हम में से हर एक को यह करना ही चाहिये

July 1965

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अखण्ड-ज्योति परिवार के हर सदस्य को गत 26 वर्षों में जिस अध्यात्म एवं आत्म-कल्याण की शिक्षा दी जाती रही है उसका एक आवश्यक एवं अनिवार्य अंग ‘लोक सेवा’ को बताया जाता रहा है। विश्व मानव ही भगवान का विराट रूप है। जब तक सहृदयता, परोपकार, लोक मंगल के लिए कुछ,त्याग करने की वृत्ति उत्पन्न न हो तब तक यही कहना होगा कि भजन पूजन में रुचि बढ़ जाने पर भी सच्चे अध्यात्म का उदय नहीं हुआ। जिसमें आस्तिकता, धर्मबुद्धि एवं मानवता का एक कण भी जगा होगा वह लोक मंगल के लिये कुछ किये बिना रह ही न सकेगा। देश,धर्म, समाज और संस्कृति को सुविकसित बनाने के लिये प्रत्येक भावनाशील व्यक्ति की अन्तरात्मा उसे कचोटती ही है और अपनी अन्तः प्रेरणा से विवश होकर कुछ समय, श्रम एवं धन लोकमंगल के लिए खर्च करना ही पड़ता है। इसी प्रकृति के विकसित होने पर किसी व्यक्ति की आत्मिक स्थिति के उत्थान-पतन का अनुमान लगाया जाता है।

अब समय आ गया है जब कि हम आत्म परीक्षण करें और अपने गत 26 वर्षों के श्रम की सफलता, असफलता का लेखा-जोखा बनावें। अखण्ड-ज्योति जो कुछ कहती सिखाती रही है उसे कितनों ने हृदयंगम किया है अब इसकी जाँच की जानी आवश्यक है। लेख अच्छे होते हैं, पसन्द भी आते हैं ऐसा कहने वाले बहुत लोग हैं, उनकी गणना ‘प्रशंसकों’ में की जा सकती है। संसार में अनेक रुचियों के लोग हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो धर्म, अध्यात्म, सदाचार आदि का विषय पढ़ना, सुनना पसन्द करते हैं। मनोरंजन का यह भी एक विषय या तरीका हो सकता है। पर इससे कुछ अधिक बनता नहीं। प्रयोजन तब पूरा होता है जब इन प्रेरणाओं को हृदयंगम किया जाय और उसके अनुसार कुछ करने के लिये कुछ कष्ट सहने के लिये, थोड़ा त्याग जैसा साहस दिखाने का भी साहस उत्पन्न हो सके। परख की कसौटी इसी तथ्य को बनाया जा सकता है।

युग निर्माण योजना के माध्यम से हमने अपने परिजनों की आन्तरिक स्थिति को परखना आरम्भ किया है। देश, धर्म, संस्कृति एवं समाज के पुनरुत्थान की इस पुण्य वेला में हमें स्वजनों के श्रम एवं सहयोग की अत्यधिक आवश्यकता है। इसके लिए समय-समय पर संकेत भी किया जाता रहा है पर अब युग निर्माण योजना का द्वितीय वर्ष समाप्त होकर तृतीय वर्ष आरम्भ होने जा रहा है, तब अगली गुरु पूर्णिमा (13 जुलाई 65) से हम अपने अन्तरंग आत्मीय जनों से इस सम्बन्ध में कुछ अधिक नियमित और अधिक स्पष्ट आशा करना आरम्भ करेंगे। “एक घण्टा, एक आना” नित्य देने के लिये गत अंक में अनुरोध किया गया है। वह उपेक्षणीय नहीं अत्यधिक आवश्यक है। आज की घड़ियाँ अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं, उनमें जागृत आत्माओं की अकर्मण्यता सहन नहीं की जा सकती। जब पड़ौस के छप्परों में आग लग रही हो तब किसी का अकर्मण्य पड़े रहना ठीक नहीं। हर व्यक्ति के सामने अपनी व्यक्तिगत समस्याएं हो सकती हैं, पारिवारिक एवं आजीविका सम्बन्धी उलझनों में व्यस्त रहने या आर्थिक शारीरिक, मानसिक चिन्ता में डूबे रहने की कठिनाई हो सकती है। पर इन सब को हल करने के लिये मनुष्य किसी न किसी तरह समय निकालता, श्रम करता एवं उपाय सोचता है। इन्हीं आवश्यक समस्याओं में एक समस्या लोक मंगल के परम पवित्र कर्तव्य का पालन करने के लिये नियमित रूप में थोड़ा त्याग करते रहने की भी मानी जानी चाहिये और उसे हल करने के लिए भी कुछ न कुछ किया ही जाना चाहिये। जो लोग फुरसत न मिलने और आर्थिक कठिनाई रहने का बहाना परमार्थ कार्य करने के लिये बनाया करते हैं उनका वास्तविक प्रयोजन यह होता है कि हमारे व्यक्तिगत कार्य ही हमारे लिये आवश्यक हैं। परमार्थ कार्य तो निरर्थक एवं पराये हैं, उनके लिये यदि बहुत अधिक फालतू समय या फालतू पैसा बचता होगा तो ही इन बेकार बातों पर ध्यान देंगे। जिनकी ऐसी मान्यता होती है उन्हीं के मुँह यह बात शोभा देती है कि हमें लोक मंगल का धर्म कर्तव्य पालन करने के लिये कुछ भी करने का अवसर नहीं है।

अपने परिवार को हमने आरम्भ से ही यह सिखाया है कि हम अपने आवश्यक से आवश्यक कार्यों से भी लोक मंगल के कार्य को कम महत्व न दें। जीवन की सफलता और असफलता का यह निर्णायक तथ्य है। राष्ट्र के जीवन मरण की समस्या है। मानव जाति का भविष्य उज्ज्वल या अन्धकारमय होना इसी बात पर निर्भर है। विचारशील और भावना सम्पन्न व्यक्ति यदि लोक मंगल के लिये नियमित रूप से समय दान करना एक अत्यन्त आवश्यक धर्म कर्तव्य न मानेंगे और व्यक्ति गत स्वार्थ संकीर्ण सीमा में उलझे हुये ही अपनी सारी शक्तियों की इतिश्री करते रहेंगे तो यही मानना होगा कि अभी जागरण पर्व दूर है, अभी उज्ज्वल भविष्य की आशा करने के दिन नहीं आये। पढ़ने या सुनने से नहीं, कुछ करने से भाग्य का निर्माण होता है। जब करने का समय आवे तब हम बहाने बनावें तो फिर यह कहना होगा कि ऐसे स्वार्थी लोगों से भरे समाज में दिन पलटने की आशा नहीं करनी चाहिये।

यद्यपि आज बाहुल्य ऐसे ही लोगों का है जो अध्यात्म का अर्थ ‘व्यक्तिगत लाभ’ मात्र मानते हैं। देवताओं का वरदान, स्वर्ग, मुक्ति या ऋद्धि-सिद्धि तक ही उनकी दृष्टि सीमित रहती है, परमार्थ का नाम सुनकर कन्नी काटते हैं, फिर भी ऐसा नहीं सोचना चाहिये कि अध्यात्म का वास्तविक तात्पर्य और उसकी उपयोगिता समझने वालों का सर्वथा अन्त हो गया है। इस अन्धकार के घटाटोप में भी टिमटिमाते सितारे विद्यमान है । अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्य उसी श्रेणी में है। उन्होंने आरम्भ से ही यह सीखा है कि आत्मा की प्रगति और ईश्वर की प्रसन्नता तब तक संभव नहीं जब तक कि व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत संकीर्णता एवं स्वार्थपरता के दायरे से निकल कर ‘लोक मंगल’ की ओर कदम बढ़ाते हुये अपनी आदर्शवादिता, सहृदयता, उदारता एवं श्रेष्ठता, का परिचय न दे। इसलिये उसके लिये देशभक्ति एवं समाज सेवा उपेक्षणीय नहीं रहती वरन् व्यक्तिगत कार्यों से भी अधिक आवश्यक, उपयोगी एवं आनन्ददायक प्रतीत होती रहती है।

अखण्ड-ज्योति परिवार के लोगों में से अधिकाँश इसी स्तर एवं इसी मनोभूमि के हैं। इसलिये हमें विश्वास बना रहता है कि अपने इन परिजनों की सहायता से नवनिर्माण के बड़े से बड़े कार्यक्रमों को आसानी से सफल बना सकेंगे। अब युग निर्माण योजना का तृतीय वर्ष आरम्भ होने पर हमारी इस मान्यता का निर्णयात्मक निश्चय भी हो जायगा। गत अंक में पूछा गया था कि ‘एक घण्टा एक आना” नित्य देने के लिए हममें से प्रत्येक को तैयार होना चाहिये। अब गुरु पूर्णिमा आ पहुँची, इसी 13 जुलाई को वह पर्व है। सामने प्रस्तुत चुनौती का ‘ना’ या ‘हाँ’ में उत्तर मिल जाना चाहिये। इस अंक के साथ एक पत्रिका संलग्न है। उसे गुरु पूर्णिमा की गुरु दक्षिणा के रूप में युग निर्माण योजना के सन्मुख प्रस्तुत किया ही जाना चाहिये। यह भार ऐसा नहीं है जिसे उठाया न जा सके। हम बहुत-सा वक्त यों ही आलस-प्रमाद में बर्बाद करते हैं उसमें से बचाकर क्या एक घण्टा जन संपर्क के लिए मंगल के लिये नहीं दिया जा सकता? मन हो तो समय अवश्य निकलेगा। फुरसत उसी काम के लिये नहीं मिला करती जिसे हम बेकार समझते हैं। नव निर्माण में सहयोग करना ‘बेकार बात’ नहीं है जो यह अनुभव करेगा वह निश्चय ही इतना समय निकाल लेगा। प्रतिदिन एक घण्टा न निकलता हो तो साप्ताहिक छुट्टी के दिन सात घण्टे इकट्ठे लगाते रहने से भी काम चल सकता है। महीने में 30 घण्टों का कोई न कोई सुविधा का समय निकल ही सकता है।

इसी प्रकार एक आना रोज अर्थात् लगभग दो रुपया मासिक भी किसी भावनाशील व्यक्ति के लिये कठिन नहीं हो सकता। यों जिस कार्य की उपयोगिता पर आस्था न हो उसके लिये एक पाई भी भारी पड़ती है। कितने ही लोग ‘अखण्ड-ज्योति’ का चन्दा भेजने तक में हर महीने 30 नये पैसे, नित्य एक नया पैसा खर्च करने तक में आर्थिक संकट का रोना रोया करते हैं। ऐसे अश्रद्धालुओं के बारे में तो कुछ न कहना ही ठीक है। पर हम में से अधिकाँश उस स्तर के नहीं हैं। जो एक घन्टा का कीमती समय खर्च कर सकने का साहस कर सकता है उसके लिये एक आना जैसा छोटा खर्च कर सकना भी भारी नहीं पड़ेगा। इस महंगाई के जमाने में एक आना कुछ माने नहीं रखता। एक पान या एक सिगरेट की यह कीमत है। एक बच्चा इतने से कम जेब खर्च लिये बिना सन्तुष्ट नहीं होता। ‘युग-निर्माण योजना’ को भी अपना एक बच्चा मान लिया जाय तो उसके भरण-पोषण के लिये न सही जेब खर्च के लिये इतनी छोटी रकम देना किसे भारी पड़ेगा? माना कि आजकल अर्थ संकट बहुत है और हर किसी को पैसे की तंगी रहती है पर यह भी ठीक है कि इतने महत्वपूर्ण कार्य का मूल्य समझने वाले के लिये इतना खर्च कर सकना कुछ भी असम्भव नहीं है। गरीब व्यक्ति भी अपनी रोटी में से एक छटाँक आटा कम करके इतना अनुदान जुटा सकता है बशर्ते कि उसमें श्रद्धा विद्यमान है। ‘अखण्ड-ज्योति’ के पाठकों की श्रद्धा असन्दिग्ध है इसलिये इन्हें इसमें कुछ भी कठिनाई अनुभव नहीं हो सकती।

अगले दिनों हम लोगों को ‘नव-निर्माण योजना’ के जन-जागरण का अलख घर-घर जगाना है। लोगों के पास जाना है और विवाहोन्माद एवं दुष्प्रवृत्तियों के परित्याग का अनुरोध करना है। हम 40 हजार व्यक्ति यदि अपने प्रभाव, ज्ञान एवं श्रम का उपयोग करेंगे और एक महीने में एक-एक वर्ष में 12 व्यक्तियों को भी अपने विचारों का बनाने की सफलता प्राप्त कर लेंगे तो अगली गुरु -पूर्णिमा पर हम 40 हजार से बढ़कर 5 लाख होंगे। यही क्रम जारी रहा तो अगले 5 वर्ष में भारत नहीं सारे संसार तक नव-जागरण का संदेश पहुँचाया जाना सम्भव हो सकेगा। नैतिक-क्राँति बौद्धिक क्राँति, सामाजिक क्रांति, का आज बहुत कठिन दीखने वाला कार्य तब इतना सरल बन जायगा कि देखने वाले आश्चर्य करेंगे। समय दान बहुत बड़ा दान है। इसे ‘अखण्ड-ज्योति’ के सदस्यों ने अपना लिया और एक घण्टा नित्य का संकल्प कर लिया तो 40000 घण्टे प्रतिदिन का सामूहिक श्रम जनता की भावनाओं और प्रवृत्तियों को उलट-पलट कर रख देने के लिये बहुत ही कारगर सिद्ध होगा।

प्रचार कार्य, जन-जन के पास नव-जीवन का सन्देश सुनाने का कार्य हमारे समयदान पर ही निर्भर है। फिर हमें परस्पर संगठन भी तो मजबूत करना है। अन्य कितनी ही रचनात्मक प्रवृत्तियों को भी तो जन्म देना है। शाखाओं का संगठन, हर व्यक्ति के षोडश संस्कारों का आयोजन, हर पर्व-त्यौहार का सामूहिक उत्सव, जन्मदिन मनाने की प्रथा प्रचलित कर घर-घर में पारिवारिक सत्संगों का आयोजन, समय-समय पर अभीष्ट उद्देश्यों की पूर्ति के लिये विशेष आयोजन करने ही होंगे। इन सब कार्यों में समय तो चाहिये ही। हम लोग समय न देंगे तो फिर यह सब होगा कैसे? कैसे तो संगठन बनेगा और कैसे जनजागरण का क्रम चलेगा? इसलिये समय-दान निताँत आवश्यक है। इसके लिये हमें साहसपूर्वक अपनी वास्तविक महानता का परिचय देते हुए इतना त्याग करते रहने का व्रत लेना ही चाहिये। अगली गुरु -पूर्णिमा यही सन्देश लेकर आ रही है।

समय दान की भाँति ही आर्थिक अंश दान भी आवश्यक है। उपरोक्त कार्यक्रमों में कुछ तो खर्च लगेगा ही। नये समाज की नई रचना के लिये प्रेरणाप्रद साहित्य अनिवार्य रूप से आवश्यक है। उसके बिना एक कदम भी आगे बढ़ना सम्भव नहीं हो सकता। इस प्रयोजन के लिये ‘युग-निर्माण योजना’ के अंतर्गत जो अत्यन्त प्रेरणा भरे ट्रैक्ट तूफानी गति से छापे जो रहे हैं वे यद्यपि अत्यन्त सस्ते रक्खे गये हैं, लाभ की एक रत्ती भी उनमें नहीं रक्खी गई। फिर भी कागज छपाई तो लगेगी ही उसका साधन तो जुटाना ही पड़ेगा। हम में से हर प्रचारक वह साहित्य अपने पास रक्खेगा ही, अपने विचार परिष्कृत करने से लेकर दूसरों को प्रेरणा देने तक का प्रयोजन इन ट्रैक्टों के बिना कैसे पूरा होगा? इन्हें मँगाना ही पड़ेगा। फिर प्रतिज्ञा-पत्रों को वितरण करना, उन्हें भराना, जिनने प्रतिज्ञायें की हैं उन्हें अभिनन्दन पत्र देना, यह प्रचार साहित्य भी तो चाहिये ही । विवाहोन्माद प्रतिरोध और दुष्प्रवृत्ति निरोध के दो-दो आन्दोलन एक साथ चलेंगे तो उनके लिए पर्चे पोस्टर, प्रतिज्ञा पत्र, अभिनन्दन पत्र, ट्रैक्ट आदि न जाने कितने छोटे-बड़े प्रचार साहित्य की जरूरत पड़ेगी। इस आवश्यकता की पूर्ति कहाँ से होगी? अपना प्रतिदिन बचाया हुआ एक आना ही इस जरूरत को पूरा करेगा। निश्चय ही यह पैसा किसी दूसरे को देना नहीं है कहीं दान का मनीआर्डर भी नहीं भेजना है, पर अपने प्रचार कार्य का साधन जुटाने में ही पैसे खर्च किये जायेंगे। यह अंशदान न किया जाय तो भावना रहते हुये भी कोई व्यक्ति विचार विस्तार की दृष्टि से कुछ विशेष कार्य न कर सकेगा। इसलिये समयदान के साथ-साथ ही आर्थिक अंशदान भी—एक आना रोज निकालते रहना भी आवश्यक है। यों सम्पन्न लोग इससे कई गुना दान कर सकते हैं और उन्हें करना भी चाहिये। शाखा संचालन में अनेक खर्चों की आवश्यकता पड़ेगी, इसकी पूर्ति परस्पर मिलजुल कर ही तो शाखा सदस्य करेंगे। इसलिये अधिक उदार लोगों को अधिक सहयोग भी चाहिये ही। पर न्यूनतम अंशदान एक आना प्रतिदिन का तो होना ही चाहिये। श्रमदान और अर्थदान दोनों मिलाकर ही एक प्रचंड शक्ति उत्पन्न होगी, जिसके द्वारा युग निर्माण जैसे महान प्रयोजन की पूर्ति की जा सके।

काम करना ही ठहरा तो उसे पूरे मन से करना चाहिए। अब तक जो परिजन अधूरे मन से नव-निर्माण योजना में योगदान देते रहे हैं उन्हें अब अपनी गतिविधि बदल देनी चाहिए। अगली गुरुपूर्णिमा से “एक घण्टा— एक आना” प्रतिदिन देने का व्रत लेकर अपने आपको एक युग-निर्माता सैनिकों की शृंखला में सम्मिलित करना चाहिए। गुरुपर्व पर इससे बड़ी श्रद्धाँजलि और कोई हो नहीं सकती। युग की पुकार हमें सुननी ही चाहिए और प्रस्तुत चुनौती को स्वीकार करना ही चाहिए। साथ में संलग्न श्रद्धाँजलि फार्म को गुरु पूर्णिमा (13 जुलाई) को भर कर मथुरा से भेजना ही चाहिए।


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