सत्पुरुषों के प्रेरणाप्रद संस्मरण

September 1966

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जगद्गुरु शंकराचार्य की धर्म-निष्ठा

जगद्गुरु शंकराचार्य ने व्यवस्था और वंश-परम्परा के विपरीत अल्पायु में ही संन्यास ले लिया, इससे उनकी जाति के लोग बड़े रुष्ट हुए। उन्होंने शंकराचार्य का सामाजिक बहिष्कार करने का निश्चय किया। इसके लिये वे अवसर की प्रतीक्षा करने लगे।

जगद्गुरु उत्तर भारत का परिव्राजन कर रहे थे, तभी उनकी माँ बीमार पड़ीं। कोई भी कुटुम्बी उनकी सेवा-सुश्रुषा के लिये पास न गया। शंकराचार्य को समाचार मिला, वे घर आये। उनको देखकर तृप्त हुई माताजी सन्तोषपूर्वक स्वर्ग सिधार गई। इधर दाह संस्कार के लिए कोई भी नहीं आया। कुटुम्बियों का ख्याल था कि शंकराचार्य अपनी भूल पर पश्चाताप करेंगे और उसकी क्षमा माँगेंगे, पर वह कल्पना निरर्थक सिद्ध हुई । जगद्गुरु अपने मार्ग से विचलित न हुए।

शव को अकेले उठाकर ले जाना कठिन था, इसलिए उन्होंने उसके तीन टुकड़े किये और एक-एक टुकड़े को श्मशान घाट तक ले गये और दाह-क्रिया सम्पन्न की, पर किसी से क्षमा-याचना नहीं की। उन्होंने कहा—’धर्म कायरों के लिये नहीं है, मैंने संन्यास-समाज के लिये ग्रहण किया है अतएव किसी से क्षमा नहीं माँग सकता।” इस निष्ठा से अन्त में कुटुम्बी पराजित हुए। उसी का प्रभाव है कि मद्रास के नम्बूद्रीपाद ब्राह्मण अभी तक अपने शवों पर खंड परिचायक तीन लकीरें खींचते आ रहे हैं। परिस्थितियों से विचलित न होने वाला व्यक्ति ही सच्चा धर्म निष्ठा होता है।

अपना-अपना कर्तव्य

“माँ! मुझे बड़े भाई ने मारा है।” रोते हुए गान्धी जी ने अपनी माता से शिकायत की। तब उनका बचपन था। माँ ने प्यार से बापू के सिर पर हाथ फेरा और कहने लगीं—” मैं क्या करूं बेटा! तूभी उसे मार।” गान्धी जी बिगड़कर बोले—स्वयं तो मारने वाले को रोकती नहीं और मुझे भी मारने की शिक्षा देती है । तू ही बता, क्या मुझे बड़े भाई पर हाथ उठाना चाहिए। माताजी बड़ी लज्जित हुई, उन्होंने गाँधीजी के कथन की यथार्थता को अनुभव किया।

पेट है, कब्रिस्तान नहीं

जार्ज बर्नाड शा एक प्रीतिभोज में सम्मिलित हुए। भोजन परोसा जाने लगा। जब माँस उनकी थाली में डाला गया, तो वे उठ खड़े हुए और चलने की तैयारी करने लगे। लोगों में खलबली मच गई। मेजबान ने पूछा—हमसे कोई गलती हुई हो तो कहें? उन्होंने माँस की ओर इशारा करते हुए कहा—”महाशय! मेरा पेट कोई कब्रिस्तान नहीं है जो यह मुर्दा परोसा गया है।” यह कहकर वे घर चले आये।

पुत्र और परमेश्वर

विनोबा के पिता सहृदय व्यक्ति थे। वे प्रायः असहाय बच्चों को ले आया करते थे। उन बच्चों की घर में वैसी ही खातिरदारी की जाती थी जैसे घर के सगे बच्चों के साथ। एक बार ऐसा ही एक लड़का घर में रह रहा था। सेवा-सत्कार का सारा भार विनोबाजी की माताजी पर था। कभी-कभी दोपहर की रोटी बच जाती, तो वह विनोबा को दी जाती, उस बच्चे को नहीं। विनोबा ने एक दिन अपनी माता से कहा—”अभी तो तेरा भेदभाव मिटा नहीं, मुझे बासी रोटी देती है और उस लड़के को ताजी।” विनोबा की माताजी ने बड़ा मार्मिक जवाब दिया। कहने लगीं—”वह मुझे परमेश्वर स्वरूप दीखता है, तू पुत्र स्वरूप दीखता है। तुझमें मेरी आसक्ति है, इसलिए पक्षपात तो होगा ही। जब तू भी परमेश्वर हो जायेगा तो यह भेदभाव अपने आप बन्द हो जायेगा।”

गायत्री की उच्चस्तरीय साधना-


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