परमात्मा की प्राप्ति का दिव्य साधन—प्रेम

September 1966

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आध्यात्मिक उन्नति की परम अवस्था तथा ईश्वर प्राप्ति की अन्तिम भक्ति-अवस्था प्रेम है। भक्ति का स्वरूप भी निस्वार्थ प्रेम ही कहा गया है। इस विषय में कोई विवाद नहीं है कि परमात्मा की प्राप्ति के अन्य सभी साधनों में प्रेम दिव्य एवं सुखद साधन है और उसका प्रत्येक साधन में समावेश होना चाहिए। वस्तु कितनी ही सुन्दर क्यों न हो यदि उसके प्रति आकर्षण का भाव नहीं होगा तो न तो उसकी प्राप्ति का प्रयत्न ही हो सकता है और न उस प्रयत्न में चिरस्थायी ही रहा जा सकता है। प्रेम का विकसित रूप ही आध्यात्मिक गुणों- श्रद्धा-भक्ति विश्वास आदि के रूप में प्रकट होता है पर ईश्वर उपासना में उसे किसी न किसी रूप में प्रकट होना आवश्यक है। इसके बिना उपासना अधूरी है, सच्ची भक्ति तो प्रेम ही है, प्रेम ही परमात्मा का प्रकट स्वरूप है।

प्रेम ईश्वर प्राप्ति की साधना की वह कसौटी है जिसमें तपकर जीव विशुद्ध बनता है और ब्रह्म में मिलन की स्थिति प्राप्त करता है। जीव और परमात्मा के बीच जो तादात्म्य है वह अपने शुद्ध रूप में प्रेम द्वारा ही प्रकट होता है। प्रेम न होता तो इस पृथ्वी पर लोगों को आध्यात्मिक तत्वों की अनुभूति भी न होती। यह स्थिति प्रारम्भ में आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिये विकलता, विरह के रूप में प्रकट होती है पर जिन्हें स्वाभाविक रूप में वह स्थिति प्राप्त न हो और वे ईश्वर को प्राप्त करना अपने जीवन का उद्देश्य मान गये हों तो उन्हें भी प्रेम का अभ्यास करना पड़ता है। तप, त्याग और सुख की इच्छाओं का दमन कर अन्तःकरण की प्रेम-प्रवृत्ति को जागृत करना पड़ता है।

प्रेम जो मनुष्य का मनुष्य के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है उसे उसकी सत्ता के मूल स्रोत में पहुंचा देता है। जो वस्तु मनुष्य-समाज को धारण किये रखती है,उसके विकास और नैतिक उत्कर्ष में सहायक होती है वह प्रेम ही है। यदि मनुष्य-मनुष्य के बीच प्रेम का आदान-प्रदान न रहा होता और मानव जाति की प्रवृत्ति के मूल में प्रेम का प्रेरक भाव न होता तो नैतिक क्षेत्र में उसने कोई भी उन्नति न की होती।

मनुष्य विकास-क्रम में सृष्टि के अन्य जीवों की अपेक्षा बहुत पीछे है। संसार के अन्य प्राणियों में जो नैतिक मर्यादायें देखी जाती हैं वे ईश्वर प्रदत्त होती हैं। यदि उसके जीवन में प्रेम परिचालक न रहा होता तो उसकी सारी नैतिक मर्यादायें भंग हुई होती। स्वार्थ या छल-कपट की अधिकता वाले प्रदेशों में आज भी इस सिद्धान्त को स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है।

प्रेम विश्व की सर्वाधिक शक्तिशाली सत्ता है, उसी के आधार पर मनुष्य-समाज जीवित है। यह न होता तो मनुष्य बड़ा दरिद्र एवं अविकसित रहा होता। उसे केवल अपना ही ध्यान रहा होता, अपने ही स्वार्थों की फिक्र रही होती, अपने ही सुख सुहाये होते। न तो उसे समाज-सेवा के लिये प्रोत्साहन मिला होता, न व्यक्तिगत जीवन में पराक्रम करने की प्रेरणा मिली होती। प्रेम की शक्ति का साम्राज्य आज सुव्यवस्थित और सुनियोजित विश्व के रूप में देखने को मिल रहा है।

प्रेम के बगैर मनुष्य मुर्दा है। जब मनुष्यों में प्रेम का अभाव होगा तो कोई आकर्षण न होगा तो क्रिया न होगी, क्रिया न होगी तो यह सारा संसार नीरव, उदासीन और जड़वत हो जायगा। इसीलिये प्रेम ही जीवन है।

ईश्वर उपासना में इस उद्दात्त भावना का दर्शन संसार के सभी धर्मों में पाया जाता है। भगवान को प्रेममय समझकर प्रेम मार्ग द्वारा उसकी साधना सभी देशों के भक्तों एवं साधकों में देखी जाती है। उपनिषद् में भगवान को “मधु ब्रह्म” कहा है यह उसका विशुद्ध प्रेममय स्वरूप ही है। परमात्मा प्रेम द्वारा ही मधुर होता है—’मधुक्षरन्तितद्ब्रह्म’ जिससे मधु अर्थात् प्रेम प्रकीर्ण होता है वही ब्रह्म है। अपने इसी रूप में वे भक्त के लिये, आराधक के लिये पुत्र, धन आत्मीय स्वजन—इन सबसे बढ़कर प्रियतम हो जाते हैं। महापुरुष ईसा का कथन है—’प्रेम परमेश्वर है’। संत इमर्सन की वाणी है—”परमात्मा का सार-तत्व प्रेम है”। सभी ईसाई सन्तों ने भगवान् की साधना आनन्दमय, मधुमय एवं प्रेममय रूप में ही की है।

सेंट टेरेसा नामक पाश्चात्य साधिका ने लिखा है—”परमात्मा के प्रति प्रेम होता है तभी सच्ची उपासना बन पड़ती है। आत्मा के उत्थान की यह प्रारम्भिक अवस्था है। अन्त में जीव और ब्रह्म का प्रणय-संस्कार होता है तो दोनों एक दूसरे में आत्मसात् हो जाते हैं। न जीव रहता है और न परमात्मा, केवल प्रेम ही शेष रह जाता है, जो ब्रह्म के समान सर्वज्ञ, सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान दिखाई देता है।”

मुसलमानों में सूफी संतों की प्रेममयी भक्ति-धारा प्रियतम (माशूक) के रूप में की है और जीवात्मा को प्रेमी (आशिक) के रूप में माना है। इस प्रेम भक्ति-धारा का सुन्दर प्रवाह जाय सीकृत “पद्मावत” में भली-भाँति देखने को मिलता है। जलालुद्दीन भक्त बड़े प्रेमी सन्त हुये हैं, उन्होंने लिखा है—”तुम्हारे हृदय में परमात्मा के लिये प्रेम होगा तो उसे भी तुम्हारी चिन्ता अवश्य होगी।

जिस प्रेम शक्ति का सन्तों, अध्यात्म-तत्ववेत्ताओं ने इतना समर्थन किया है वह मनुष्य जीवन में अवतरित होकर किस प्रकार उसे अनन्त ब्रह्म की ओर विकसित करती है यह जानने योग्य है। लोगों के अन्दर अनेक बुरी वृत्तियाँ हैं—काम, क्रोध, लोभ, मोह,भय, कुसंग, चोरी, व्यसन आदि। इन्हें जीतने और दूर करने का प्रयास जीवन भर करते रहते हैं तो भी वे दूर नहीं हो पाती। मन स्वभावतः कुमार्गगामी होता है और वह किसी भी नियम-बन्धन को मानने के लिये तैयार नहीं होता। ऐसी अवस्था में लोग यह मानकर निराश हो जाते हैं कि इन बुराइयों से बचने का कोई उपाय नहीं है। पर यदि मनुष्य के अन्तःकरण में प्रेम जागृत हो गया तो उसे इन्हें जीतने में कोई कठिनाई नहीं होती। प्रेमी के लिये कुछ उत्सर्ग करने में या अभावग्रस्त जीवन जीने में ही तो आनन्द है। मनुष्य का मन प्रेम का गुलाम है। प्रेम की शक्ति के सहारे उसे जिस मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित किया जाए वह उसी में चलने के लिए तैयार हो जाता है। प्रेम से मानव जीवन के उत्थान का यही आध्यात्मिक रहस्य है।

असीम सुख की प्राप्ति के लिये प्रेमी अपने आपको घुलाता है और इसमें उसे एक अनिर्वचनीय तृप्ति मिलती है। प्रेम का वास्तविक स्वरूप अपने आपको प्रेमी के प्रति आत्मोत्सर्ग करना ही तो है। इसका उद्दात रूप बच्चे के प्रति माता के वात्सल्य में देख पड़ता है । प्रेमवश माता बच्चे के ध्यान में अपने आपको बिलकुल विस्मृत कर देती है। उसे अपने सुख, सुविधा, विश्राम, निद्रा और भूख-प्यास की कोई सुध नहीं रहती।

ईश-उपासना में ऐसा प्रेम जागृत करने के लिए इष्टदेव से मिलने के लिये तीव्र और अदम्य इच्छा जागृत करनी चाहिये। साधारण मनुष्य के प्रेम में जब लोग इतने विभोर हो जाते हैं तो ईश्वर के प्रेम में ऐसा क्यों न होना चाहिये। पर इसके लिये भी हमें त्याग और बलिदान के लिये उसी भावना से तैयार रहना चाहिये जिस प्रकार अपने प्रेमास्पद का सुख देखने को तरसते हैं और उसके सामने अपनी विद्या-बुद्धि, धन-सम्पति, पद-यश सबको तुच्छ मान लेते हैं।

हमारा प्रयत्न यह होना चाहिये कि परमात्मा से शुद्ध प्रेम के लिये अपने आपको, अपनी आत्मा को, अपने बच्चों, अपनी धर्मपत्नी, घर गाँव, समाज राष्ट्र और सम्पूर्ण मानव भाइयों के प्रति विकसित करना चाहिये। यथाशक्ति उनकी सेवा और त्याग भावना द्वारा निष्काम प्रेम, वासना और कामना रहित प्रेम बढ़ाना चाहिये। इस विकास के मार्ग पर जितना अपना अहंकार नष्ट होता जायगा हम उतना ही परमात्मा की सत्ता में समाते चले जायेंगे और इसी प्रेम-अभ्यास में परम-पिता परमात्मा की समीपता का सौभाग्य प्राप्त कर लेंगे क्योंकि परमात्मा का द्वार प्रेमी भक्तों के लिये सदैव ही खुला रहता है।


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