गृहस्थ की समुन्नति के लिये समय का सदुपयोग

July 1965

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धन गृहस्थ जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता है। परिजनों की योग्यता बढ़ाने के लिये, उन्हें खुशहाल रखने, अच्छा खाने और अच्छा पहनने का एक मात्र साधन धन है। धन के अभाव में गृहस्थी की अनेकों आवश्यकतायें अधूरी रह जाती हैं। अविकसित परिवार में किसी तरह की चेतना नहीं होती, किसी तरह का आनन्द नहीं होता। पारिवारिक प्रसन्नता के लिये भी धन की अत्यन्त आवश्यकता है। इसकी कमाई की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिये।

निर्धारित व्यवसाय से कई बार मध्यम श्रेणी के लोगों की आवश्यकतायें पूरी नहीं हो पातीं। किसान, मिलों में काम करने वाले मजदूर, कारीगर, कार्यालय में काम करने कर्मचारियों की आय इतनी नहीं होती कि जीवन-यापन की आवश्यक वस्तुओं से कुछ आगे बढ़कर अपनी योग्यता का विकास करने की सुविधायें प्राप्त कर सकें। कई बार तो यहाँ तक होता है कि भोजन, निवास की समस्या ही कठिनाई से सुलझ पाती है। ऐसी अवस्था में न तो बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था ही बन पाती है ने लोगों के रहन-सहन का स्तर ही ऊँचा उठ पाता है।

इस देश में कुटीर उद्योग धन्धों का भी विकास नहीं हो पाया। फलस्वरूप कोई सहायक धन्धा न होने के कारण लोगों का दैनिक व्यवसाय के अतिरिक्त अधिकाँश समय बेकार चला जाता है। इस बेकार समय में लोगों में फालतू झगड़े-फसाद, मार-पीट, दंगे आदि की शिकायतें बढ़ जाती हैं जिससे मुकदमेबाजी बढ़ती है। लोग ऋणी हो जाते हैं। वैसे ही निर्धनता थी, कार्यक्षमता भी घट गई, कर्जदार भी हो गये। सारी कमाई ब्याज के रूप में सेठ, साहूकारों के हाथों लुट जाती है। औसत दर्जे का परिवार इन्हीं कठिनाइयों से घिरा रहता है।

अनिवार्य दिनचर्या के अतिरिक्त पुरुषों के पास कम से कम दो घण्टे और स्त्रियों के पास आठ घण्टे फुरसत के बच जाते हैं। पुरुष इस समय को मटरगश्ती, ताश, चौपड़ आदि में गँवा देते हैं, स्त्रियाँ बेकार की गपशप, सोने और बच्चों की देख-रेख में इस समय को बरबाद करती रहती हैं। आर्थिक कठिनाई के इस युग में समय की बरबादी नितान्त अविवेकपूर्ण है। इस समय का सदुपयोग किया ही जाना चाहिये।

इन आठ और दो, दस घण्टों से कोई पूरक धन्धा चलाने में प्रत्येक परिवार को सुविधा मिल सकती है। इसके लिये अपनी दिनचर्या को कार्यक्रमबद्ध बनाना चाहिये। अपने जीवन की एक निश्चित रूपरेखा बनाकर चलने में इस समय का सुन्दर उपभोग हो सकता है और स्वजनों की योग्यता बढ़ाने का अवसर प्राप्त किया जा सकता है। यह चुनाव अपनी परिस्थितियों के अनुरूप सभी को कर लेना चाहिये।

इस समय का पहला सदुपयोग प्रौढ़ प्रशिक्षण हो सकता है। घर में जितने लोग निरक्षर हैं उनको साक्षर बनाने के लिये कुछ समय नियत कर दिया जाय। घर के जो व्यक्ति पढ़े-लिखे हों उन्हें चाहिये कि नियमित रूप से प्रतिदिन उतने समय घर के सभी अशिक्षित स्त्री-पुरुषों की पाठशाला चलाया करें। धीरे-धीरे इनमें मनोरंजक कार्यक्रम भी प्रस्तुत कि ये जा सकते हैं किन्तु पहला काम साक्षरता का भी होना चाहिये। जो लोग बुड्ढे हों और शिक्षा को अपने लिये अनावश्यक बताते हों उन्हें भी समझाना चाहिये कि शिक्षा का प्रभाव संस्कार रूप में दूसरे जन्मों में भी साथ रहता है इसलिये यह कार्यक्रम तो सभी को अपनाना ही चाहिये। घर-घर ऐसी पाठशालायें चलने लगें तो अविद्या का अन्धकार दूर होते देर न लगे।

जो लोग पढ़ने से आनाकानी करें उनके लिये भी इतना तो होना ही चाहिये कि किसी विचारपूर्ण पुस्तक का कुछ अंश प्रतिदिन पढ़कर सुनाया जाया करे। मनोरंजक, शिक्षाप्रद कहानियाँ, रामायण आदि का स्वरमय पाठ भी होता रहे। इन कृत्यों को सामूहिक धर्मानुष्ठान का रूप भी दे सकते हैं। शिक्षा के साथ सामूहिक प्रार्थना, पूजा और उपासना के कार्यक्रम भी चलते रहें तो स्नेह बन्धनों को मजबूत बनाने में तथा आत्मिक परिष्कार में सुविधा ही मिलेगी।

पठन-पाठन की सामग्री का चयन धार्मिकता पर आधारित हो तो अधिक अच्छा है पर यह ध्यान बना रहे कि सिनेमा जैसे गन्दे साहित्य का समावेश कदापि न होने पावे। जो शिक्षा उच्छृंखल प्रवृत्ति जगाती हो उसे छुपाकर ही रखना श्रेयस्कर हो सकता है। समाचार-पत्र मँगाकर भी लोगों का ज्ञान बढ़ाया जा सकता है।

जो भी काम करें उसे मात्र खिलवाड़ समझकर न करें। पूरी दिलचस्पी और लगन के साथ यदि एक व्यक्ति को साक्षर बनाया जा सके तो श्रम को सार्थक ही कहेंगे। किन्तु “काम बहुत किया हासिल कुछ न हुआ” वाली कहावत हुई तो यह भी समय का अपव्यय ही रहा। सम्पन्न परिवार के व्यक्ति बाहर से भी अध्यापक की व्यवस्था कर लें तो इससे यह काम जिम्मेदारी का बन जायगा और फिर आनाकानी करने या उपेक्षा दिखाने का कोई कारण ही शेष न रहेगा। जैसे भी बने इस समय का उपयोग यदि साक्षरता बढ़ाने में कर सकें तो इसे बुद्धिमत्ता का कार्य माना जायगा।

दूसरी तरह से समय का सदुपयोग सहायक धन्धे चला कर किया जा सकता है। ग्रामीण-क्षेत्रों के रहने वाले पशु-पालन तथा सनकी रस्सी बनाने का धन्धा चला सकते हैं इससे खेती के अतिरिक्त थोड़ी और भी आय हो जाती है। स्त्रियाँ चरखा चलाकर सूत निकालने का काम कर सकती हैं। इसमें सरकारी सुविधायें भी हैं। अम्बर चर्खे के द्वारा चार घण्टा, पाँच घन्टा, प्रतिदिन काम करके स्त्रियाँ साठ रुपया मासिक तक की आमदनी कर लेती हैं। जो रुपया न लेना चाहें वे घर भर के लिये शुद्ध कपड़ा ही तैयार कर सकती हैं और दुकानों में जाने वाले पैसे को बचा सकती हैं।

पढ़ी लिखी स्त्रियाँ दस्तकारी सीखें। हाथ की मशीन कोई भी गृहिणी चलाकर थोड़ी-सी पूरक आय भी कमा सकती है। घर के कपड़ों की सिलाई इसमें बचती है और फटे कपड़ों की मरम्मत करके उन्हें कुछ दिन और उपयोग में लाने योग्य बना सकते हैं।

पढ़े लिखे लोग फुरसत के समय लेखन सम्पादन का काम करके अपनी योग्यता भी बढ़ा सकते हैं और सहायक पूँजी भी कमा सकते हैं। जिनमें इतनी योग्यता हो कि पुस्तकें लिख सकें वे ऐसा भी कर सकते हैं। अपनी सामर्थ्य और योग्यतानुसार कोई न कोई काम जरूर चला सकते हैं।

एक किसान के बेटे के पास कुल पाँच बीघे जमीन थी इससे उसके परिवार का किसी तरह गुजारा न चलता था। बालक ने एक युक्ति निकाली। एक बीघे खेत में बाग लगाना शुरू कर दिया। किनारे-किनारे पपीते और केले के पौधे रोप दिये और बीच में नीबू, नारंगी, मुसम्मी, अमरूद आदि के पेड़ लगा दिये। इससे एक बीघा खेती तो कम हो हो गई पर पपीते आदि के कुछ पौधे दूसरे ही वर्ष से फल देने लगे और उनकी काफी आमदनी होने लगी। बाग लगाने का काम वह हमेशा किसानी से बचे हुए समय में करता था। जब भी थोड़ा समय मिलता उस बगीचे को सींचने, खाद देने, काँटे लगाने का काम करने लगता। इस समय उस बगीचे से किसान को इतनी आमदनी है जितनी उन चार बीघे खेतों से भी नहीं हो पाती। फुरसत के समय का यह भी सदुपयोग हो सकता है।

जिन्हें कुछ भी काम न मिले वे संगीत का अभ्यास, स्वास्थ्य सुधार के लिये मालिश, प्राणायाम, आसन तथा घूमने टहलने का ही कार्यक्रम बना सकते हैं। कथा-प्रवचन द्वारा भी फालतू समय में ज्ञानदान की परम्परा चला सकते हैं।

अपनी इच्छा, योग्यता और परिस्थितियों के अनुरूप किसी भी पूरक व्यवसाय का चुनाव हर दृष्टि से लाभदायक ही रहेगा। सम्पन्न व्यक्तियों के लिये यह समय श्रेष्ठ संस्कार पैदा करने, साँस्कृतिक मनोरंजन प्राप्त करने के भी काम आ सकता है। इस तरह निर्धन परिवार अपनी आजीविका बढ़ाकर धनी परिवार अपनी योग्यता बढ़ाकर अपने गृहस्थ को सुव्यवस्थित रखने में सहयोग दे सकते हैं। इन रचनात्मक प्रवृत्तियों को हमें अपने जीवन में कोई न कोई स्थान देना ही होगा।


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