अशान्ति से चिर शान्ति की ओर

July 1965

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दिन-भर काम करते रहने से जो थकावट उत्पन्न होती है, प्रगाढ़ निद्रा उसे दूर कर देती है, राहगीर चलते- चलते थक जाते हैं तो थोड़ी देर किसी वृक्ष की शीतल छाया में विश्राम कर लेते हैं, कल- कारखानों में काम करने वाले मजदूर-श्रमिक शाम को किसी पार्क के एकान्त कोने में बैठकर आश्वस्त होते हैं, थकावट चाहे शारीरिक हो या मानसिक, विश्राम से ही दूर होती है। उस समय सारी वृत्तियाँ निश्चेष्ट होनी चाहिए, किसी तरह का शारीरिक या मानसिक बोझ, तनाव या उत्तेजना अनुभव नहीं होनी चाहिए। ऐसे विश्राम से खोयी हुई शक्ति वापस आती है और शरीर तथा मन की थकावट दूर हो जाती है।

सामान्य जीवन में जो बात दिन-भर के श्रम से उत्पन्न थकावट के बारे में लागू होती है जीवात्मा के सम्बन्ध में वही बात सम्पूर्ण जीवन को एक दृष्टि में रखकर सोची जाती है। “हमारे जीवन का उद्देश्य यह है कि हम असीम आनन्द की प्राप्ति करें” यह कहना या “ हम चिर-शान्ति उपलब्ध करना चाहते हैं” यह दोनों ही वस्तुतः एक उद्देश्य के दो पहलू हैं। जीवन-भर की उलझनों, परेशानियों, ईर्ष्या द्वेष, काम, क्रोध, मद, मत्सर, मलीनता, अस्वस्थता, हानि, अपमान, दंड, अव्यवस्था आदि से जो मानसिक थकावट पैदा हो जाती है, आत्मिक दुर्बलता पैदा हो जाती है उससे विश्राम पाने की लालसा हर एक व्यक्ति को होती है। कोई न भी चाहे तो प्राकृतिक नियम उसे ऐसा करने के लिये बाध्य करेंगे क्योंकि शान्ति और विश्राम पाये बिना मनुष्य अगला जीवन धारण किये रहने में समर्थ नहीं हो सकता । अशान्त अवस्था में वह सामान्य जीवन की प्रक्रियायें भी पूरी नहीं कर सकेगा।

इस शान्ति परायण की बात को समझ लेना नितान्त आवश्यक है। मनुष्य का बुद्धि कौशल भी इसी में है कि वह अनुभव करे कि यह जो प्रति क्षण शान्ति और विश्राम प्राप्त करने की उत्कंठा जागृत होती है उसका संकेत मूल लक्ष्य से है अर्थात् उसे उन सभी कारणों को जान लेना चाहिये जिससे यह जीवन समाप्त होने के बाद आत्मा को इन्द्रियों के विषयों, सुख भोग तथा मोह वृत्तियों में भटकते रहना न पड़े। संक्षेप में बन्धन मुक्ति प्राप्त करना या स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करना ही मुख्य उद्देश्य है।

यह उद्देश्य मानव की समस्त प्रवृत्तियों को विश्वात्मक नीति-धर्म के साथ जोड़ देता है और उसे संघर्षमय जीवन के लिये सशक्त होने की प्रेरणा देता है। यह शक्ति मृत्यु या विनाश का प्रयोग नहीं होती वरन् मनुष्य जीवन का सर्वांगीण विकास करने के लिये हैं। विकास की उस स्थिति को प्राप्त करने के लिये मनुष्य को अपने मन, बुद्धि तथा शरीर की रचनात्मक शक्ति का प्रयोग करना आवश्यक है। सर्वतोन्मुखी विकास, आत्मा के विकेन्द्रीकरण पर अवलम्बित है यह अवस्था है। इसी पर मनुष्य जीवन की चिर-शान्ति निहित है।

शान्ति का बाधक है उन्माद या व्यामोह। वैयक्तिक उन्माद के रहते व्यक्ति को शान्ति नहीं मिलती। यही दशा जाति और राष्ट्र की है। व्यक्ति की जीवन धारा जाति,प्रदेश, राष्ट्र और धर्म के साथ जुड़ी होती है। इसलिये उसे इन सब के साथ सम्बन्ध रूप में देखा जाता है। जहाँ व्यक्ति अपने सामान्य जीवन क्रम में, समाज के साथ, राष्ट्र और जाति के साथ धार्मिक गठबन्धन को तोड़ता है, और उसकी स्वार्थमूलक या विध्वंसात्मक प्रवृत्तियाँ पनपने लगती हैं वहीं शान्ति भंग हो जाती है एक व्यक्ति दूसरे के हितों का शोषण करेगा तो इससे जो अशान्ति उत्पन्न होगी उससे व्यक्ति और समाज सभी में निराशा उत्पन्न होगी। दूसरों को हीन समझ कर उन्हें तिरस्कृत करना यह वैयक्तिक उन्माद है। शान्ति अपने नियंत्रण से मिलती है पर अपनी सुख सुविधाओं को ही सर्वोपरि मानकर चलने वाले अपने पर नियन्त्रण नहीं रख सकते। अति संचय, अति भोग, अति विलास तथा चरित्र को लाँछित करने वाली सारी वृत्तियाँ अशान्ति पैदा करती हैं। इन्हें व्यक्तिगत जीवन से लेकर सामाजिक जीवन तक दोष माना गया है।

एक राष्ट्र जब दूसरे राष्ट्र के प्रति ऐसी ही भ्रमपूर्ण नीति अपनाता है तो अशांति और उपद्रव का एक बहुत शक्ति शाली रूप सामने आता है इससे प्राणि मात्र के हितों में, जीवन पद्धति में गम्भीर खतरा उत्पन्न हो जाता है। इस स्थिति में रहते हुये सुख, संतोष एवं शान्ति की स्थिति प्राप्त नहीं की जा सकती।

सफल राष्ट्र के प्रयोग पहले व्यक्ति से शुरू होने चाहिये। इन्द्रियों पर विजय पाना ही मनुष्य का सम्पूर्ण स्वरूप है। भारतीय विद्या के आचार्यों ने इसीलिये मानवीय जीवन के साथ धर्म की ऐसी व्यवस्था स्थापित की है जिससे एक व्यक्ति ही राष्ट्र के क्षेत्र की कसौटी है। जहाँ व्यक्ति स्वस्थ और सकुशल रहता है वहाँ राष्ट्र भी इसी मार्ग पर बढ़ता है और एक स्थिर प्रगति के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। यह स्थिति अधिक शक्तिशाली और सुनियोजित है। धर्म ही एक ऐसा विशुद्ध तन्त्र है जिससे विश्व के सम्पूर्ण प्राणियों के हित सुरक्षित रहते हैं। जब तक किसी व्यक्ति के हितों पर आघात नहीं पड़ता तब तक अशान्ति की स्थिति नहीं उत्पन्न होती किन्तु जब कुछ लोगों का लोभ और दम्भ आवश्यकता से अधिक मात्रा में बढ़ जाता है तो उसका सामूहिक रूप से विषैला प्रभाव पड़ता है। आज के युग में जो व्यापक अशान्ति छाई हुई है वह इसी का प्रभाव है जब भी ऐसी परिस्थितियाँ उभरेंगी तो मनुष्य की आन्तरिक शक्तियों का पतन निश्चय रूप से होगा। यह स्थिति गम्भीर अशान्ति पैदा करने वाले होती है।

दुर्बुद्धि ही अशान्ति का मूल कारण है। वह जितना अधिक बढ़ती है उतने ही भयंकर परिणाम सामने आते हैं और उनसे व्यक्त तथा अव्यक्त रूप से सम्पूर्ण मानव समाज को कष्ट मिलता है। दुर्बुद्धि की विष-बेलि जहाँ फैलती है वहीं कष्ट, क्लेश और कलह उत्पन्न होंगे । पर जिन परिवारों में, शहर, मुहल्लों या गाँवों में लोग मिलकर, एक कुटुम्ब की तरह जीवन यापन करते हैं, निरभिमान होकर सद्भावनापूर्वक एक दूसरे से मिलते, और सबके सुख-दुःख में हाथ बँटाते हैं, वहीं स्वर्गीय शान्ति की परिस्थितियां उमड़ती दिखाई देने लगती हैं। गहन दर्शन और उच्च साधनायें मनुष्य की अन्तिम आवश्यकतायें पूरी करती हैं किन्तु सद्भावनाओं तथा सद्गुणों में ऐसी विलक्षण प्रतिभा होती है जिससे मनुष्य के बाह्य एवं आन्तरिक दोनों तरह के जीवन का मूलभूत उद्देश्य भी सिद्ध हो जाता है। धर्म की प्रारम्भिक शिक्षा यह होती है कि मनुष्य अपनी सद्बुद्धि का विकास करे और उसका अन्तिम उद्देश्य पूर्ण शान्ति की प्राप्ति होती है।

यह मार्ग पूर्ण वैज्ञानिक एवं क्रमबद्ध है। जीवन में शक्ति और प्रवाह बना रहे तो अशान्ति के उत्पन्न होने का कहीं कुछ खतरा नहीं रहेगा। ऐसी बुद्धि केवल धर्म ही जागृत कर सकता है। धर्म सद्प्रवृत्तियों के जागरण की प्रेरणा देता है। हिन्दुओं में यह एक साधारण शिक्षा थी, गाँव के लोग भी कहा करते थे कि भगवान सब में है । इससे समाज में सभ्य आचरण की प्रतिष्ठा बनी रहती थी। सब सबसे अच्छा बर्ताव करना चाहते थे। रहन-सहन,आचार-विचार, बोली-व्यवहार में सर्वत्र विनम्रता एवं नीति-निपुणता बनी रहने से किसी प्रकार के झंझटों की गुँजाइश नहीं रहती थी और लोग इस धरती में सुखी तथा सन्तुष्ट रहकर पारलौकिक शान्ति की उपलब्धि में तत्परतापूर्वक लगे रहा करते थे।

हमारा जीवन इसलिये नहीं है कि इन बहुमूल्य क्षणों को अशान्ति और असन्तुष्टि में नष्ट करदें। हमें एक निश्चित आधार ढूंढ़ना पड़ेगा ताकि इस जीवन का सही सद्उपयोग कर सकें। सुख और शान्तिपूर्वक जीने की अभिलाषा पूर्ण आध्यात्मिक है इसे पूरा भी किया जाना चाहिये, किन्तु उसका एक ही उपाय है और वह है व्यक्तिगत जीवन में धर्म का प्रयोग।

यह स्थिति विकसित होती हुई आत्मा को परमात्मा की समीपता की ओर अग्रसर कराती है। वहाँ पहुँच कर सारे दोष-दूषण समाप्त हो जाते हैं, और जीवन की सारी थकावटें दूर होकर चिर-शान्ति की उपलब्धि हो जाती है। इसी स्थिति की प्राप्ति के लिये ही मनुष्य को अनेक विशेषतायें मिली हैं। चिर-शान्ति हमारे जीवन का आधार है उसे प्राप्त करने के लिये ही इस नर-देह में जीवात्मा का अवतरण होता है।


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