समता में सब की व्यवस्था है।

July 1965

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युवा पिता स्वपरुद्र एपा, सुदृधा पृश्निः सदिना मरुद्भ्यः।

-ऋ. 5। 60। 5

अर्थात्—” संसार में न कोई बड़ा है न छोटा, परमात्मा के पुत्र, सभी मनुष्य भाई-भाई हैं। सब मनुष्य आपस में मिलकर जीवन सुखमय बनाने का प्रयत्न करें। एक ही प्रकृति माता की गोद से उत्पन्न सब समान हैं कोई ऊँच नहीं, कोई नीच नहीं।”

समता मनुष्य समाज के सुख,शान्ति और सुव्यवस्था का प्रमुख आधार है। लोगों में जब भी और जहाँ भी ऐसी प्रवृत्तियाँ विकसित हो रही होंगी वहाँ देवत्व की प्रचुर मात्रा विद्यमान होगी। जातियों को एक सूत्र में पिरोये रखने का आधार समता की भावना है। जिन जातियों में छोटे-बड़े, ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं रहता ये लौह-जंजीर की भाँति कभी न टूटने वाली रही हैं, और आगे भी उन्हीं का अस्तित्व शेष रहेगा। भेद-नीति, फूट, कलह, कटुता और पतन का कारण बनती है। हिन्दू-जाति में जब से वर्ण-व्यवस्था में गुण, कर्म और स्वभाव से उत्कृष्टता का माप-दण्ड खतम हुआ और ऊँच-नीच छोटे-बड़े की स्वतंत्र नीति बरती जाने लगी है, तभी से उसका आन्तरिक संगठन ध्वस्त हुआ और उसका पूर्व गौरव नष्ट प्रायः हो चला है। समता संगठन की रीढ़ है जिससे जातिगत शक्ति जीवित रहती है। आँतरिक सक्षमता और भौतिक समृद्धि का मूल कारण भी यही है।

पारस्परिक घृणा, अहंकार और कूटनीति के कारण लोग एक दूसरे के शत्रु बन जाते है और आपस में भीषण प्रतिशोध उठ खड़ा होता है। फलस्वरूप समय, धन और बुद्धि का अधिकाँश भाग इस बदले की भावना को शाँत करने में ही लग जाता है। जो शक्ति और साधन मानवीय उन्नति में सहायक हो सकते थे वे न केवल व्यर्थ जाते हैं वरन् समाज में पैतृक अव्यवस्था पैदा कर जाते हैं जिससे ईर्ष्या, द्वेष, कलह, कटुता, छल, कपट आदि अवगुण उस समाज के स्थायी अंग बन जाते है और जातीय जीवन को पनपने से रोक देते हैं। असमानता ही इस पतन की जड़ है। मनुष्य में जब बड़े होने की महत्वाकाँक्षा विकृत उत्पन्न हो जाती है तभी उसे सब तरह के स्वार्थ घेरते हैं। मैं सब से बड़ा हूँ-इस भावना के कारण दूसरों को छोटा; उपेक्षित समझने की हीन-भावना उदय होती है। स्वार्थ की पूर्ति के लिये ऐसे लोग धर्म और न्याय के नाम पर स्वच्छंदता का व्यवहार करते हैं। तात्कालिक शक्ति और सत्ता के बल पर यह तो सम्भव है कि कुछ समय तक ऐसे स्वार्थी, मिथ्याचारी लोग किन्हीं को दबाकर रखें या उनसे मनमाना काम लें, सतायें, परेशान करें, सामन्तवादिता और नौकरशाही प्रदर्शित करें। किन्तु दलित वर्ग पर जब इस तरह का दबाव पड़ेगा तो उसकी आँतरिक शक्तियाँ विद्रोह करने से चूकेंगी नहीं। जब भी उन्हें अवसर मिलेगा वे समाज के खिलाफ नृशंसता के खिलाफ विद्रोह कर देंगे और समाज में असंतुलन पैदा कर देंगे। धन एक स्थान पर जमा होगा तो चोरी और नीति में पक्षपात का बर्ताव होगा, तो जनता विद्रोह करने से नहीं चूकेगी, इससे आँतरिक व्यवस्था जरूर अस्त-व्यस्त होगी। ऊँच-नीच, छूत-छात की भावना स्वार्थियों की देन है। जातियों का संगठन बचाये रखने के लिये इस विरोध भावना को दूर करने में ही कल्याण है।

यह बात अधिकतर हमारे विचारने की है क्योंकि हिन्दू जाति में ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, और शूद्र की वर्ण व्यवस्था को ऐसा विकृत रूप दिया जाता है। गुण,कर्म, और स्वभाव के अनुरूप श्रेष्ठता, अश्रेष्ठता की भावना अब नहीं रही। जन्म से कोई ब्राह्मण है और कर्म भले ही शूद्रों जैसे हों तो भी श्रेष्ठता का सम्मान उसे ही मिलेगा, इस भूल को यदि हम समझ पायें तो अन्य जातियों के समक्ष हमारी जो मानहानि हुई है उससे निकल सकते हैं और हिन्दू संगठन को पुनः जीवित और जागृत कर सकते हैं।

हिन्दू धर्म जिस सूत्र पर आधारित है वह वस्तुतः समता का ही सिद्धाँत है। सच्चे साम्यवाद के दर्शन भारतीय संस्कृति में ही देखने को मिलते हैं। समाज निर्माण के लिये समान व्यक्तित्व निर्माण की आवश्यकता होती है। जब अपने लिये, समाज के लिये, प्राणिमात्र के लिये और ईश्वरीय विधान के लिये सहयोगी के रूप में कर्त्तव्य पालन करता है तभी ऊँच-नीच की अज्ञानता मिटनी संभव होती है। एक के लिये शेष तीन को त्यागा नहीं जा सकता। व्यक्तिगत सुख, साधन और श्रेष्ठतायें अधिकतम मात्रा में अर्जित की जा सकती हैं किन्तु उससे, समाज को दोष न लगना चाहिए, प्राणियों को पीड़ा न पहुँचनी चाहिये, ईश्वरीय नियमों की अवहेलना भी न होनी चाहिए।

मनुष्यों ने यह जो जाति-पाँति, भाषा-भाव, प्राँत-वाद धर्म-विचार की संकीर्णता पैदा की है उससे ईश्वरीय नियमों की उपेक्षा होती है। बाहरी दृष्टि से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र दिखाई देने वालो जिस तरह आत्मिक दृष्टि से समान हैं उसी तरह अन्य जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, भी हम से आपसे भिन्न नहीं हैं। आफिस का बाबू अपने काम का अलग वेतन पाता है, फैक्टरी का कर्मचारी अलग। अपनी अपनी योग्यता का लाभ उतने ही अंश में दोनों को मिल रहा है फिर दफ्तर का बाबू यदि बड़ा बनने का अभिमान प्रदर्शित करे तो उसे उसका मिथ्या-दर्प ही कहा जायगा। इसी प्रकार बैल को यही क्या कम सजा है कि वह मूक होकर आपकी सेवा करने को विवश किया गया है, आपको इतना ही अधिकार हो सकता है कि उसकी सेवायें ले लीजिये। उसे मारने,दिन-रात काम लेने और जीवनयापन की पूरी सुविधायें न देने के हकदार आप ही हैं। मनुष्य का दृष्टिकोण जब तक इतना विशाल,इतना खुला हुआ नहीं बनता तब तक उसके जीवन में शाँति और सुव्यवस्था का अभाव ही बना रहेगा।

प्रकृति अपने अनुदान समान रूप से बाँटती है। हवा बहती है— वह सबके लिए,वर्षा होती है, वह सबके लिये, फल उगते हैं, वह सबके लिए। अग्नि कभी किसी के साथ पक्षपात नहीं करती। सूर्य किसी एक घर को ही प्रकाशित नहीं करता। चन्द्रमा का औषधि-तत्व सम्पूर्ण वृक्ष-वनस्पति चूसते रहते हैं। परमात्मा का प्राण संसार के सम्पूर्ण प्राणियों के लिए समान रूप से बिखरा पड़ा हैं जिसकी जितनी इच्छा हो उतना उपभोग करें। प्रकृति कभी किसी के साथ अन्याय नहीं करती। असहाय, साधन विहीन पशु-पक्षियों के लिये भी वह आहार आदि की व्यवस्था करती है। मनुष्य है जो केवल अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये विषमता के बीज बोकर समाज में अशाँति और अव्यवस्था पैदा करता है। साम्यावस्था को प्रकृति और विषमता को विकृति कहते हैं। समता ही धर्म है और विषमता ही अधर्म है। विषमता बढ़ती है तो सर्व-साधारण को सुविधापूर्वक जीवन बिताना भी कठिन हो जाता है। कुछ लोग ऐश्वर्य-वाली होकर विलासिता का जीवन बितायें और पड़ौस का दूसरा व्यक्ति एक समय का भरपेट भोजन भी न पाये, तो उस मनुष्य को, उस समाज को कलंकित ही ठहराया जायगा। प्राचीन काल में जिनके पास अधिक धन, अन्न और वस्त्र आदि होते थे वे अपनी आवश्यकताओं से शेष बचे हिस्से कसो उदारतापूर्वक उन लोगों को बाँट देते थे जिन्हें उसकी आवश्यकता होती थी। इस तरह व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का संरक्षण भी होता था और समाज में ईर्ष्या-द्वेष की भावनायें भी नहीं बढ़ती थीं।

जिस तरह मनुष्य-मनुष्य के बीच में, देश, जाति, भाषा धर्म, काले, गोरे ऊँच-नीच, धनी, निर्धन आदि का भेदभाव देखा जाता है वैसी ही यह भी संकीर्णता है कि मनुष्य अपने आपको शेष प्राणियों से अलग कि ये हुए हैं। संसार के अन्य जीवधारी भी यदि देखा जाय तो उसी प्रकृति माता के पुत्र हैं जिसके गर्भ से मनुष्य जीवन पाता है। उनमें भी कितनी ही ऐसी विशेषतायें देखने को मिलती हैं जो मनुष्य की बुद्धि और उपलब्धि से भी बढ़कर होती हैं। वे भी इस धरती में समान रूप से जीवित रहने के अधिकारी हैं। उनके इन अधिकारों को छोड़कर, उन्हें अपने उपभोग और आहार की वस्तु समझ कर मनुष्य ने बड़ा अपयश कमाया है। अन्य जीवधारियों के शोषण का पाप मनुष्य के सिर पर है। उसे मिटाना तभी संभव है जब वह मनुष्य की और अन्य प्राणियों की आत्मिक एकता को समझे और सबके साथ वैसा ही व्यवहार करे जैसा वह अपने लिए औरों से अपेक्षा करता है।


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