति के निराकार होते हुए भी उपासना के लिये उसे साकार रूप में ही प्रतिष्ठापित करना पड़ता है। यदि ऐसा न किया जाय तो ध्यान जैसी उपासना की प्रमुख प्रक्रिया का द्वार ही बन्द हो जायगा। इसलिये गायत्री माता के साकार स्वरूप की उपयोगिता आवश्यकता मानते हुये भी हमें यह जानना होगा कि ब्राह्मी महाशक्ति वस्तुतः एक विश्वव्यापी चेतन तत्व है जो प्राणियों के प्राण के रूप में देखा जा सकता है। गायत्री उपासना द्वारा हम अपने सामान्य प्राण को महाप्राण में परिणित-विकसित करते हैं।

साधारणतया मानव शरीर में रहने वाला अकिञ्चन-सा प्राण स्फुल्लिंग इतना ही प्रयोजन सिद्ध करता है कि प्राणी अपनी शारीरिक एवं मस्तिष्क की गतिविधियाँ जारी रख सके जो जीवन धारण किये रहने के लिये आवश्यक हैं। प्राण के अन्तराल में से शक्ति कम्पन क्षण क्षण पर उद्भूत होते हैं वे कोई अन्य उपयोग न होने के कारण यों ही शून्य में जाते और समाप्त होते रहते हैं। इसका कोई विशेष लाभ प्राणधारी को मिल नहीं पाता पर यदि कोई ऐसा उपाय निकल आवे जिससे इस प्राण-तत्व के शक्ति कम्पनों को सुरक्षित रखा जा सके तो यह कोष एक वृहद् भाण्डागार के रूप में संचय होकर प्राणी को सच्चे अर्थों में शक्तिवान् बना सकता है।

गायत्री शब्द का नामकरण उसके क्रिया−कलाप एवं स्वभाव को ध्यान में रखकर ही किया गया है। इस महाशक्ति के साथ सम्बन्ध होने की प्रथम प्रतिक्रिया यह होती है कि साधक का प्राण प्रवाह शून्य में बिखरना रुक जाता है और उसका ऐसा संरक्षण होता है जिससे कोई महत्वपूर्ण प्रयोजन सिद्ध किया जा सके। वर्षा का जल नदी-नालों में बहता हुआ यों ही अस्त−व्यस्त हो जाता है पर यदि उसे बाँध लगाकर रोका जा सके तो सिंचाई, विद्युत उत्पादन आदि कई कार्य सिद्ध हो सकते हैं। गायत्री उपासना प्राणशक्ति के क्षरण को रोकती है उसकी रक्षा करती है और इस संरक्षण से लाभान्वित उपासक दिन-दिन प्रगति पथ पर अग्रसर होता है, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए उस महती शक्ति का नाम—गुण के अनुरूप —तत्वदर्शी मनीषियों ने ‘गायत्री’ रखा। शास्त्रों में ऐसा ही उल्लेख मिलता है—

सा हैषा गायत्री गयाँस्तत्रे। प्राथाः वै गयाँस्तत् प्राणाँस्तत्रे तद् यद् गायाँ स्तत्रे तस्माद् गायत्री नाम।

—शतपथ

“प्राणों का त्राण करने वाली गायत्री है। उपासना करने वाले के प्राण को निर्मल एवं समर्थ बनाती है, इसलिये गायत्री कहते हैं।”

गयाः प्राणा उच्यन्ते, गयान् प्राणात् त्रायते सा गायत्री। गायतं त्रायते इति वा गायत्री प्रोच्यते तस्मात् गायन्तं त्रायते यतः।

—गायत्री सन्ध्या

“जो प्राणों की रक्षा करती है, जिसकी उपासना से जीवन प्राणवान बनता है। जो उपासक का परित्राण करती है, त्रिविधि तापों से बचाती है, वह गायत्री है।”

प्राणियों में जितनी तेजस्विता दृष्टिगोचर हो, समझना चाहिये कि उसमें उतना ही प्राणाँश अधिक है। निर्जीव, निस्तेज और निष्क्रिय लोगों में इस तत्व की न्यूनता होती है और तेजस्वी मनस्वियों में—पुरुषार्थी साहसियों में अधिकता। फिर भी यह तत्व न्यूनाधिक मात्रा में रहता सभी के अन्दर है। परमात्मा की इस पवित्र शक्ति का दर्शन हम प्रत्येक प्राणी में कर सकते हैं। इसलिये गायत्री को जगत्मय और जगत् को गायत्रीमय कहा गया है।

परमात्मास्तु या लोके ब्रह्म शक्तिर्विराजते। सूक्ष्मा च सात्विका चैव गायत्रीत्वाभिधीयते।

—स्कन्द

“सब लोकों में विद्यमान, जो सर्वव्यापक परमात्म शक्ति है, वह अत्यन्त सूक्ष्म सत्प्रकृति ही चेतन शक्ति गायत्री है।”

अपना परिचय देते हुए इस महाशक्ति ने शास्त्रों के विभिन्न कथा-प्रसंगों में इस रहस्य का रहस्योद्घाटन किया है कि मनुष्य के अन्दर जो सचेतन विशेषता होगी उसके मूल में ब्राह्मी-शक्ति का ही वैभव रहा होगा। धन-सम्पत्ति तो लोग उचित-अनुचित कई तरीकों से कमा लेते है, समृद्ध और श्रीमान तो भाग्यवश मूर्ख भी बन जाते हैं। पर यदि किसी का व्यक्तित्व विकसित हो रहा होगा, तो उसके अन्तराल में यही ब्राह्मी-चेतना—गायत्री—काम कर रही होगी। जिस सामर्थ्य के बल पर लोग विभिन्न प्रकार की सफलताएँ उपलब्ध करते हैं, उस शक्ति को भौतिक नहीं, आत्मिक ही समझना चाहिये। आत्म-बल के अभाव में समृद्धि का उपार्जन तो दूर, व्यक्ति उसकी रखवाली भी नहीं कर सकता। इस रहस्य का उद्घाटन उसी शक्ति के श्रीमुख से इस प्रकार हुआ है—

अहं बुद्धि रहं श्रीश्च धृतिः कीर्तिः स्मृतिस्तथा। श्रद्धा मेधा दया लज्जा क्षुधा तृष्णा तथा क्षमा। कान्तिः शान्तिः पिपासा च निद्रातंद्रा जराजरा। विद्याऽविद्या स्पृहावाञ्छा शक्तिश्चाशक्ति देव च। बसा मज्जा च त्वज चाह दृष्टि र्वागनृत ऋता। परमध्या च पश्यन्ती नाड्योऽहं विविधा श्चयाः। किं नाहं पश्य संसारे मद्वियुक्तं क्रियस्ति हि। सर्वनेवाहमित्येवं निश्चयं विद्धि पद्मज॥

—देवी भागवत

“मैं क्या नहीं हूँ? इस संसार में ये मेरे सिवाय और कुछ नहीं है। बुद्धि, धृति, कीर्ति, स्मृति, श्रद्धा, मेधा, लज्जा, क्षुधा, तृष्णा, क्षमा, कान्ति, शान्ति, पिपासा, निद्रा, तन्द्रा, जरा, अजरा, विद्या, अविद्या, स्पृहा, वाञ्छा, शक्ति , अशक्ति , वसा, मज्जा, त्वजा, दृष्टि, असत् और सत्, वाणी, परा, मध्यमा, पश्यन्ती, नाड़ी-संस्थान आदि सब कुछ मैं ही हूँ।”

मयासो अन्नमत्ति यो विपस्यति यः प्राणिति य ई शृणोत्युक्तम्। ऊमन्त वो माँ त उपक्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धि वै ते वदामि।

—महार्णव.

“यह विश्व मुझसे ही जीवित है। मेरे द्वारा ही उसे अन्न मिलता है। मेरी शक्ति से ही वह बोलता और सुनता है। जो मेरी उपेक्षा करता है, वह नष्ट हो जाता है। हे श्रद्धावान्! सुनो, यह रहस्य मैं तुम्हारे कल्याणार्थ ही कहती हूँ।”

प्रकृति ने जड़ पदार्थ बनाये, पदार्थों की रचना उसने की पर उन पदार्थों को व्यवस्थित करने और उपयोग में लाने की क्षमता चेतना में ही रहती है। चेतन की अनुपस्थिति अथवा न्यूनता में सुख-साधनों के प्रचुर परिमाण में उपस्थित रहने पर भी उनका कोई उपयोग नहीं। सोना जमीन में गढ़ा है पर किसी सजीव प्राणी को उसकी जानकारी न हो अथवा निकालने की क्रिया करने वाला कोई न हो, तो वह सोना जहाँ-का-तहाँ पड़ा रहेगा, उससे किसी का कुछ भी लाभ न होगा। उसी प्रकार शरीर जैसा बहुमूल्य यन्त्र जो मस्तिष्क बहुत कुछ सोचता, हाथ-पैरों से बहुत कुछ करता एवं इन्द्रियों से बहुत कुछ रसास्वाद करता है, चेतन-तत्व निकल जाने पर निकम्मा बन जाता है। इसलिये साँसारिक सुख-साधनों की उपयोगिता होने पर भी महत्ता चेतन-तत्व की ही है। समस्त सुख-साधनों का वास्तविक आधार और मूल स्रोत वही है।

इस चेतन के आरम्भिक स्तर से लेकर ऊँचे-ऊँचे अनेक स्तर हैं। सामान्य समझदारी में जितनी चेतना है, संसार की स्वाभाविक व्यवस्था के अनुसार जीवधारियों को मिलती रहती है, पर ऊँचे स्तरों की क्षमता प्राप्त करने के लिए उसे कुछ विशेष प्रयत्न करने होते हैं। उन विशेष प्रयत्नों का नाम ही साधना एवं उपासना है। इस पुण्य प्रक्रिया द्वारा पुरुषार्थी साधक अपनी आन्तरिक स्थिति इतनी विकसित कर लेते हैं कि इस निखिल महदाकाश में संव्याप्त उस ब्राह्मी-महाशक्ति—गायत्री—से अपना संबन्ध स्थापित कर सकें। यह सम्बन्ध जितना स्पष्ट और जितना प्रौढ़ होता है, उतनी ही उच्चस्तरीय विभूतियाँ मनन-क्षेत्र में अवतरित होती है। यह अवतरण ही मनुष्य को महापुरुष, सिद्ध-पुरुष एवं अतिमानव के रूप में विकसित करता है।

लौकिक प्रयत्नों से मस्तिष्कीय मनोबल को बढ़ाया जा सकता है। साँसारिक साधनों की सहायता से अध्ययन, अभ्यास, प्रशिक्षण एवं परिश्रम से इतना ही हो सकता है कि गुण-कर्म-स्वभाव की सुव्यवस्था बन जाय। इतने क्षेत्र में थोड़ी-सी उन्नति हो जाय। यह उन्नति आत्मिक दृष्टि से नगण्य ही मानी जाती है। कितने ही चतुर, सुशिक्षित, शिष्ट और व्यवस्थित व्यक्ति संसार में पाये जाते हैं। उन्हें सज्जनोचित आदर, सहयोग और सन्तोष तो मिलता है, पर इससे आगे की विभूतियाँ उपलब्ध नहीं होतीं। जिन दिव्य शक्तियों के बलबूते मनुष्य महान् आध्यात्मिक लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है, वे उसे तभी मिलते हैं जब उच्चस्तरीय महदाकाश में संव्याप्त व दिव्य चेतना ब्राह्मी-शक्ति—गायत्री—के साथ अपना सम्बन्ध जोड़े।

जितने हार्स पॉवर की मोटर होती है, बिजलीघर में उत्पन्न होने वाले लाखों किलोवाट विद्युत भंडार में से उस मोटर को उतनी ही शक्ति मिलती है। मोटर की पात्रता पर ही उसमें विद्युत-धारा कितनी प्रवेश करे, यह निर्भर रहता है। साधक ने साधना द्वारा अपना आन्तरिक स्तर कितना परिष्कृत किया है, इसी आधार पर वह ब्राह्मी-शक्ति अवतरित होती है। मनोभूमि में अधिकाधिक पात्रता उत्पन्न करने के प्रयोजन से ही उपासना की जाती है महाशक्ति ने अपनी जिन विभूतियों का वर्णन उपरोक्त श्लोकों में आत्म-परिचय देते हुए किया है, वे सभी उसमें प्रचुर परिमाण में विद्यमान हैं। आवश्यकता केवल उतनी भर रह जाती है कि व्यक्ति अपने में पात्रता उत्पन्न करे और उन लाभों से लाभान्वित हो, उन विभूतियों को धारण करके दैवी-जीवन जी सकने की स्थिति तक पहुँचे।

जिस साधक पर उसकी पात्रता के अनुरूप उस महाशक्ति का अनुग्रह अवतरित होता है वह सर्वतोभावेन धन्य हो जाता है। माता गायत्री का प्यार अनुग्रह जिसे मिला, उसे इस संसार की कोई वस्तु अप्राप्त नहीं रह जाती। उसके भीतर से ही दिव्य प्रेरणाएँ उठनी आरम्भ हो जाती हैं और उनके प्रकाश में, जो सर्वसाधारण के लिये अप्रकट एवं अज्ञात है, वह उसके लिये हस्तामलकवत् स्पष्ट हो जाता है। जो दूसरों के लिये लालसा एवं कामना का क्षेत्र है वह उसकी मुट्ठी में होता है। उसे वह ऋतम्भरा प्रज्ञा मिलती है जिसके प्रकाश में अदृश्य को देख सकना उसकी सामर्थ्य के अंतर्गत होता है। ऐसा व्यक्ति ऋषि बन जाता है। उसे ब्रह्म-शक्ति-गायत्री का सर्वोपरि उपहार-ब्रह्म-पद-प्राप्त होता है। ब्रह्म विशेषताओं और विभूतियों से विभूषित वह ब्रह्म परायण मानव-प्राणी कहलाते हुए भी वस्तुतः देवत्व की भूमिका में ही विचरण करता है

शक्ति-तन्त्र में उस महाशक्ति ने अपनी इसी विशेषता की चर्चा की है। वह जिसका पथ-प्रदर्शन करती है, जिसे प्यार करती है उसे अपना सर्वोत्तम उपहार प्रदान करने में संकोच नहीं करती—

अहमेक स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभियं कामये तं तमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमर्षि तं सुमेधा।

—शक्तितन्त्र

“तत्वज्ञान की उपदेशक मैं ही हूँ। मैं जिसे प्यार करती हूँ उसे समुन्नत करती हूँ, उसे सुबुद्धि देती हूँ, ऋषि बनाती हूँ और ब्रह्मपद प्रदान करती हूँ।” दैवी शक्तियों का स्वरूप और क्रिया-कलाप शास्त्रों में विस्तारपूर्वक वर्णित हुआ है। उन शक्तियों को धारण करने वाले दृश्यमान मनुष्य भी हो सकते हैं और अदृश्य-मान शक्ति-केन्द्र भी। सूक्ष्म-जगत में ऐसे शक्ति-केन्द्र विद्यमान हैं, जो विशेष-विशेष प्रकार की सामर्थ्य अपने अन्दर धारण किये हुए हैं। उन केन्द्रों में जो जिस स्तर का सम्बन्ध बना लेता है, वह उतना ही शक्तिमान बन जाता है। देववाद और देवस्वरूप, देवशक्ति और देवाराधन का एक स्वरूप यह है।

दूसरे सर्वगुण सम्पन्न मानव भी देवता कहलाते हैं। इन दोनों प्रकार के देवताओं के नाम अलग-अलग प्रकार के हैं। सूक्ष्म शक्ति-केन्द्रों को रुद्र, आदित्य, बसु, विश्वदेवा, त्वष्टा, पूषा, इन्द्र, मारुत, अर्यमा, अग्नि कहा जाता है और दृष्टमान देव-मानवों को ऋषि, मनीषी, दृष्टा, जीवन मुक्त अर्हंत-अवतार आदि नामों से पुकारते हैं। दोनों ही वर्ग के इन देवताओं की महत्ता का आधार वह ब्रह्मशक्ति —गायत्री—ही है। उसका जितना अंश जिसे मिला, वह उतना ही शक्तिशाली हो गया। ऋग्वेद में इ तथ्य को इस प्रकार प्रकट किया गया है—

अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यै रुत विश्व देवैः। अहं मित्रा वरुणोभा विभर्म्य हविद्राग्नी अहिमश्विनोभा।

—ऋग्वेद

“मैं ही रुद्र, वसु, आदित्य और विश्वे देवताओं में विचरण करती हूँ। मैं ही मित्र, वरुण, अग्नि और अश्विनीकुमारों का रूप धारण करती हूँ।”

इसी गायत्री तत्व का उपनिषदों में अदिति के नाम से उल्लेख हुआ है। सम्पूर्ण प्राणी इस अदिति के प्रभाव से ही अपनी हलचल जारी रखे रहने में समर्थ होते हैं। इतना ही नहीं वे देव, गंधर्व, पितर आदि का दिव्य स्तर प्राप्त करते हैं। सच्चा मनुष्य भी इसी शक्ति की सहायता से बनता है और दानवी क्षमता भी—उसी का दुरुपयोग करने वालों को मिलती है—

आदित्य देवा गन्धर्वा मनुष्याः पितरो सुराः तेषाँ सर्वभूतानाँ माता मेदिनी माता मही सावित्री गायत्री जगत्युर्वी पृथ्वी बहुला विद्या भूता ।

—नारायणोपनिषद

“देव, गंधर्व, मनुष्य, पितर, असुर इनका मूल कारण अदिति अविनाशी तत्व है। वह अदिति सब मूलों की माता मेदिनी और मातामहि है। उसी विशाल गायत्री के गर्भ में विश्व के सम्पूर्ण प्राणी निवास करते हैं।

ब्रह्मा, विष्णु और महेश देव-जगत के तीन प्रधान आधार हैं। उत्पत्ति, पालन और संहार इन तीनों के द्वारा ही होता है। तदनुसार यह सृष्टि-क्रम अपनी निर्धारित धुरी पर घूमता रहता है। इन त्रिदेवों में भी जो शक्ति काम कर रही है, वह तत्वतः गायत्री ही है। कहा गया है—

गायत्र्यैव परोविष्णु, गायत्र्यैव परः शिवः। गायत्र्यैव परोब्रह्मा, गायत्र्यैव त्रयी ततः॥

—गरुण पुराण

“गायत्री में ब्रह्मा-विष्णु-महेश की तीनों शक्तियाँ समाई हुई हैं। गायत्री में तीनों वेद सन्निहित हैं।”

जिस प्रकार चन्द्रमा का प्रकाश सूर्य की किरणें उस पर पड़ने से होता है, उसी प्रकार इन तीनों देवताओं की क्षमता एवं क्रियाशीलता गायत्री महाशक्ति के द्वारा ही सुसंचालित होती है। वे अपने इसी शक्ति-केन्द्र से अपना कर्तव्य-पालन करने योग्य सामर्थ्य ग्रहण करते हैं—

सर्ववेदसार भूता गायत्र्यास्तु समर्चना। ब्रह्मादयोऽपि संध्यायाँ ताँ ध्यायन्ति जपन्ति च।

—देवी भागवत 16।16।15

“गायत्री-अर्चना वेदों का सारतत्व है। ब्रह्मा-विष्णु-महेश सभी प्रातः-सायं गायत्री का जाप करते हैं।”

ब्रह्माजी द्वारा चारों वेद बनाये गये। उनमें ज्ञान-विज्ञान के समस्त सूत्र-संकेत किये गये। इस महान् रचना की प्रेरणा उन्होंने गायत्री से ही ली। सृष्टि के आदि में आकाशवाणी के निर्देशानुसार कमल-पुष्प पर बैठकर उन्होंने शत वर्ष पर्यन्त गायत्री-उपासना की और उसी के फलस्वरूप वे वेद-ज्ञान निष्णान्त बने। वेद की रचना का मूल आधार गायत्री है और वही विधाता की कृतियों का उद्गम प्रेरक भी है। गायत्री से बढ़कर इस संसार में और कुछ है भी तो नहीं।

वेदों में ज्ञान और विज्ञान का असीम भाण्डागार भरा पड़ा है। उन मन्त्रों के आधार पर जीवन को सुख-शाँतिमय समर्थ और समृद्ध बनाने की शिक्षा प्राप्त की जा सकती है और भौतिक-जगत में मिल सकने वाली समस्त सिद्धियों, सफलताओं को उपलब्ध किया जा सकता है। वेद-ज्ञान के माध्यम से ही ऋषियों ने अपना और इस महान् देश का वर्चस्व बढ़ाया था। कहना न होगा कि वह वेद-ज्ञान और कुछ नहीं, गायत्री-महामंत्र के 24 अक्षरों की व्याख्या मात्र ही है। जिसने गायत्री को समझ लिया और जिसे गायत्री प्राप्त हो गई, उसके लिये और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रहा।

अपनों से अपनी बात—


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