मैत्री भावना का विकास करें

July 1965

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विश्वा उतत्वया वयं धारा उदन्या इव अति गाहे महि

द्वषः॥ ऋग्वेद 2। 6। 3

“पानी की धारा एक स्थान पर नहीं टिकती, ऐसे ही वैर-भावनायें एक जगह पर रुकने न पावें। शत्रुभाव त्याग कर मित्र भाव जागृत करना चाहिए।”

निःस्वार्थ त्याग और उदारता की प्रतीक मनुष्य की मैत्री भावनाओं को कहना अधिक बुद्धिसंगत है क्योंकि अन्य सभी सम्बन्ध किसी न किसी स्वार्थ पर ही स्थिर होने हैं। मित्रता विशुद्ध हृदय की अभिव्यक्ति है। उसमें छल कपट या मोह भावना नहीं। मैत्री कर्तव्य पालन की शिक्षा देने वाली उत्कृष्ट भावना है अतः सामाजिक जीवन में उसकी विशेष प्रतिष्ठा है। दूसरों की प्रति वैर-भाव रखने से मानसिक उत्तेजना पैदा होती है जिस से मनुष्यों के स्वभाव में मूढ़ता आती है और सामाजिक सन्तुलन बिगड़ता है। जिन व्यक्तियों से शत्रुता रखते हैं मन ही मन से उन्हें नीचा दिखाने के कुचक्र चलाते रहते हैं जिससे अपनी मनोभूमि गन्दी होती है। शारीरिक शक्ति का अपव्यय होता है और स्वास्थ्य पर दूषित प्रभाव पड़ता है। दुर्भावनायें प्रत्यक्ष नरक हैं जिनमें मनुष्य अपनी प्रसन्नता तो खो ही देता है साथ ही अपनी सारी उन्नति का मार्ग अवरुद्ध बना लेता है।

मित्रता अपनी आत्मा को विकसित करने का पुण्य साधन है जिसके हृदय में प्रेम दया, सहानुभूति, करुणा आदि दैवी गुणों का विकास होता रहता है और उस मनुष्य के जीवन में सुख सम्पदाओं की कोई कमी नहीं रहती। कुविचारी व्यक्तियों को लोग घोर तकलीफ में भी देखकर उसके पास जाने से हिचकिचाते हैं। साँप के समीप जाते हुये डर लगना स्वाभाविक ही है किन्तु मित्रतापूर्ण भावनाओं के द्वारा यदि कोई अपनी आत्मा का परिष्कार कर लेता है तो एक मामूली उँगली पक जाने पर भी सहानुभूति प्रकट करने वाले दौड़ पड़ते हैं।

जिसने मैत्री भावनायें प्राप्त कर लीं उसके लिये संसार परिवार हो गया। स्वामी रामतीर्थ अमेरिका की यात्रा कर रहे थे। उनके पास अपने शरीर और उस पर पड़े हुए थोड़े से वस्त्रों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। किसी सज्जन ने उनसे पूछा आपका अमेरिका में कोई सम्बन्धी नहीं है, आपके पास धन भी नहीं है वहाँ किस तरह निर्वाह करेंगे? “राम” ने आगन्तुक की ओर देखकर कहा मेरा एक मित्र है। वह कौन है? उस व्यक्ति ने फिर पूछा। आप हैं वह मित्र जिनके यहाँ मुझे सारी सुविधायें मिल जायेंगी। और सचमुच ‘राम “ की वाणी, उनकी आत्मीयता का कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह व्यक्ति स्वामी रामतीर्थ का घनिष्ठ मित्र बन गया।

मित्रता की चाह प्रत्येक मनुष्य को होती है। पर वह ठहरती उन्हीं के पास है जिनका हृदय शुद्ध होता है। जो स्वार्थ और कामनाओं में ग्रसित होते हैं उनके सम्बन्धों में स्थायित्व नहीं होता। रोज एक मित्र बनाते हैं दूसरे दिन मित्रता टूट जाती है। यह मनुष्य के दुर्भाग्य का लक्षण है। जिसे सच्ची मैत्री उपलब्ध हुयी उसे सौभाग्यशाली ही कहेंगे।

अमेरिका के किसी पत्रकार ने एक भेंट में धन-कुबेर श्री हेनरी फोर्ड से पूछा क्या आपके जीवन में ऐसी भी वस्तु है जिसे आप प्राप्त न कर सके हों? श्री हेनरी फोर्ड ने उत्तर दिया—”यदि मुझे अपना जीवन फिर से शुरू करना पड़े तो मैं मित्रों की तलाश करूंगा। मेरे धन ने मुझे मित्रों से नहीं मिलने दिया।”

धन या कोई अन्य वस्तु देकर मैत्री खरीदी नहीं जा सकती। मनुष्य के गुण देख कर वह स्वतः मिल जाती है। जो गरीब, दुःखी और असहाय जनों को सहायता देता है। गिरे हुओं को उठाता और उनसे सहानुभूति प्रकट करता है, निराश्रितों की रक्षा करता है और उन्हें प्यार करता है उसे सच्ची मैत्री प्राप्त होती है।

पारिवारिक सुख मैत्री भावनाओं का आधार ढूँढ़ता है। पति-पत्नी, पिता-पुत्र, भाई-भाई, सास-बहू में जहाँ जिस कुटुम्ब में प्रगाढ़ मैत्री होगी वह परिवार सुख से सराबोर हो रहा है। आज इस बात का नितान्त अभाव है। कौटुम्बिक जीवन में आत्मीयता, प्रेम और सौजन्यता का नितान्त अभाव है इसी कारण द्रोह, कटुता बैर और क्षमता पर दूषित प्रभाव पड़ता है। उपार्जन मन्द पड़ जाता है फलस्वरूप चारों ओर से अभाव घेर लेते हैं और कुटुम्ब नरक के रूप में बदल जाते हैं। परिवार को एक सूत्र में पिरोकर रखने वाली भावना का नाम मैत्री है जो इसे जान गया उसने लक्ष्मी को सिद्ध कर लिया, यही समझना चाहिये।

पति-पत्नी के बीच सबसे अधिक पूर्ण निश्छल और स्वाभाविक मैत्री होती है किन्तु मिथ्या मान, हृदयहीन भ्रान्तियों के कारण मनुष्य इस आनन्द से वंचित रह जाता है। मनुष्य सोचता है कि मैं बड़ा हूँ मुझे मान मिलना चाहिये अतः वह पत्नी के साथ दासी का-सा व्यवहार करता है जहाँ ऐसी कुरूपता उत्पन्न हुई वहाँ तरह-तरह की दुर्बल आशंकायें उत्पन्न होना स्वाभाविक है और इस तरह दाम्पत्य जीवन की मधुरता क्लेश और कटुता में परिवर्तित हो जाती है।

अनात्म भावना की गन्दी विचार लहरें धीरे-धीरे वातावरण में तनावपूर्ण स्थिति पैदा कर देती हैं। उस दम घुटने वाले वातावरण में रहकर किसी को भी सुख नहीं मिला। इस तरह मनुष्य का विकास रुक जाता है। ऐसी परम्परायें, रीति-रिवाज हमारे समाज में चल पड़ी है जिन्होंने नारी और पुरुष की मित्रता और सहृदयता को असंभव सा बना दिया है। इस बात की बड़ी आवश्यकता है स्त्री-पुरुष एक दूसरे को समान समझें और एक दूसरे के हितों का उदारतापूर्वक ध्यान रखें। वेद भगवान का आदेश है—

इषे राये रमस्व संहसे द्युम्नऊर्जे अपत्याय।

साश्राऽसि स्वराऽसि सारस्वतौ त्वोत्सौ प्रावताम्॥

—यजु0 13। 35

अर्थात्—विवाह के वाद पति-पत्नी प्रीतिपूर्वक रहें।

विद्यमान तथा धनवान बनें। श्रेष्ठ गुणों को धारण कर एक दूसरे की मंगल कामना करें। धर्मानुसार सुसन्तति को जन्म दें। इस तरह वे सुखमय जीवन जियें।

पति-पत्नी की तरह ही कुटुम्ब के अन्य सदस्यों में भी स्नेह और सौजन्यता चाहिए। कटुता से कटुता बढ़ती है। हिंसा से हिंसा फैलती है, विद्वेष से विद्वेष ही पनपता है और सुखी जीवन के सम्पूर्ण आधार क्षत-विक्षत हो जाते हैं। अपार धन-सम्पत्ति होते हुये भी लोग अतृप्त, उदासीन और खिन्नता का जीवन-यापन करते हैं। सुखी जीवन के लिये वाध्य साधन कम आपेक्षित है। प्रमुख वस्तु पारिवारिक सौहार्द है। मैत्री भावनाओं से कुटुम्ब फलते-फूलते और अटूट सुख का उपभोग करते हैं।

मित्रता मनुष्य जाति का गौरव है जो जाति, जो राष्ट्र इस गौरव को बनाये रखता है उसका कभी विनाश नहीं होता। सबके हित में अपना हित सोचने में ही मनुष्य उन्नति की ओर अग्रसर होता है। अन्यायपूर्वक किसी को दबाना अच्छा नहीं होता। दुष्टता, दुष्ट को ही खा जाती हैं।

मित्रता बढ़ाने से शत्रुता कम होती है और सद्गुणों का विकास होता है। सच्ची मित्रता में भावनाओं की निपुणता और परख होती है। माता अपने बेटे के पालन में जितना धैर्य, जितनी कोमलता रखती है सच्ची मित्रता का निर्वाह भी अटूट धैर्य और मधुर भावनाओं से होता है। मित्रता का अर्थ है मेरा कोई शत्रु नहीं है, मैं सबको आत्म-भाव से देखता हूँ। सभी मेरे हितैषी हैं। मेरे ऊपर सबकी कृपा है। मैं भी लोगों के प्रति सद्भावनायें रखता हूँ, सबके उन्नति की बात सोचता हूँ। मैं समाज का हितैषी हूँ और अपनी योग्यताओं के एक अंश का लाभ समाज को भी देता हूँ। सबके साथ मुझे प्रेम पूर्ण व्यवहार, नम्रता पूर्वक वार्तालाप और शिष्ट आचार करना भाता है। इसमें मुझे पूर्ण सुख है। सब तरह सम्पन्न हूँ। मित्रता की भावना के कारण मैंने अनन्त की अनुभूति प्राप्त कर ली है। वह मित्रता मेरे सम्पूर्ण जीवन में ओत-प्रोत हो रही है।


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