आत्मोन्नति के लिए परिपुष्ट शरीर की आवश्यकता

September 1966

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स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ आत्मा का निवास होता है यह कथन अक्षरशः सत्य है। जिसका शरीर स्वस्थ होगा उसकी आत्मा भी स्वस्थ एवं समुन्नत होगी। स्वस्थ आत्मा के लिए शरीर का स्वस्थ होना आवश्यक है।

स्वस्थ आत्मा के लक्षण हैं साहस, शौर्य, वीरता, धीरता, स्थिरता, शान्ति, सन्तोष, प्रसन्नता, प्रफुल्लता एवं असंकीर्णता आदि दैवी सात्त्विकी अथवा आध्यात्मिक गुणों का बाहुल्य। जिन व्यक्तियों में इन गुणों की अभिव्यक्ति पाई जायेगी, उनकी आत्मा को स्वस्थ ही कहना होगा। इसके विपरीत जो कायर है, अधैर्यवान्, भीरु, दीन-हीन एवं मलीन है वह स्वस्थ आत्मा वाला नहीं माना जा सकता। आत्मा को स्वस्थ बनाने अथवा स्वस्थ आत्मा पाने के लिये जिन गुणों की आवश्यकता है उनमें प्रथम स्थान स्वस्थ शरीर का ही है। शरीर के पूर्ण रूप से स्वस्थ होने से बाहर भीतर चारों और सामर्थ्य ही सामर्थ्य दृष्टिगोचर हुआ करती है।

संसार के प्रत्येक क्षेत्र में स्वस्थ शरीर की अनिवार्य आवश्यकता है। उपार्जन से लेकर भोजन तक और संघर्ष से लेकर मनोरञ्जन तक ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है जिसमें अस्वस्थ शरीर व्यक्ति सफलता एवं सार्थकता पूर्वक बरत सकें। किसान से लेकर क्लर्क तक और उद्योगपति से लेकर श्रमिक तक-यदि वह शरीर से स्वस्थ एवं समर्थ नहीं होगा तो अपना उपार्जन क्रम नहीं चला सकता। यदि रो-झींक कर चलाता भी है तो उसका काम सुन्दर एवं सन्तोषजनक नहीं हो सकता। अस्वस्थ-शरीर व्यक्ति अधिक दिनों तक उपार्जन के क्षेत्र में नहीं डट सकता। शीघ्र ही वह या तो रोगी होकर चारपाई पकड़ लेगा अथवा पूर्ण रूप से क्षीण होकर क्षय हो जाएगा। बहुत से अस्वस्थ व्यक्ति खाते कमाते देखे जाते हैं। किन्तु उनके खाने कमाने में कोई रस अथवा कोई आनन्द नहीं होता। वे मुर्दों की तरह कमाते और उन्हीं की तरह ही जीते हैं।

यह भी सम्भव हो सकता है कि ऐसे अनेक अस्वस्थ व्यक्ति हों जिनके काम करने वाले नौकर चाकर हों, पुत्र व पौत्र हों और उनको उपार्जन के लिए किसी प्रकार की चिन्ता न करनी पड़ती हो, तब भी ऐसे परावलम्बी व्यक्ति जीवन का कोई सुख नहीं पा सकते। परावलम्बी, पराश्रित अथवा परमुखापेक्षी व्यक्ति की आत्मा दीनहीन तथा मलीन होकर मर तक जाती है। सन्तान वाला होकर भी अनाथ और धनवान होकर भी भिखारी जैसा बना रहता है। पर-निर्भर, सो भी शारीरिक निर्भरता वाला व्यक्ति ऊपर से कितना ही अभिमान, मान, गुमान अथवा स्वाभिमान क्यों न दिखलाये किन्तु वह सब उसका आडम्बर मात्र ही होता है। उसका मन, उसकी आत्मा अन्दर ही अन्दर रोया, सिसका करती है।

जीवन का आधार कहा जाने वाला भोजन अस्वस्थ शरीर व्यक्ति के लिए विष होता है। वह जो कुछ खाता है अजीर्ण बन जाता है, यों ही पेट के बाहर निकल जाता है अथवा अन्दर ही अन्दर रुककर सड़ा करता और कष्ट बढ़ाया करता है। बहुत कुछ खाने-पीने को होने पर भी जब असमर्थ शरीर व्यक्ति दो ग्रास रुचिकर भोजन करने के लिये तरसता है तब उसके आत्मा की क्या दशा होती है इसे तो भुक्त -भोगी ही जान सकते हैं।

अन्य सुख तो दूर की चीज है। असमर्थ व्यक्ति निद्रा सुख से भी वञ्चित रहता है। अस्वस्थ व्यक्ति को- अनेक चिन्तायें, पीड़ायें, तथा वेदनायें घेरे रहती हैं। इस कारण उसे रात में नींद नहीं आती। जब सारा संसार मौज से मीठी तथा गहरी नींद सोता है और असमर्थ व्यक्ति अनिद्रा का आखेट बना तारे गिनता रहता है तब उसकी आत्मा पर क्या बीतती है यह भी कोई भुक्त-भोगी ही जान सकता है। भोजन, नींद, श्रम एवं स्वावलंबन के सुख से वञ्चित असमर्थ शरीर वाला व्यक्ति आध्यात्मिक क्षेत्र में कौन से तारे तोड़ सकता है, कितनी उन्नति कर सकता है, कितना आगे बढ़ सकता है—इसका उत्तर केवल नकारात्मक ही हो सकता है।

आत्मोन्नति के इच्छुक अध्यात्मवादियों की सबसे प्रमुख एवं प्रथम साधना यह है कि वे अपने शरीर को पूर्ण रूप से स्वस्थ एवं पुष्ट बनायें। जो असमर्थ व्यक्ति साधारण तम दैनिक श्रम नहीं कर सकता—अपने जीवन संकट को ठीक से नहीं खींच सकता वह साधन समर में आवश्यक संयमों का निर्वाह कर सकेगा—काम, क्रोध, मोह, लोभ, ईर्ष्या, डाह आदि शत्रुओं से डटकर मुकाबला कर सकेगा ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती। साधन समर के लिये स्वस्थ एवं पुष्ट शरीर की अनिवार्य आवश्यकता है जिसे पूरा किये बिना कोई भी व्यक्ति अध्यात्म पथ पर एक कदम भी नहीं बढ़ सकता। “स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ आत्मा रहती है” यह तथ्य किसी भी आध्यात्मिक जिज्ञासु को नहीं भूलना चाहिए।

निर्बल शरीर व्यक्ति बहुधा चरित्रहीन भी हुआ करते हैं। उनकी शारीरिक निर्बलता ही इस बात का विज्ञापन है कि यह व्यक्ति पूरी तरह सदाचारी नहीं है। बहुत बार लोग किसी रोग का शिकार होकर क्षीणकाय हो जाते हैं। किन्तु वह रोग भी उनको किसी अनियमित आहार-विहार के दण्ड स्वरूप ही मिलता होता है। आहार-विहार तथा आचार-विचार का असंयम स्वयं में ही एक असदाचार है एवं चरित्र-हीनता है। हीन-चरित्र अथवा आचरण रहित व्यक्ति यदि उस आध्यात्मिक दिशा में बढ़ना चाहता है, जिसमें अखण्ड आत्मबल एवं सदाचरण की आवश्यकता है तो वह दिन में स्वप्न देखता है, इस प्रकार के तेजस्वी चरित्र को क्षीण अथवा दीनहीन शारीरिक अवस्था वाला नहीं पा सकता।

आवेग, आवेश, आक्रोश एवं आतुरता आध्यात्मिक पथ पर लगने वाले बड़े क्रूर डाकू हैं। यह डाकू, कठिनता से कमाई हुई मानसिक शान्ति अथवा स्थिरता को क्षण भर में ही लूटकर साधक को निर्धन एवं निर्बल बना देते हैं। यह दस्यु किस समय किस पर आक्रमण कर सकते हैं इसका कोई ठिकाना नहीं। विश्वामित्र, ययाति, पाराशर तथा दुर्वासा आदि महान आध्यात्मिक साधक जब इनके शिकार बन सकते हैं तब साधारण-जन जो तिल-तिल कर उस पथ पर बढ़ पाते हैं इन क्रूर एवं असामयिक पथ-पिंडारियों से सुरक्षित रह सकते हैं, ऐसी आशा आत्मप्रवंचना ही मानी जायेगी।

असमर्थ एवं अस्वस्थ शरीर व्यक्ति स्वभाव से ही आवेश प्रधान होते हैं। निर्बल का क्रोधी होना चिर प्रसिद्ध है। जरा-सी बात पर उत्तेजित हो उठना, तनिक-सी प्रतिकूलता देखकर आवेश में आ जाना, अणुमात्र अप्रियता से क्रोधग्रस्त हो जाना और बिन्दु भर विषमता से बड़ी सीमा तक चिन्तित हो उठना निर्बल व्यक्तियों का विशेष अवगुण होता है। असमर्थ शरीर आलस्य, प्रमाद तथा काम विकार का स्थायी निवास होता है। अस्वास्थ्य के कारण भली प्रकार न पचने वाले भोजन का रस-रक्त कामुक प्रवृत्ति को उत्तेजित करने वाला ही होता है। इतने अधिक और विषैले कृमि कीटों के लगे रहने पर किसी की आध्यात्मिक कृषि फलीभूत हो सकती है ऐसा विश्वास किसी प्रकार भी नहीं किया जा सकता। आध्यात्मिक उन्नति करने के लिये जिस निर्मलता, निर्विकारता एवं निर्मयता की आवश्यकता है वह शरीर को संबल, स्वस्थ एवं समर्थ बनाकर ही पायी जा सकती है। दीन-हीन, क्षीण तथा निर्बल शरीरावस्था में नहीं।

“अभय” आध्यात्मिक उन्नति का महत्वपूर्ण आधार है। अथवा यों भी कहा जा सकता है कि ‘अभय स्थिति’ प्राप्त करना ही आध्यात्मिक साधना का लक्ष्य है। जिसे शत्रु-भय, अस्वास्थ्य भय, मृत्यु भय, अयश भय, हानि भय, विछोह भय आदि सताते रहते हैं वह एक प्रकार से जीते जी नरक में पड़ा रहता है। भय, चिन्ताओं को जन्म देने वाला विष बीज है। जिसके हृदय में चिन्ता की ज्वाला जल रही है जिसकी बुद्धि विविध प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष भयों से भ्रमित हो रही है, वह आध्यात्मिक पथ पर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता। इन्हीं भवभयों पर विजय पाना ही आध्यात्मिक साधना का लक्ष्य है। भयों से मुक्त हो जाने पर मनुष्य की आत्मा एक अनिवर्चनीय सुख शाँति की अनुभूति पाती है—एक ऐसी निःशंक सुख शाँति की अनुभूति जो ब्रह्मानन्द के समकक्ष ही होती है।

अभय का अभ्यास समर्थ शरीर द्वारा ही सम्भव है। शरीर में शक्ति एवं ओज-तेज रहने से मनुष्य का मनोबल भी बढ़ता है। उसे विश्वास रहता है कि वह किसी भी समय परिश्रम पुरुषार्थ एवं सहन शक्ति के बल पर किसी भी प्रतिकूलता का मुकाबला सफलतापूर्वक सकर सकता है। किसी दुष्ट के आ जाने पर उससे निपट सकता है। शत्रु के आने पर टक्कर ले सकता है, संकट के आने पर स्थिर रह सकता है और आपत्ति में फँस जाने पर अपना संतुलन बनाए रह सकता है। उसे कभी भी यह शंका नहीं रहती कि संसार की कोई भी विषम परिस्थिति उसको विचलित कर उसका बाल भी बाँका कर सकती है। सच्चा सामर्थ्य भरे पूरे शरीर वाले की हिम्मत, हौसला तथा साहस बहुत बढ़ा चढ़ा देता है। शारीरिक सामर्थ्य के अभाव में मनोबल तथा आत्मविश्वास की सम्भावना दूर की बात है। असमर्थ व्यक्ति जीवन में पल-पल पर त्रस्त, व्यग्र आतुर तथा शंकाकुल ही रहा करते हैं और यदि कभी वे किसी कारणवश कोई साहस भी कर बैठते हैं तो बहुधा उन्हें पराजय, अपमान, तिरस्कार अथवा असफलता का सामना करना पड़ता है जिससे उनकी आत्मा पर अन्धकारपूर्ण प्रतिक्रिया ही होती है। ऐसी स्थिति में आत्मा की उन्नति तो दूर उल्टा पतन ही होता है।

आध्यात्मिक उन्नति के लिए जिन साधनाओं एवं साधनों की आवश्यकता है उनमें शरीर रूपी साधन को सक्षम, समर्थ एवं सुयोग्य बनाने के लिए स्वास्थ्य-साधना की प्रमुख एवं प्रथम आवश्यकता है। शरीर को स्वस्थ, सबल एवं सक्षम बनाने सात्विक आहार, इन्द्रिय संयम मानसिक संतुलन, व्यवस्थित दिनचर्या के अतिरिक्त उचित मात्रा में शारीरिक श्रम करना भी है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए व्यायाम आवश्यक है। श्रम करने को तो यों सभी लोग कुछ न कुछ शारीरिक श्रम करते रहते हैं। किसान तथा मजदूर तो केवल शारीरिक श्रम के आधार पर ही अपनी जीविका कमाते हैं। एकमात्र शारीरिक श्रम को ही, स्वास्थ्य का आधार मान लेना गलत है। किसी रूप में केवल शारीरिक श्रम करते रहने से ही व्यायाम की पूर्ति नहीं हो सकती । कार्य श्रम तथा व्यायामिक श्रम में जो भेद है वह यह है कि साधारण क्रियाशीलता के श्रम में स्वास्थ्य सम्वर्धन की भावना नहीं रहती जबकि व्यायामिक श्रम में एक इसी भावना का समावेश रहता है। स्वास्थ्य सम्वर्धन की भावना से रहित श्रम से वाँछित स्वास्थ्य की उपलब्धि नहीं हो सकती। व्यायाम केवल शारीरिक श्रम नहीं—वरन् शारीरिक श्रम तथा मानसिक भावना के सम्मिश्रण का नाम है। शरीर तथा मन दोनों के संमिश्रण पर जो नियमित एवं विधिपूर्वक श्रम किया जाता है उसे ही व्यायाम की संज्ञा दी जाती है और वही परिश्रम मनुष्य को स्फूर्ति, प्रेरणा, शक्ति, सामर्थ्य, साहस, उत्साह, प्रसन्नता, मनोबल तथा आत्मविश्वास प्रदान कर सकता है जिसके आधार पर अध्यात्म मार्ग के सहायक गुण ‘अभय’ एवं उल्लास को प्राप्त किया जा सकता है।

अनेक लोग बढ़िया, पौष्टिक भोजन की प्रचुरता को स्वास्थ्य एवं शारीरिक बल का आधार मानते हैं। ऐसा विश्वास रखने वाले भी इस दिशा में अन्धेरे में ही भटकते कहे जायेंगे। दूध, धी, मक्खन, मलाई, मेवा और फूलों को अधिक से अधिक खाते रहने से ही कोई स्वस्थ एवं सबल नहीं हो सकता। स्वास्थ्य के लिये महत्वपूर्ण यह नहीं है के हम क्या और कितना खाते हैं? स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण यह है कि हम क्या खाते और कितना पचाते हैं? यह बात सही है कि गरिष्ठ, असात्विक तथा अवाँछनीय भोजन अस्वास्थ्यकर होता है किन्तु वह सात्विक भोजन भी तामसी अवगुण में बदल जाता है जो पूरी तरह से पचाया नहीं जाता।

भोजन को पूरी तरह पचाने और उसका शक्ति तत्व आत्मसात् करने के लिये व्यायाम के रूप में शारीरिक श्रम करना बहुत आवश्यक है। व्यायाम के अभाव में बढ़िया, पौष्टिक एवं स्वास्थ्य दायक भोजन भी अपच बनकर शरीर को हानि पहुँचाएगा, जबकि व्यायाम श्रम द्वारा पूरी तरह पचाया हुआ सस्ता तथा ज्वार जैसा साधारण अन्न तक उन सब आवश्यकताओं की पूर्ति कर देगा, शारीरिक स्वास्थ्य एवं सामर्थ्य के लिए जिनकी अपेक्षा है।

इससे उसकी शारीरिक शक्ति बढ़ेगी, भोजन तथा आत्म-विश्वास की उपलब्धि होगी आध्यात्मिक मार्ग के संयमों, नियमों तथा कठिनाइयों की सहन करने की क्षमता प्राप्त होगी, अभय की सिद्धि होगी जो कि भवभय से मुक्त करने में सहायक होगी।


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