मृत्यु हमारे जीवन का अनिवार्य अतिथि

September 1966

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संसार के सबसे बड़े आश्चर्य-सम्बन्धी प्रश्न का उत्तर देते हुये धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा था—”संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि नित्य प्रति दूसरों को मरते देखकर भी मनुष्य अपनी मृत्यु में विश्वास करने को तैयार नहीं होता। वह समझता है कि और कोई भले ही मरे पर वह सदा सर्वदा धरती पर बना रहेगा।”

निःसन्देह यह एक बहुत बड़ा आश्चर्य है कि नित्य प्रति अनेकों को मृत्यु-मुख में जाते देखकर हम अपने सम्बन्ध में मृत्यु-मुख में जाते देखकर हम अपने सम्बन्ध में मृत्यु को अवश्यम्भावी मानने को तैयार नहीं होते। हर मनुष्य अपने पूर्व पुरुषों की एक लम्बी परम्परा में चला आ रहा है और यह जानता है कि उसके पूर्व पुरुष उसी की तरह इस पृथ्वी पर वर्तमान थे पर आज उनमें से कोई भी नहीं है। सब ही मृत्यु के मुख में समाकर इस धराधाम से नाता तोड़ गये। पूर्व पुरुषों की इतनी लम्बी शृंखला जब मिटती चली आई है तब हम में ही ऐसी कौन सी विशेषता है कि मृत्यु, पूर्व पुरुषों की तरह, एक दिन, हम को भी अपना मेहमान न बना लेगी। हर मनुष्य को एक दिन मृत्यु का मेहमान बनना ही होगा। परमात्मा का यह अटल नियम किसी के लिये भी अपवाद नहीं बन सकता।

सोचने की बात है कि यदि मनुष्य के लिये, परमात्मा ने मृत्यु का अनिवार्य प्रतिबन्ध न लगाया होता तो क्या आज तक पृथ्वी पर इतनी जनसंख्या न हो जाती कि इस धरती पर तिल रखने की भी जगह न रहती। तब कहाँ तो मनुष्य रहता, कहाँ खेती करता और कहाँ जीविका के अन्य साधन स्थापित करता? वह अनन्त तम जनसंख्या क्या खाती, क्या पीती और क्या पहनती? आज जब मृत्यु का अनिवार्य प्रतिबंध लगा हुआ है, हजारों लाखों मनुष्य नित्य संसार खाली करते जो रहे हैं तब तो जन संकुलता की वृद्धि ने मानव समाज के सामने भोजन, वस्त्र तथा निवास की समस्या विकट रूप में खड़ी कर दी है। यदि मृत्यु का प्रतिबन्ध न रहा तो इस संसार, इस मानव समाज की क्या दशा हो जाती इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती और यदि आज भी यह प्रतिबंध उठा लिया जाय तो कुछ ही समय में हम सब की क्या दुर्दशा हो जाये, क्या इसका अनुमान कोई कर सकता है?

जब मरने का भय हर समय सिर पर सवार रहता है, साथ ही किस समय मृत्यु आ सकती है इसका भी पता नहीं तब तो मनुष्य अपने लिये न जाने कितना संग्रह करता रहता। वह सब उसे किसी समय भी छोड़ देना पड़ सकता है। दिन रात चोरी, मक्कारी ठगी, छीना झपटी, शोषण आदि कुकृत्यों द्वारा दूसरों को, दिन-रात रिक्त करने में जुटा रहता है। यदि उसे अमरता का आश्वासन मिल जाये तो लिप्सालु मनुष्य कितना प्रचंड पिशाच बन जाये यह कह सकना कठिन है।

मृत्यु की अनिवार्यता की स्थिति में तो मदोन्मत्त व्यक्ति नित्य नये ध्वंस रचता एक दूसरे को खा जाने की कोशिश करता रहता है सदा जीवी होने पर उसकी उद्धतता न जाने क्या कर डालती! संसार में हर ओर हर समय केवल रक्तपात ही होता दिखाई देता। न कहीं कोई मनुष्य शाँतिपूर्वक सृजन करता दिखाई देता और न भजन करता।

यदि मृत्यु न होती तो पुराने स्थान छोड़ते नहीं और नये उन्हें पाना चाहते—इस स्थिति में हर समय नये पुराने का संग्राम छिड़ा रहता। पिता-पुत्र को और पुत्र अपने पुत्र को अपना स्थान अथवा उत्तराधिकार देने को तैयार न होता। लोग अपने अनन्त जीवन यापन की आवश्यक वस्तुओं में से एक कण तक अपने आश्रितों अथवा सन्तानों को देने में झिझकते। आत्म यापन की चिन्ता एवं आवश्यकता के दबाव में लोग कितने स्वार्थी एवं कितने संग्राहक और कितने कृपण हो जाते क्या, किसी प्रकार इसका अनुमान लगाया जा सकता है? चिरस्थायी जीवन पाकर मनुष्यों में एक दूसरे के प्रति त्याग, सहानुभूति, सौहार्द्रय, सहयोग, सहायता, स्नेह, सौजन्य एवं आत्मीयता का कोई भाव रहता ऐसी आशा नहीं की जा सकती।

संसार में जो नव लता एवं नवीनता के दर्शन होते हैं, जिस सरसता एवं सुन्दरता की अनुभूति होती है वह सब पूर्वापूर्व के गमनागमन की प्रक्रिया के कारण ही दिखाई देती है। यदि इस पावन प्रक्रिया का प्रभाव न रहा होता तो पट परिवर्तन के अभाव में विश्व रंगमंच पर चलने वाला यह जीवन-नाटक एकरसता, एकरूपता एवं एक दृश्यता के कारण कितना नीरस, कितना अरुचिकर, कितना अप्रिय, कितना बोझिल और कितना असह्य हो जाता—इसका उत्तर, मनुष्य अपनी नव-रुचि एवं परिवर्तन-प्रिय वृत्ति से पूछ सकता है।

जीवन के किंचित समय में ही मनुष्य न जाने कितनी बार, कितनी तरह की अतिव्याधी ईति, भीति दुःख, दारिद्रय एवं शोक संतापों का शिकार बनता रहता है और कष्ट क्लेशों से घबराकर मृत्यु माँगने लगता है—यदि उसे समापन शून्य निर्विराम जीवन मिल जाये तब उसकी यातनायें कितनी दीर्घ जीवनी हो सकती हैं क्या मृत्यु से द्वेष मानने वाले मनुष्य कभी इस पर विचार करते हैं? संसार में हर मनुष्य अपनी बारी में जो कुछ सुख-शान्ति, साधन-सुविधा अथवा रसानुभूति पा रहे हैं, अथवा जो अपनी बारी में पा चुके हैं और जो आगे पायेंगे वह सब मृत्यु के अनिवार्य प्रतिबंध के कारण ही सम्भव हुआ है और होगा। यदि यह प्रतिबन्ध न रहा होता या आज उठ जाये तो हमारा यह संसार रौरव नरक से भी भयानक, बन जाये—इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है। मृत्यु मनुष्य के लिये एक मैत्रीपूर्ण वरदान है। इसे परमात्मा की असीम अनुकम्पा समझकर उसे बार-बार धन्यवाद देकर कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए।

मृत्यु से भयभीत होने वाले लोगों में अधिकतर वे ही लोग होते हैं जो जीवन को उस प्रकार नहीं जीते जिस प्रकार एक मनुष्य को जीना चाहिये। अकरणीय एवं दण्डनीय कर्मों की गठरी तैयार कर लेने वाला स्वभावतः भयभीत होगा ही। क्योंकि वह अच्छी तरह जानता है कि उसने ऐसे-ऐसे कार्य किये हैं जो माफ नहीं किये जा सकते और इसके लिये उसे परलोक में सजा पानी है। जीवन रहने तक वे उस यातना से बचे रह सकते हैं—इसी लिये मृत्यु की कल्पना तक से काँप उठते हैं।

यद्यपि कुकर्मों का कुफल मनुष्य को विविध प्रकार के रोग, शोक और अयश अपवाद के रूप में जीवन काल में भी भोगना पड़ता है और कभी-कभी कानून के शिकंजे में फँसकर भी दण्ड भोगना पड़ता है, किन्तु मनुष्य के कुकृत्यों का भोग यहाँ ही पूरा नहीं हो जाता। उन सबको पूरी तरह से परलोक में ही भरना पड़ता है। बहुत से कुकृत्य इस प्रकार के होते हैं जो मनुष्य अपनी चतुराई से समाज अथवा कानून से छिपाये रहता है और बहुतों के दण्ड से परिस्थिति अथवा संयोगवश बच जाया करता है। किन्तु जीवन के पश्चात् परलोक में क्या प्रत्यक्ष और क्या अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार के कर्मों का पूरा लेखा जोखा चुका लिया जाता है।

जिसने इस प्रकार का कुप्रबंध कर रखा है उसे तो मृत्यु से डर लगेगा ही। पर उसे मृत्यु से भला डर क्यों लगने लगा जिसने मन, वचन, कर्म से अपने जीवन को यथासाध्य ईमानदारी से पवित्र एवं निष्कलंक रखने का पूरा-पूरा प्रयत्न किया है। और यदि संयोग, प्रारब्ध, परवशता अथवा परिस्थितिवश जाने—अनजाने कोई अकृत्य कर भी गया है, तो उसके लिये उसके हृदय में खेद, पश्चाताप तथा आत्मग्लानि हुई है और आगे के लिये और भी सावधान हो गया है। ऐसे सावधान सुकृती को मृत्यु से कभी भय नहीं लगता। क्योंकि वह जानता है कि उसने ऐसा कोई काम नहीं किया जिसके लिये उसे परलोक में दण्ड पाना होगा।

मृत्यु से भयभीत होने वालों में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो जीवन की लंबी अवधि को आलस्य, विलास अथवा प्रमाद में गँवा देते हैं—यहाँ तक कि अपने सामान्य कर्तव्यों तथा आवश्यक उत्तरदायित्व को भी ठीक से नहीं निभाते। जब ऐसे लोगों को मृत्यु की याद आती है तब वे शोक करते हुये सोचने लगते हैं कि मैंने अति दुर्लभ मानव जीवन को यों ही व्यर्थ में गँवा दिया है। यदि इसका ठीक ठीक मूल्याँकन किया होता तो न जाने कितना क्या कर सकता था। अब मृत्यु का झोंका आकर मुझे ले जायेगा और हाथ मलते हुए इस संसार से जाना होगा। इस प्रकार के आलसी एवं असावधान व्यक्ति पश्चाताप की आग में जलते हुये अमृत्यु मनाया करते हैं और चाहते हैं कि यदि उनको दीर्घ जीवन की गारन्टी मिल जाये तो वे अब भी कुछ कर डालें। किन्तु खेद है कि उनको इस प्रकार की कोई गारन्टी नहीं मिल सकती। पर इससे भी ज्यादा खेद एवं आश्चर्य की बात यह होती है कि वे पश्चाताप में जलते हुये मृत्यु-चिन्ता से भयभीत तो होते रहते हैं किन्तु शेष जीवन को पूरी तरह से करणीय कार्यों में नहीं डुबा देते, जिससे जो कुछ थोड़ा बहुत-लोक परलोक बन सके, वही सही। यदि आज भी वे जितनी चिन्ता मृत्यु की और जितनी कामना अधिक जीवन की किया करते हैं, यदि उतनी चिन्ता अपने कर्तव्यों के लिये करें और पूरक गति से काम में जुट जावें तो सम्भव है उनकी तन्मयता एवं तीव्रता विगत जीवन की क्षतिपूर्ति कर दे। किन्तु दुर्भाग्य है कि दिन-दिन आलस्य, विलास एवं प्रमाद का अभ्यासी मृत्यु की चिन्ता करने के अतिरिक्त कुछ करना नहीं चाहता।

धोखे से आना तो दूर यदि कहकर भी आये तब भी मृत्यु उन कर्मवीरों को भयभीत नहीं कर सकती जिनका अणु-क्षण अपने पावन कर्तव्यों में आत्मविभोर होकर निमग्न रहता है। उन्हें जब अपने काम के सम्मुख दीन-दुनिया की खबर ही नहीं रहती तब भला मृत्यु जैसे निरर्थक विषय पर विचार करने के लिये न तो उनके पास फालतू समय ही होता है और न मस्तिष्क ही। कर्तव्यवान व्यक्ति दिन−रात जिन्दगी के मुखर मार्गों में ही विचरण किया करता है मृत्यु की सुनसान दरीचियों की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता। अकर्मण्यता, निष्क्रियता एवं अकर्तव्य शीलता मृत्यु की सबसे बड़ी स्मारिकायें हैं। इनको समीप न आने देने वाला कर्मवीर मृत्यु से डरना तो दूर उसकी याद तक नहीं करता।

धर्मवीर तो मृत्यु के नाम से पुलकित हो उठता है। जिसने सत्कर्मों द्वारा सुकृत की पूँजी जमा कर रक्खी है, धर्म धन का सम्बल संचय कर लिया है उसके लिये मृत्यु तो परलोक का निमंत्रण होता है जहाँ उसके सत्कर्मों के पुरस्कार प्रतीक्षा किया करते हैं। जिसने अपने जीवन में परमार्थ पुण्य का पथ प्रशस्त किया है, अध्यात्म का चिन्तन एवं परमात्मा का स्मरण किया है उसकी आत्मा तो स्वयं ही शरीर बंधन से मुक्त होने के लिये व्यग्र रहती है। वह सोचती है कि कब उसकी शरीर यात्रा समाप्त हो और कब वह पिंजड़े से छूटे पक्षी की तरह मोक्ष की ओर उड़ान भरे।

अडिग, अनिवार्य एवं आवश्यक सत्य मृत्यु से डरना क्या। बल्कि उसकी कल्पना से तो मनुष्य को अधिकाधिक सक्रिय होकर अपने लोक-परलोक को बनाने के लिये तीव्रता से तत्पर हो जाना चाहिये। उसे अपने सुकृत कार्यों को यह सोचकर बढ़ा देना चाहिये कि न जाने अतिथि, अनाहूत एवं अपूर्वज्ञात मृत्यु कि किस समय आ जाये। उसके आने से पूर्व वह सब कुछ कर ही डालना चाहिये जो कि करना है और हमारे करने योग्य है।


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