अधर्म की जननी—नास्तिकता

September 1966

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चौकड़ी भरते हुये मृग जब सिंह के सम्मुख होते हैं तो उनकी सारी शक्ति अपंग हो जाती है। दौड़ लगाना तो दूर वे दाहिने-बायें देख भी नहीं सकते। कोतवाल को देखकर चोर की सारी हेकड़ी भूल जाती है। जेलों के कैदी वार्डनो के डंडों की खटक सुनते ही चुपचाप अपने काम से लग जाते हैं। शेर, कोतवाल अथवा वार्डन के न रहने पर जिस प्रकार मृग, चोर या कैदी ऊधम करते या मनमानी बरतने लगते हैं नास्तिक व्यक्ति भी प्रायः वैसे ही स्वेच्छाचारी होते हैं। मनुष्य की अधोगामी वृत्तियों पर नियंत्रण रखने के लिये वह शक्ति परमात्मा ही हो सकता है जिसे सर्वव्यापी समझकर मनुष्य पाप और अधर्म की ओर पाँव बढ़ाने से घबड़ाता है।

ईश्वर के अस्तित्व को संसार के प्रायः सभी धर्मों में स्वीकार किया गया है और उसकी शक्तियाँ एक जैसी मानी गईं है। उपासना, पूजा-विधि और मान्यताओं में थोड़ा-बहुत अन्तर हो सकता है और समाज की विकृत अवस्था का उन मान्यताओं पर बुरा असर भी हो सकता है जिससे किसी भी धर्म के लोग नास्तिक जैसे जान पड़े पर सामाजिक एकता, संगठन, सहयोग, सहानुभूति आदि अनेक सद्प्रवृत्तियाँ तो उन जातियों में भी स्पष्ट देखी जा सकती हैं जो जातियाँ ईश्वर के प्रति अधिक निष्ठावान होती हैं उनमें आत्म-विश्वास, कर्तव्यपरायणता, त्याग, उदारता आदि भव्य गुणों का प्रादुर्भाव भी देखा जा सकता है। ईश्वर में विश्वास का वैज्ञानिक आधार समझ में न आये तो भी मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी इतना—महत्वपूर्ण होता है कि सामाजिक जीवन में सभ्यता और सदाचार की पर्याप्त मात्रा बनी रहती है और उससे जातियों के जीवन सुविकसित, सुखी और सम्पन्न बने रहते हैं।

भारत की आदि संस्कृति और यहाँ की प्राचीन प्रणाली की गहन गवेषणा पर उतरें तो यहाँ की सम्पूर्ण सम्पन्नता, वैभव और ऐश्वर्य, सुख-सम्पत्ति और व्यापार आदि में समुन्नति, व्यक्तिगत जीवन में गुण और चरित्र निष्ठा आदि का मुख्य कारण यहाँ पर ईश्वर के प्रति अगाध आस्था को ही माना जा सकता है। इस विश्वास के ठोस तर्क और प्रमाण भी थे जो आज भी हैं किन्तु उन दिनों लोग उन तर्कों पर गम्भीरतापूर्वक विचार और विवेचन करते थे, ज्ञान की साधना के आधार पर यहाँ का बच्चा-बच्चा उस पर मेक तत्व के प्रति अटूट भक्ति रखता था, उसे सर्वज्ञ, सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान मानते थे; फलस्वरूप उनके आचरण भी उतने सुन्दर थे। अधर्म और पापाचार की बात मन में लाते हुये भी उन्हें डर होता है। उन दिनों भारत-भूमि स्वर्ग तुल्य रही हो तो इसमें आश्चर्य की कौन सी बात। धर्मशील के पास सम्पदाओं की क्या कमी। स्वर्ग का महत्व भी तो इसी दृष्टि से है कि वहाँ किसी प्रकार का भाव नहीं है।

आज भौतिक विज्ञान का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेने के कारण लोग ईश्वर के अस्तित्व को मानने से इनकार करने लगे। इतना ही नहीं वे धर्म और आध्यात्म की हँसी भी उड़ाते हैं। उनकी किसी भी बात में न तो विचार की गहराई होती है और न बौद्धिक चिन्तन। हमारा आज का समाज इतना हल्का है कि वह विचारों की छिछली तह पर ही इतरा कर हर गया है। आत्मिक ज्ञान और संसार के वास्तविक सत्य को जाने बिना मनुष्य का ज्ञान अपूर्ण ही कहा जा सकता है। जिसे अपने आपका ज्ञान न हो जो केवल अपने शरीर, हाड़ माँस रक्त, मुँह, नाक, कान, हाथ आदि की बात तो सोचे , पर प्राण तत्व के सम्बन्ध में जिसको कुछ भी न मालूम हो उसके भौतिक विज्ञान के ज्ञान को पागलों की सी ही बातें ठहराई जा सकती हैं।

सामाजिक जीवन में सत्यता और पवित्रता अक्षुण्ण रखने के लिये आस्तिकता एक महत्वपूर्ण उपचार सिद्ध हुआ। ईश्वर की सर्वज्ञता पर जिसे विश्वास होगा उसे उसकी न्यायप्रियता पर भी भरोसा होगा और वह ऐसा कोई भी कार्य करने से जरूर डरेगा जिससे मानवीय सिद्धान्तों का हनन होता हो। पर जिसके सामने ऐसा कोई नियंत्रण न हो उसे अपने ही स्वार्थ की बातें सूझेगी और वह प्रत्येक अपराध में अपने बचाव की कोई न कोई दलील अवश्य ढूंढ़ लेगा। इस नास्तिकता के भाव का पिछले दो सो वर्षों में योरोपीय देशों में खूब प्रसार हुआ है और उसके अनेक दुष्परिणाम भी अब दिखने लगे हैं। भौतिकवादी—आध्यात्म दर्शन के प्रतिपादक—पाश्चात्य दार्शनिक और समाज सुधारक भी अब इस बात को अनुभव करने लगे हैं कि ईश्वर सम्बन्धी लोक-मान्यता किसी भी दृष्टि से बुरी नहीं, वरन् उससे सामाजिक जीवन में उच्चता ही आती है।

यह लिखते हुये कष्ट होता है कि संसार में नास्तिकता के भाव इधर कुछ दिनों में तेजी से बढ़े हैं। धर्म नीति, सदाचार के नियमों में किसी की आस्था नहीं रहीं। लौकिक ज्ञान को बढ़ाने वाले अनेकों साधन बढ़े किन्तु पारलौकिक ज्ञान के प्रति बहुत कम लोगों में रुचि रह गई। सस्ते धर्मान सुन्दर थे। अधर्म और पापाचार की बात मन में और नकली आध्यात्म ने लोगों की नास्तिक मनोवृत्ति की ओर भी बढ़ावा दिया फलस्वरूप मानव जाति दिनों-दिन नैतिक और चारित्रिक पतन की ओर अग्रसर हो रही है।

नैतिक एवं धार्मिक नियम हमारे ईश्वर-विश्वास को पुष्ट करने वाले हैं, उनके पीछे एक बहुत बड़ी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया एवं गूढ़ रहस्य छिपा है। हमारी इन भावनाओं को परिपक्व करने के लिये उस साहित्य के सृजन और पुनर्निर्माण की आवश्यकता होगी जो हमारी ईश्वर निष्ठा को मजबूत कर सके।

नास्तिकता के प्रसार का कारण लोगों में आध्यात्मिक ज्ञान का अभाव भी है। क्योंकि इसके होने पर लोग मनुष्य जीवन के सही लक्ष्य का मूल्याँकन नहीं कर सकते। उद्देश्य की अनभिज्ञता के कारण प्रायः स्वार्थवादी प्रवृत्तियाँ ही विकसित होती हैं। अनुचित भोग की अनियंत्रित आकांक्षायें बार-बार कुकर्म कराती हैं। लोग दुराचरण करते हैं और उसका प्रत्यक्ष दुष्परिणाम सामाजिक जीवन में देखने को मिलता है। जहाँ त्याग, परोपकार, दया, उदारता, सज्जनता, करुणा आदि का उल्लेख ही न होता हो और लोगों को उनकी महत्ता का ज्ञान ही न हो तो वे आध्यात्म जैसे अत्यावश्यक विषय का लाभ भी कहाँ से कैसे प्राप्त कर सकते हैं।

नास्तिकता जहाँ भी फैली है वहाँ पतन कारी और नाशकारी परिणाम भी अवश्य देखने को मिले हैं क्योंकि इसमें मनुष्य की भावनाओं का निरादर भरा हुआ है। नास्तिक व्यक्ति अपने लिये जीता है और अन्य लोगों के हितों की उसे चिन्ता नहीं होती। हो भी कैसे सकती है जिसे अपनी ही चिन्ताओं से अवकाश न मिले वह दूसरों के कल्याण की बात सोच भी नहीं सकता। इतिहास साक्षी है कि आज तक जहाँ कहीं और जब कभी ऐसे विचारों का प्रचार हुआ है उससे समाज से सद्प्रवृत्तियों का विगठन ही हुआ है और उससे लोगों की समस्यायें ही बढ़ी हैं। कानून तथा जातीय या स्थानीय प्रतिबन्ध जिनका स्थाई हल ढूंढ़ने में आज तक समर्थ नहीं हो पाये।

आस्तिकता मनुष्य, समाज के सुख और शान्ति का मूलाधार है। वह जीवन के अन्तराल में प्रविष्ट होकर सही प्रेरणा, सही मार्ग-दर्शन देती है। व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति से लेकर सामाजिक कर्त्तव्यों के पालन तक की आन्तरिक शिक्षा का बोध कराने वाली भी वही है। इस बात को अब वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं कि संसार में एक ऐसी चेतन-शक्ति काम कर रही है जो वैज्ञानिकों की पहुँच से बहुत आगे है। उसे समझना मनुष्य के कल्याण के लिए बहुत जरूरी है। अणुजगत के पीछे उसे चलाने वाली चेतन शक्ति का अवगाहन करके मनुष्य जाति अपने विकास का एक नव पथ बना सकती है।

मनुष्य समाज की व्यवस्था और लोगों की दूषित मनोवृत्तियों पर नियंत्रण के लिये अन्तःदर्शन और आत्म-नियंत्रण की आवश्यकता की पूर्ति आस्तिकता से ही संभव है। नास्तिकता से न व्यक्ति का भला होता है न समाज का। आज की विकृत स्थिति और पतनोन्मुख मानव समाज की रक्षा, कल्याण और विकास के लिये आत्म-क्षुद्रता का यह भाव हटाना ही होगा। ईश्वर की मान्यता और उस पर विश्वास करके ही मनुष्य पतन और विनाश से बच सकता है इस पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता अब बहुत बढ़ गई है।


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