जिन्होंने अपने जीवन का पूर्वार्ध उपभोग कर लिया है, उनका नैतिक एवं धार्मिक कर्त्तव्य है कि वे अपने जीवन का उत्तरार्ध परमार्थपरक समाज-सेवाओं में लगायें, इससे उनकी आत्मा का कल्याण और समाज, राष्ट्र व संसार का हित होगा।
सौ वर्ष की आयु का अनुमान कर मानव-जीवन की सुविधा एवं सार्थकता की दृष्टि से इस आयुष्य-अवधि को दो भागों में विभक्त कर दिया गया है। एक पूर्वार्ध दूसरा उत्तरार्ध। मानव-जीवन का यह विभाजन किन्हीं लौकिक पुरुषों द्वारा नहीं बल्कि शास्त्रों एवं दूरदर्शी ऋषियों द्वारा ही निर्धारित किया गया है।
ऋषियों के आदेशानुसार मनुष्य को चाहिए कि वह जीवन का पूर्वार्ध अर्थात् पचास वर्ष तक की आयु तो समाज में रहकर, समाज के सहयोग से अपनी शक्तियों को विकसित करके संसार को सुखोपभोग करने में व्यतीत करे, पूर्वार्ध में ही गृहस्थी बसाये, बाल-बच्चों तथा घर-बार का पालन करे। धन, मान, बड़ाई तथा अन्य प्रकार की विभूतियों का उपार्जन एवं उपभोग करे। अनन्तर इक्यावन वर्ष से लेकर आयु पर्यन्त का शेष जीवन समाज-सेवा में लगाये और उन उपकारों का ऋण चुकाये जो गृहस्थ-काल में उसने समाज से पाये हैं।
गृहस्थ-जीवन अर्थात् आयु के पूर्वार्ध में मनुष्य की न जाने कितनी आवश्यकतायें होती हैं जिनकी पूर्ति वह समाज की सहायता एवं सहयोग के बल पर ही कर पाता है। अकेला एक मनुष्य अपनी आवश्यकतायें पूरी नहीं कर सकता। सुख-सुविधा के जो भी साधन और जीवन-विकास के जितने उपकरणों की आवश्यकता होती है, उनके प्रस्तुत करने में अगणित लोगों की श्रम-साधना लगा करती है। एक-एक वस्तु तैयार होने और उपयोग की दशा में लाने तक प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से लाखों-करोड़ों लोगों का सहयोग रहा करता है।
यदि दूर-दृष्टि से देखा और गहराई से विचार किया जाये जो पता चलेगा कि मनुष्य पग-पग पर दूसरों से उपकृत होता है। संसार में जिसने जीवन धारण किया है और एक सभ्य मनुष्य की तरह जीवन जिया है वह समाज के अन्य लोगों के उपकार से रहित नहीं हो सकता उसने जीवन में जो और जितना सुख पाया होता है वह एक प्रकार से दूसरों का ही दिया होता है। यद्यपि मनुष्य स्वयं भी इसके लिये परिश्रम एवं प्रयत्न किया करता है तथापि वह अन्य लोगों द्वारा उपकृत हुए बिना नहीं बच सकता। जब तक अन्य लोगों का स्नेह, सद्भाव अथवा साहाय्य प्राप्त नहीं होता परिश्रम एवं प्रयत्न भी कोई फल उत्पन्न नहीं कर पाते। इस प्रकार हर दशा में मनुष्य पर किसी-न-किसी रूप में अन्य असंख्यों लोगों का उपकार चढ़ता रहता है।
इसीलिये ऋषियों ने यह व्यवस्था की कि प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन के पूर्वार्ध में तो समाज की सहायता-सहयोग से अपने जीवन को उन्नत एवं सफल बनाकर साँसारिक सुखों का उपभोग करे और उत्तरार्ध में समाज एवं संसार का उपकार, ऋण चुकाने के लिए संलग्न हो जाये। जीवन के इसी विभाजन की क्रम से गृहस्थ एवं वानप्रस्थ स्थिति कहा गया है। यों तो ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास —चार आश्रमों अथवा जीवन-विभागों का वर्णन है किन्तु आज की परिवर्तित स्थिति में इन चारों आश्रमों को अलग-अलग चला सकना सम्भव नहीं। आज पूर्वकाल जैसे आश्रम एवं गुरुकुल नहीं हैं जहाँ घर से दूर जाकर वटुक रह सकें और ब्रह्मचर्य की साधना के साथ विद्या-लाभ कर सकें और न पूर्वकाल जैसे वनस्थली ही रह गये हैं जहाँ सन्यासावस्था में सुरक्षा पूर्वक रहा जा सके और आत्म-कल्याण की साधना की जा सके। इसीलिये ब्रह्मचर्य-आश्रम को गृहस्थ आश्रम एवं संन्यास आश्रम को वानप्रस्थ आश्रम में ही जोड़कर वास्तविक प्रयोजन को चरितार्थ किया जाये यही उचित है। जिस प्रकार आज बालक घर रहकर ही माता-पिता के अवधान में विद्याध्ययन करता है, वहीं रहकर अपनी शक्तियों एवं योग्यताओं का विकास करता है उसी प्रकार संन्यास स्थिति का पालन समाज-सेवा द्वारा, वानप्रस्थ में ही किया जाये।
यह बात सही है कि सज्जन लोग गृहस्थ-जीवन में भी स्वार्थ के साथ कुछ-न-कुछ परमार्थ करते रहते हैं फिर भी गृहस्थ की परिस्थितियाँ ही कुछ ऐसी होती हैं कि वह लेता अधिक है और देता कम है। जिस अनुपात से सामाजिक सहयोग का ऋण उस पर चढ़ता जाता है उस अनुपात से उसका प्रतिकार नहीं कर पाता और गृहस्थ-जीवन की पूर्ति तक वह इतना अधिक हो जाता है कि उसे चुकाने के लिये उतनी ही अवधि की आवश्यकता होती है। इसीलिये जीवन का पूरा उत्तरार्ध समाज का प्रत्युपकार करने के लिये निश्चित किया गया है।
समाज की सहायता एवं सहयोग के आधार पर संसार का भौतिक सुख लेने और प्रेमपूर्ण पारिवारिक जीवन-यापन करने के लिये पचास वर्ष की अवधि कुछ कम नहीं है। इन पचास वर्षों में मनुष्य गृहस्थ-सुखों को पूरी तरह भोग चुकता है और जब तक बच्चे भी सयाने होकर स्थैर्य प्राप्त कर चुके होते हैं। मनुष्य का पारिवारिक उत्तरदायित्व भी परि मुक्त हो चुका होता है। तथापि यदि कोई उसके आगे भी उसी परिधि में रहकर उसी प्रकार की तृष्णा, वासना एवं एषणा में पड़ा रहना चाहता है तो यह उसका घोरतम स्वार्थ ही होगा। इसका ठीक-ठीक यही अर्थ होगा कि वह आजीवन समाज से कुछ लेता ही रहना चाहता है और उसके उपकार का कोई बदला नहीं चुकाना चाहता है। ऐसे स्वार्थी संसार से उऋण होकर नहीं जाना चाहते। जिसका फल यह होता है कि वे अगले जन्म में गधा, घोड़ा, ऊँट, बैल आदि होकर मनुष्यों का भार ढोकर सेवा-रूप में ऋण चुकाते और नाना प्रकार के कष्ट उठाते हैं।
परमात्मा की इस न्यायपूर्ण सृष्टि में ऋण-भार रोकने की कोई व्यवस्था नहीं है। मनुष्य को संसार का ऋण यदि इस जीवन में नहीं तो अगले जीवन में किसी-न-किसी रूप में दण्ड के साथ ही चुकाना होगा। गधा, घोड़ा, बैल, ऊँट आदि जिन जानवरों को मनुष्यों की सेवा में मरते-खपते देखा जाता है, उन्हें उस जन्म के वे ही व्यक्ति समझना चाहिये जो समाज का ऋण चुकाए बिना संसार से चले गये थे। इसलिये बुद्धिमानी इसी में है कि जिस ऋण को चुकाये बिना निस्तार नहीं, उसे क्यों न इसी जीवन में हँसी-खुशी के साथ चुका दिया जाये।
फिर मानव-जीवन का मात्र उद्देश्य इतना ही तो नहीं है कि खाने-कमाने और मौज-मजा लेने में ही उसे समाप्त कर दिया जाये। जहाँ उस पर पारिवारिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय उत्तरदायित्वों का भार होता है वहाँ अपनी आत्मा का उद्धार करने का सबसे बड़ा कर्तव्य भी उसके कन्धों पर है। यह मानव-जीवन ही एक ऐसा अवसर है जिसका सदुपयोग कर मनुष्य अपने आत्मोद्धार के महान् एवं पुनीत कर्तव्य को पूरा कर सकता है। यदि वह इस स्वर्ण अवसर को वासना-तृष्णा की विभीषिका में पड़कर चूक जाता है तो चौरासी लाख का चक्र उसे न जाने कब तक पूरा करना पड़े और कब उसे दुबारा यह अवसर मिले। इसके विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता। जो मनुष्य तनिक भी विवेकशील होगा वह इस मानव-जीवन के महत्व और इसको गँवा देने की हानि समझकर अपने कर्तव्य पूर्ण करने में तत्काल तत्पर हो उठेगा।
अपना साँसारिक तथा आत्मिक उभय प्रकार का दायित्व सुचारु एवं सुविधापूर्वक निभाने का सबसे सरल एवं समीचीन उपाय यही है कि मनुष्य अपने जीवन का पूर्वार्ध साँसारिक कर्तव्यों में लगाये और उत्तरार्ध संसार की सेवा करने में लगाये। इससे उसका लोक भी बनेगा और परलोक भी। ऋण से उऋण होकर बन्धन से छूट जायेगा।
अधिकतर लोग जीवन के उत्तरार्ध अर्थात् वानप्रस्थ अवस्था में आकर भजन-पूजन तथा जप-तप को ही आत्मोद्धार का साधन मान लेते हैं और इसी पूजा-पाठ को ही वानप्रस्थ का प्रयोजन भी समझते हैं। वानप्रस्थ के लिये जप-तप, पूजा-पाठ, आत्मसंयम एवं मानसिक सन्तुलन के लिये आवश्यक है किन्तु यह उस आश्रम का एकमात्र ध्येय अथवा प्रयोजन नहीं है। वानप्रस्थ का मुख्य धर्म सेवा-धर्म ही है।
जीवन के उत्तरार्ध में वानप्रस्थ लेकर समाज से अलग-अलग होकर केवल पूजा-पाठ अथवा जप-तप करते रहने से सम्भव है कोई आत्मोद्धार की दिशा में थोड़ा-बहुत बढ़ जाये, किन्तु सेवा-कार्यों के बिना पूर्णरूपेण कृत-कृत्य हो सकना सम्भाव्य नहीं समझ पड़ता। व्यक्तिगत पूजा-पाठ करते रहने से संसार अथवा समाज के उस ऋण से उऋण होने की सम्भावना नहीं सहती जो जीवन के पूर्वार्ध में सिर पर चढ़ जाता है वह ऋण तो समाज सेवा द्वारा ही शोधन किया जा सकता है।
जहाँ व्यक्तिगत पूजा-पाठ में समाज-सेवा का समावेश नहीं रहता वहाँ समाज-सेवा में जनता-जनार्दन की परिचर्या करने, विश्व-विराट की संराधना करने में भजन-पूजन का भाव सन्निहित रहता है। भजन शब्द ‘भज्’ धातु से बना है, जिसका अर्थ सेवा ही होता है। जिस विधान में सेवा सम्मिलित नहीं, वह न तो पूजा है और न आराधना। वानप्रस्थ आश्रम का मूल प्रयोजन भी समाज सेवा ही है। विषय-वासनाओं एवं पारिवारिक उत्तरदायित्व से मुक्त होकर ही कोई मनुष्य निःस्वार्थ भाव से समाज-संराधना के कार्यक्रमों में योगदान कर सकता है। यदि समाज की रखवाली करने वाले उसे ठीक दिशा दिखलाने और दुष्प्रवृत्तियों से सावधान करने वाले अनुभवी व्यक्ति आगे न बढ़ते रहें तो निश्चय ही मानव-समाज कुछ ही समय में भयानक रूप से पतित हो जाये और ऐसी अवस्था में मनुष्य की क्या दशा हो जाये, कुछ नहीं कहा जा सकता। निस्पृह, निस्वार्थ, निष्काम, अनुभवी एवं परितृप्त व्यक्ति ही समाज की रखवाली ठीक तरह से कर सकते हैं और ऐसे साधु पुरुष वे वानप्रस्थी ही हो सकते हैं जो पारिवारिक उत्तरदायित्व मुक्त होकर उस अवस्था में आ गये हैं जिसमें वितृष्णाओं की कमी हो जाती है और वे किसी रूप में शोभा नहीं देतीं।
अस्तु, मनुष्यों का पावन कर्तव्य है कि वह पचास वर्ष की आयु होने पर वानप्रस्थ धर्म में दीक्षित होकर सामाजिक ऋण से उऋण होवें। समाज का प्रहरी बनने और आत्मा की मुक्ति के लिए निस्पृह भाव से निरन्तर लोक-सेवा के कामों में निरत होकर मानव-जीवन को सार्थक बनाएँ।