आत्म विकास की विचार-साधना

July 1965

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उत्तर गीता के एक प्रसंग में कहा है—

ज्ञानावृतेन तृप्तस्य कृतकृत्यस्य योगिनः। नैवास्ति किंचित कर्तव्यमस्ति चैन्नसतत्ववित्॥

अर्थात्— ‘जो योगी ज्ञान रूपी अमृत से तृप्त हो गया है और इस प्रकार उसे जो कुछ करना था कर चुका है, ऐसे तत्वज्ञानी के लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता है।’

ज्ञान क्या है यह समझने की जरूरत है। किसी वस्तु का सम्यक् दर्शन होना ही ज्ञान है। मैं देह हूँ यह मानने से पदार्थ और साँसारिक सुखों के प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है। अनेकों कुटिलतायें और परेशानियाँ अपने प्रपंच में फँसाकर दिग्भ्रांत करती हैं, यह अज्ञान का स्वरूप है। मैं आत्मा हूँ, परमात्मा का अविच्छिन्न अंश हूँ, यह तत्व-ज्ञान या सम्यक् ज्ञान है। ज्ञान और अज्ञान को व्यक्त करना विचार-साधना का कार्य है, अतः संसार में रह कर यहाँ की परिस्थितियों का सही लाभ प्राप्त करने के लिए विचारों के महत्व को स्वीकार किया जाता है। ज्ञान प्राप्त करने के लिए विचार शक्ति के सदुपयोग की जरूरत होती है, इससे मुमुक्षता प्राप्त होती है।

प्रत्येक विचार, शक्ति की अनुकूल दिशा में फैलकर प्रभाव डालता है। अपने रूप के अनुसार, उधर से वह उसी प्रकार का बल लाता है जिससे सजातीय विचारों की, तदनुरूप गुण-धर्म की पुष्टि होती है। पवित्र और स्वार्थ रहित विचार शान्ति और प्रसन्नता की प्रच्छन्न स्थिति का निर्माण करते हैं। स्वर्ग और नर्क सब विचारों की ही महिमा है। पाप या पुण्य प्रकाश या अन्धकार, दुःख या सुख की ओर मनुष्य अपने विचार पथ के द्वारा ही अग्रसर होता है। आन्तरिक अपवित्रता की दुर्गन्ध या पवित्रता की सुगन्ध भी विचारों के द्वारा ही फैलती है। गुण-अवगुण सब मनुष्य के विचारों का ही फल है। विचारों में ही मनुष्य का भला बुरा अस्तित्व होता है। मन का विचारों के साथ अटूट सम्बन्ध है अतः विचारों में विवेक और शुद्धता रखने से मन को संस्कारवान् शुद्ध और ज्ञानवान् बनाने की प्रक्रिया स्वतः पूरी हो जाती है। बिना सोचे-समझे जैसे कुछ विचार उठें उन्हीं के पीछे-पीछे चलना ही मनुष्य के अज्ञान का प्रतीक है।

विचार एक शक्ति है। आज तक संसार में जो परिवर्तन हुए और जो शक्ति दिखाई दे रही है, वह सब विचार की ही शक्ति है। इस शक्ति का स्वरूप जब तक सद् में स्थित रहता है तब तक रचनात्मक प्रवृत्तियाँ विकसित होती रहती हैं और मनुष्य समाज की सुख-सुविधाओं में अभिवृद्धि होती रहती है किन्तु जब उनमें विकृति आ जाती है तो सर्वनाश के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। अतः सद्विचार को ही रचनात्मक विचार कहेंगे। विचार का अनादर करना अर्थात् उसे विकृत करना भयंकर भूल है, इससे मनुष्य का अहित ही होता है।

विचारों का अर्थ यह नहीं है कि अनेक योजनायें बनाते रहें, वरन् किसी उद्देश्य की गहराई में घुसकर वस्तु स्थिति का सही ज्ञान प्राप्त कर लेना है। परीक्षा में अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण होने की इच्छा हुई, यह आपका उद्देश्य हुआ। अब आप यह देखें कि उसके लिए आपके पास पर्याप्त परिस्थितियाँ हैं या नहीं? आपका स्वास्थ्य इस योग्य है कि रात में भी जाग कर पढ़ सकें, इतना धन है कि अच्छी-अच्छी पुस्तकें खरीद सकें या ट्यूशन लगा सकें। केवल योजनायें बनाने से काम नहीं चलता, जब तक उनकी सम्भावनाओं और उन पर अमल करने की सामर्थ्य पर पूर्ण खोज-बीन न कर ली जाय। विचार मनुष्य की शक्ति और सामर्थ्य के अनुकूल दिशा निर्देश करने में मदद देते हैं। अविचारपूर्वक किए गये कार्यों में सफलता की सम्भावना कम रहती है। इंजीनियर लोग कोई काम शुरू करने के पहले उसका एक प्रस्तावित प्रारूप तैयार कर लेते हैं, इससे उन्हें कार्य की अड़चनों का पूर्वाभास हो जाता है जिसे क्रियान्वित होने पर वे सावधानी से दूर कर लेते हैं। जीवन-निर्माण के लिए विचार भी ऐसी ही प्रक्रिया है। सुव्यवस्थित जीवन के लिए अपने जीवन-क्रम पर बारीकियों से विचार करते रहना मनुष्य की समझदारी का काम है।

सफल व्यक्ति अपने आन्तरिक विचार तथा बाह्य कार्यों में पर्याप्त समन्वय करने की अपूर्व क्षमता रखते हैं। उनके पास क्रियात्मक विचारों की शक्ति होती है अर्थात् वे हर प्रश्न का विचार करते हैं, तब प्रत्यक्ष जीवन में उतारते हैं। इस प्रणाली को विचार नियन्त्रण कहा जाय तो उचित होगा। नियन्त्रित विचारों से ही ठोस लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं।

मनुष्य जो कुछ भी सोचता विचारता है, उसका एक ठोस आकार उसके अन्तःकरण में बन जाता है। कहावत है “जिसका जैसा विचार, उसका वैसा संसार।” अर्थात् प्रत्येक विचार मनुष्य के संस्कारों का अंग बन जाता है। इतना ही नहीं व्यक्तिगत विचारों का प्रभाव विश्व-चेतना पर भी पड़ता है। विश्व के सूक्ष्म आकाश में विचारों की भी एक स्थिति रहती है। वैज्ञानिक इस प्रयास में है कि वे सदियों पूर्व लोगों के विचारों का ‘टेप-रिकार्ड’ कर सकें। उनका दावा है कि अच्छे बुरे किसी भी विचार का अस्तित्व समाप्त नहीं होता। वे विचार सूक्ष्म कम्पनों के रूप में आकाश में विचरण करते रहते हैं और अपने अनुरूप विचारों वाले मस्तिष्क की ओर आकर्षित हो कर अदृश्य सहायता किया करते हैं। किसी विषय पर विचार करने से वैसे विचारों की एक शृंखला सी बन जाती है, यह सब सूक्ष्म जगत में विचरण करने वाली तरंगें होती हैं जिन से अनेकों गुप्त रहस्यों का प्रकटीकरण मस्तिष्क में स्वयं हो जाया करता है।

यह संसार जो हम देख रहे हैं वह अव्यक्त का व्यक्त स्वरूप है। अव्यक्त में जैसे विचार उठें, जैसा संकल्प उदय हुआ, जैसी स्फुरणा और वासना जगी व्यक्त में आकर वही रूप धारण कर लेता है। भला-बुरा जैसा भी संसार हमारे चारों तरफ फैल रहा है, उसमें लोगों के विचार ही रूप धारण किये दिखाई पड़ रहे हैं। हमारा विचार जैसा भी भला-बुरा है, उसी के अनुरूप ही यह संसार है। यदि हम विचारों का संयम करना जान जायें और उन्हें अच्छाइयों की ओर लगाना सीख जायें तो निःसन्देह इस संसार को सुन्दर प्रिय और पवित्र बना सकते हैं।

दुःख का दूसरा नाम है—अशान्ति! इसकी यदि समीक्षा करें तो यह देखेंगे वह विचारों की अस्त-व्यस्तता और कुरूपता के कारण उत्पन्न होती है। अशान्त को कभी सुख नहीं होता अतः दुःख से बचने का यह सबसे अच्छा उपाय है कि कुविचारों से सदैव दूर रहें। न खुद अशान्त हों न औरों की शान्ति भंग करें। किन्तु आज-कल अशान्ति पैदा करने में गौरव ही नहीं समझा जा रहा वरन् इसकी लोगों में होड़ लगी है। बुरे कर्मों को, अपनी नीचता और धृष्टता प्रकट करते हुए लोग ऐसा गर्व अनुभव करते हैं मानों उन्हें कोई इन्द्रासन प्राप्त हो गया हो। शान्ति के अर्थ को लोग भूल से गए हैं। लगता है कि इस पर कभी विचार ही नहीं किया जाता और लोग अविवेकी पशुओं की तरह सींग-भिड़ाकर लड़ने-झगड़ने में ही अपनी शान समझते हैं।

दूषित विचारों से वातावरण की सारी सुन्दरता नष्ट हो गई है। अब मनुष्य जीवन का कुछ मूल्य नहीं रहा हैं, क्योंकि कुविचारों के फेर में इतनी अधिक अशान्ति उत्पन्न कर ली गई है कि उसमें थोड़े से सद्-विचारवान् व्यक्तियों को भी चैन से रहने का अवसर नहीं मिलता। इस संसार की सुखद रचना और इसके सौंदर्य को जागृत करना चाहते हों तो वैयक्तिक तथा सामाजिक जीवन में सद्-विचारों की प्रतिष्ठा करनी ही पड़ेगी और इसके लिए केवल कुछ व्यक्तियों को नहीं वरन् बुराइयों की तुलना में कुछ अधिक प्रभावशाली सामूहिक प्रयास करने पड़ेंगे। तभी सबके हित संरक्षित रह सकेंगे।

यह कल्पना तभी साकार हो सकेगी जब अपने विचारों के परिवर्तन से सभ्य-सुसंस्कृत समाज की रचना का प्रयत्न करोगे। हम उसी पदार्थ को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं जिसके लिए अन्तर में विचार होते हैं। अब तक बुरे विचार उठ रहे थे। अतः वातावरण भी कुरूप-सा अशान्त सा लग रहा है। भ्रम और द्वेषपूर्ण विचारों से दुर्भावनाओं को मार्ग मिलता रहा। अब इसे छोड़ने का क्रम अपनाना चाहिए और शुभ-विचारों की परम्परा डालनी चाहिए। प्रेममय विचारों से हम अपने प्रेमास्पद को आकृष्ट करते हैं। यह विचार भी अप्रकट न रह सकेंगे। शीघ्र ही स्वभाव रूप में प्रकट होंगे और शीघ्र ही स्वभाव,प्रक्रिया तथा कर्म रूप में परिणत हो कर वैसे परिणाम उपस्थित कर देंगे।


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