बच्चों को व्यवहारकुशल बनाइये

July 1965

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बच्चों को व्यवहारकुशल बनाने के लिये उनमें उत्तर-दायित्व की भावना का विकास करना बहुत आवश्यक है। जिन बच्चों में उत्तरदायित्व का भाव जाग जाता है वे हर काम बड़ी होशियारी से करते हैं। हर समय इस बात का ध्यान रखते हैं कि उनसे कोई काम बिगड़ न जाये। उन पर कोई उंगली न उठा सके अथवा किसी समय वे उपहासास्पद न बन जायें।

व्यवहारकुशलता का सीधा-सा अर्थ, है कोई ऐसी बात या कोई ऐसा काम न करना जिससे किसी को कोई तकलीफ पहुँचे अथवा वे आलोचना या उपहास के पात्र बन सकें।

यद्यपि सारे क्षेत्रों में किसी का पूर्णरूपेण कुशल हो सकना असम्भव के समकक्ष जैसी बात है, तथापि समाज में साधारण व्यवहार कुशलता प्राप्त कर लेना सबके लिये सुसाध्य एवं आवश्यक है। जो सामान्य सामाजिक व्यवहार में कुशल नहीं होते वे अन्दर से अच्छे होते हुये भी समाज में उचित स्थान नहीं पा सकते । लोग उनके विषय में यह कहकर आलोचना किया करते हैं कि ‘अमुक व्यक्ति हो सकता है अन्दर से अच्छा हो किन्तु व्यवहार से अच्छा प्रतीत नहीं होता’ और समाज में इस प्रकार की धारणा लोगों को उसके प्रति शंकालु ही बनाये रखती है।

समाज में विनिमय , वार्तालाप, सम्बन्ध एवं सामंजस्य चार ऐसी बातें है जिनकी पृष्ठभूमि पर ही सारे सामाजिक व्यवहार आधारित रहते हैं। इन चार बातों को ठीक से व्यवहार कर सकने की योग्यता प्राप्त कर लेना ही व्यवहार दक्षता है।

विनिमय का अर्थ है, आदान-प्रदान अथवा लेन-देन। जो पैसे का , वस्तु का, भावनाओं का अथवा विचारों का हो सकता है। विनिमय के व्यवहार में जहाँ तक हो सके सीमान्त स्पष्टता एवं ईमानदारी रखनी चाहिये। जैसे कोई वस्तु खरीदते समय अपनी चतुरता अथवा हीलो- हुज्जत से दुकानदार को साधारण भाव से कम कीमत देने का प्रयत्न न करना चाहिये। क्योंकि इससे दुकानदार अपना नुकसान तो करेगा नहीं उल्टे अच्छा ग्राहक न समझ कर ऐसे व्यक्ति के हाथ कोई चीज बेचना पसन्द न करेगा। और यदि एक बार, वह ग्राहक बनाने के लिये दब भी जायेगा तो दूसरी बार एक पैसे के दो पैसे वसूल कर लेगा और सबसे पहले घटिया चीज भिड़ाने की कोशिश करेगा। बार-बार ऐसा करने वाले व्यक्ति की साख ग्राहक के रूप में बाजार में कम हो जाती है और हजारों रुपये का सामान खरीदने पर भी वह आदर नहीं पा पाता जो उसे मिलना चाहिये।

अब रही कोई चीज बेचने की बात। कोई वस्तु बेचते समय सामान्य भाव से अधिक पैसे लेने के लिये बढ़ा चढ़ा कर मूल्य बतलाना, घटिया चीज भिड़ाना या असन्तोषजनक ढंग से विक्रय करने वाले की, दुकानदार के रूप में साख खराब हो जाती है और वह एक बड़ा दुकानदार होने पर भी न तो अपेक्षित बड़प्पन पा सकता है और न अधिक समय तक अपनी स्थिति बनाये रख पाता है। धीरे-धीरे ग्राहक संख्या कम करता हुआ छोटा-सा दुकानदार रह जाता है।

इसी प्रकार पैसा लेने-देने में समय और परिणाम में यथा-सम्भव हेर-फेर करने का प्रयत्न न करना चाहिये। और यदि किसी भ्रम, भूल या परिस्थितिवश ऐसा हो जाये या करना पड़े तो ईमानदारी से उसका स्पष्टीकरण करने में संकोच न करना चाहिये।

वार्तालाप में सत्यता, शिष्टता एवं देशकाल का विचार रखना चाहिये। सत्य यदि शिष्ट नहीं है अथवा शिष्टता, सत्यता से परे है या यह दोनों बातें देश काल के अनुकूल नहीं हैं तो अनुचित ही मानी जायेंगी।

सम्बन्ध मूलतः छोटे,समान,बड़े,पद,योग्यता एवं विशेषता के अनुसार छः प्रकार के होते हैं। जो जिस योग्य हो उससे उसी प्रकार का व्यवहार अपेक्षित है। इसके प्रतिकूल व्यवहार करना किसी भी दशा में ठीक नहीं है। जो जिस योग्य है उसको उसके अनुरूप स्थान देना बहुत बड़ी व्यवहार कुशलता है। छोटों से स्नेहिल, समानों से निःसंकोच और बड़ों से आदरपूर्वक बर्ताव करना चाहिए। पद में बड़े और आयु में छोटे व्यक्ति भी आदर और अदब के अधिकारी होते हैं। अपने से अधिक योग्यता अथवा किसी क्षेत्र में विशेषता (जैसे कला आदि) रखने वाले व्यक्ति भी अपने से बड़े अथवा उच्च पद पर न होते हुये भी सम्मान एवं सद्व्यवहार के पात्र होते हैं। उनसे व्यवहार करने में इन बातों का ध्यान रखना न केवल आवश्यक ही अपितु अनिवार्य भी है।

सामंजस्य का अर्थ है अपने को इस तरह का बनाना कि हर व्यक्ति हर परिस्थिति तथा हर स्थान से समुचित समानता दिखला सके। जैसे दूसरे के दुःख में दुःख, सुख में सुख, परिस्थिति से अनुकूलता स्थान से निरपेक्षता का भाव प्रकट कर सकें। किसी के सुख-दुःख में उदासीन रहना, प्रतिकूल परिस्थिति में अधैर्य अथवा अयोग्य स्थान पर क्षोभ अथवा घृणा व्यक्त करना ठीक नहीं है। अपने अवाँछित मानसिक आवेगों पर नियन्त्रण रखना व्यवहार कुशलता की एक महत्वपूर्ण शर्त है।

इस प्रकार इन व्यवहार सम्बन्धी आवश्यक बातों की शिक्षा देते हुये यदि बच्चों का पालन किया जाये तो कोई कारण नहीं कि वे व्यवहार करने की आयु तक पहुँचते-पहुँचते दक्षता प्राप्त कर लेंगे। जिन बच्चों में इन बातों का विकास प्रारम्भ से नहीं किया जायेगा वे बच्चे उस आयु तक आवश्यक दक्षता प्राप्त न कर सकेंगे जिसमें पहुँच कर उनका कोई भी व्यवहार महत्व रखता है और अच्छा या बुरा माना जा सकता है।

बच्चे जब कुछ समझदार होने लगें यह कार्यक्रम तभी से शुरू कर दिया जाना चाहिये। सबसे पहले उन्हें परिवार के सदस्यों का परिचय कराया जाना चाहियें और उसी अनुसार उनसे व्यवहार का अभ्यास । यह माता है, यह पिता है, यह बड़ी बहन है, यह बड़े भाई हैं, आदि बतलाते हुये यह भी बतलाना चाहिये कि उनके चरण छूना, उनके प्रति आदर रखना उनकी आज्ञा मानना उसका परम कर्तव्य है। जो अपने से बड़े हैं, शिष्ट और अच्छे बच्चे उनसे तुम नहीं आप कहकर बोलते हैं। उनसे गुस्सा नहीं करते और न कभी उनका तिरस्कार करते हैं। इसका अभ्यास कराने के लिये जब भी इनमें से किसी को बुलवायें या उसे उनके पास किसी काम से भेजें तब कभी भी ऐसा निर्देश न दिया जाना चाहिये, जिससे उसमें कोई अनादर का भाव पैदा होने की सम्भावना रहे। जैसे “मुनिया को बुला लाओ” “विमलेश को आवाज देना” या ‘देखना, अम्मा क्या करती है?’ इसके विपरीत कहना इस तरह चाहिये कि ‘अपनी दीदी जी को बुला लाइये’ ‘अपने दद्दा, बड़े भाई साहब या दादाजी को आवाज दीजिये’ “जरा देखकर आइये कि आप की माताजी क्या कर रही हैं?” कहने का तात्पर्य यह कि इस प्रकार निर्देश देने से उसमें उस समय आदर की भावना ताजी हो उठेगी और उन्हीं शब्दों में उनसे बोलेगा, क्योंकि बच्चों के प्रारम्भिक शब्द और सम्बोधन परिवार के गुरुजनों के ही दिये होते हैं। इस प्रकार हर समय इस बात का ध्यान रखने से वह कुछ ही समय में गुरुजनों से आदर पूर्वक व्यवहार करना सीख जायेगा।

व्यवहार में वार्तालाप का एक प्रमुख स्थान है। जिन बच्चों को शुरू में ही शब्दों और स्वर के संयम का अभ्यास करा दिया जाता है वे आगे चलकर बड़े मधुर तथा उपयुक्त भाषी हो जाते है । शब्दों का गलत उच्चारण करना स्वर को अनावश्यक रूप में ऊंचा नीचा करके बोलना अथवा वाक्यों को पूर्ण और ठीक न बोलना सम्भाषण का आकर्षण समाप्त कर देता है, जिससे दूसरों को उसकी बात न समझ में ठीक से आती है और न वे पसन्द ही करते हैं। अस्तु, शब्द स्वर और वाक्य विन्यास ठीक रखने के लिये उसे बहुत पहले से प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये।

सम्भाषण में नम्रता तथा देश काल और सम्बन्ध का विशेष ध्यान रखना चाहिये। किन्तु जिस भाषण में अधिक से अधिक सत्यता का समावेश नहीं है, वह नम्र और संयत होने पर भी अच्छा ठीक नहीं है। इससे बच्चा दूसरों की नजर में झूठा, गप्पी और अविश्वस्त हो जाता है और समाज में उसका आदर नहीं होता है।

इस प्रकार जो बच्चे, विनिमय, वार्तालाप, सम्बन्ध और सामंजस्य के ज्ञान से परिपूर्ण कर दिये जाते हैं ये निस्सन्देह व्यवहार कुशल होकर समाज में अच्छे नागरिक बनकर अपना निश्चित स्थान प्राप्त कर लेते हैं।


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