आत्मघात न करें इसी में आपका भला है।

July 1965

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मनुष्य का जीवन कितना श्रेष्ठ तथा सामर्थ्यवान है इसका अनुमान संभवतः अन्य जीव-जन्तुओं को अधिक होगा। शरीर और बुद्धि की शक्तियों का विस्तार करके कितने विचित्र अनुसंधान किये हैं उसने, कि सूर्य, चन्द्रमा भी उसके तीखे प्रहारों से भयभीत हो रहे हैं। विचार-विनिमय, साहित्य, संगीत, आहार-विहार में कितनी ही विशेषतायें उसे मिली हैं इनसे वह परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ पुत्र कहलाने का निःसन्देह अधिकारी है।

किन्तु विचार करके देखते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य का जीवन अन्य जीव-जन्तुओं की अपेक्षा भी अधिक गयाबीता है। आचार-विचार, बर्ताव-व्यवहार, व्यवसाय, खान-पान और रहन-सहन में उसने इतने दुष्टतापूर्ण कृत्यों का समावेश कर लिया है कि वह स्वयं दीन-हीन, रोगी, कुरूप, अशक्त , अभाव-ग्रस्त तो है ही दूसरे जीवों को भी आतंकित कर रखा है। दुःख और पतन का कारण मनुष्य स्वयं है, अपने साथ दुर्व्यवहार स्वयं मनुष्य ने ही किया है। आत्म-घात का दोषी वह स्वयं ही है। इसके लिये न दैव दोषी है न परिस्थितियाँ। अपना शत्रु या मित्र मनुष्य स्वयं है, इसका उत्तरदायित्व किसी दूसरे पर नहीं है।

संसार में दो तरह के व्यक्ति होते हैं। (1) सदाचारी (2 ) दुराचारी। सद्व्यवहारशील पुरुष वह होते हैं जो सबकी भलाई में अपनी भलाई देखते हैं। अपने शरीर तथा मन की शक्तियों को विकसित करके दूसरों को सुख पहुँचाते हैं। परोपकार की इस भावना के कारण वे स्वयं भी सुखों से ओत-प्रोत रहते हैं। अपने पास-पड़ोसियों को भी संतुष्ट रखते हैं। किन्तु दुर्जन अपने अभद्र व्यवहार, अश्लील आचरण और अत्याचार करते हुए दूसरों को पीड़ा पहुँचाते रहते हैं। दुर्व्यवहार का अन्तिम परिणाम दुःख है। दूसरों के साथ दुष्टता करने वाले अपने हितों का सर्वनाश पहले कर लेते हैं।

अपने हित की बात होती है तो सभी सुख और शान्ति चाहते हैं किन्तु व्यवहार में वह दूसरों के साथ भी ऐसा ही चाहें, तो हम मानेंगे कि वह नेक हैं और उनकी कामनायें सही हैं। दुर्व्यवहार का कुफल दुःख और बेचैनी है। फिर वह चाहे अपने साथ हो या दूसरे के साथ, दुःखद ही होगा। भलाई की बात यह है कि आप जो औरों से अपने लिये चाहते हैं वैसा ही बर्ताव दूसरों के साथ भी करें।

बुद्धि और विचार की शक्ति मनुष्य में इतर प्राणियों की अपेक्षा अधिक है इसलिए वह अपनी भलाई का विचार कर सकता है। बुद्धि के सदुपयोग या दुरुपयोग से ही वह सुख शान्ति या क्लेश और कलह की परिस्थितियाँ तैयार करता है। इसका दोषारोपण किसी दूसरे पर करना मनुष्य की जड़ता का ही चिह्न समझा जायगा। मनुष्य अपने कर्मों का फल आप भोगता है इसके लिए किसी दूसरे को अपराधी नहीं कह सकते।

अपनी शारीरिक त्रुटियों पर विचार कीजिए? कितनी गन्दी आदतों का समावेश हो गया है आज के जन-जीवन में। पान, बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू, मिर्च मसाले, मिठाई, खटाई, अंडे, माँस आदि कितने अभक्ष्य पदार्थों का सेवन लोग करते हैं। इससे लोगों के स्वास्थ्य खराब हों तो इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है। रोज नई-नई बीमारियाँ उठती आ रही हैं तो इसका दोषी और कौन होगा? दूध, घी जैसी जीवनोपयोगी चीजों में कितनी मिलावट होने लगी है? शक्ति और सार तत्व नष्ट हो गये हैं पर कटोरियाँ सजाने का फैशन बढ़ गया है। एक और खाद्य पदार्थों में दूषित तत्वों का प्रवेश और दूसरी ओर बढ़ती हुई असंयम की प्रवृत्ति। दोनों ने मिलकर स्वास्थ्य की ऐसी बरबादी मचाई है कि लोगों में चलने-फिरने जितनी ही शक्ति शेष बची है। मौसम के हलके परिवर्तन को भी सहन करने की शक्ति तक नहीं रही मनुष्यों के शरीरों में। शरीर के प्रति आत्म-घात के इतने भयानक परिणाम मनुष्य के नाम पर कलंक ही लगा रहे हैं।

संसार का सबसे धनी देश अमेरिका, जहाँ धन और साधनों की किसी तरह की कमी नहीं है, उसे धन-सम्पन्न नहीं, रोग-सम्पन्न कहना अधिक उपयुक्त होगा। न्यूयार्क के ‘जेरिआट्रिओज क्लिनिक’—मेट्रोपालिटन अस्पताल के डॉ0 डब्ल्यू कोड़ा मार्टिन के कथनानुसार रजिस्टर पर अंकित जीर्ण रोगियों की संख्या 188 95 534 है। सन् 1954 की गणना के अनुसार कैंसर से मरने वाले अमेरिकियों की संख्या प्रतिवर्ष 250000, हृदय रोग से 817000 है। 7000000 से अधिक व्यक्ति संधि-प्रदाह तथा अन्य वात रोगों से ग्रसित हैं। 231 व्यक्तियों में से 10 व्यक्ति उपदंश या प्रमेह के रोगी, 60 प्रतिशत लोगों की आंखें खराब होना निःसन्देह अमेरिका के लिये कलंक की बात है। जिस देश में प्रतिवर्ष 100000000 डालर निद्रा लाने वाली औषधियों में खर्च होते हों वह देश सुखी होगा ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह अवस्था सर्व-सम्पन्न देश अमेरिका की है तो शेष दुनिया के अभावग्रस्त देशों की स्थिति कैसी होगी इस का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

मनुष्य की इन परेशानियों का कारण केवल आहार सम्बन्धी दोष नहीं है। मनुष्य का नैतिक स्तर गिर जाना सबसे बड़ा कारण है। अश्लील साहित्य, सिनेमा के गन्दे गाने और भद्दे चित्रों से कामोत्तेजना के कारण मनुष्य का शरीर तो बरबाद होता ही है, मानसिक संस्थान भी दूषित होता है जिसके फलस्वरूप सारा जीवन दुःख, शोक और रोगों के रूप में दिखाई देता है। लोगों की शान-शौकत, तड़क-भड़क, शृंगार प्रियता के कारण चारित्रिक पतन भी अपनी सीमा पर पहुँच गया है। आर्थिक व्यवस्था भी लड़खड़ा रही है। मनुष्य को किसी तरफ चैन या संतोष नहीं मिल रहा, बेचारा विक्षिप्त-सा होकर इधर-उधर भटक रहा है।

भ्रष्टाचार के कारण आज सभी दुःखी हैं फिर भी नैतिक साहस किसी में नहीं आता। सभी स्वार्थ साधनों में लिप्त हैं। स्वयं कुछ न देकर, दूसरों से ऐंठ लेने की नीति के कारण न तो कहीं सहयोग रह गया है न सहानुभूति। मुसीबतों में सच्चे हृदय से सहानुभूति दिखाने वाले भी नहीं रहे। मानवता का इतना अधःपतन शायद ही किसी युग में हुआ हो। उसी अनुपात में लोगों का कष्ट और पीड़ाओं से परेशान होना भी स्वाभाविक ही है।

सद्विचारों की अवहेलना, धन का लालच, आपसी दुर्व्यवहार और नैतिक पतन के कारण मनुष्यों के शरीर और मन पर दूषित असर पड़ा है। चिन्ता, भय, विषाद रोग, शोक, कष्ट और निराशा के दुर्विचार मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ते इसी कारण मनुष्य निरन्तर अस्त-व्यस्त और अशान्त रहता है। दुर्व्यवहार की बड़ी दूषित प्रतिक्रिया छाई है इस संसार में। यहाँ रहते हुये मनुष्य का दम घुट रहा हो तो इसका अपराधी मनुष्य के अतिरिक्त भला और कौन होगा।

इन भौतिक जंजालों में मनुष्य इस तरह ग्रसित हो गया है कि उसे जीवन का सात्विक लक्ष्य प्राप्त करने की कभी सुध भी नहीं आती। विज्ञानवाद के फेर में पड़कर मनुष्य आत्मा की सत्ता से ही इनकार कर बैठा है। भोग-परक मानवीय प्रवृत्तियाँ तो बढ़ रही हैं किन्तु शील और सदाचार की तरफ देखने को भी लोगों को फुरसत नहीं, मिल रही। दूसरों को कष्ट पहुँचा कर मनमाने ढंग से सुख लूटने की कुत्सित कामनाओं के कारण लोक-जीवन के सारे सुख लगभग नष्ट हो चुके हैं। अब मनुष्य अपना ही विनाश करने पर तुला हुआ है। यह समस्यायें ऐसी ही बनी रहीं तो सर्वनाश हो जाना संभव ही है।

अपने सुखों को बरबाद कर डालने की जिम्मेदारी मनुष्य पर ही है। आत्म-कल्याण की आवश्यकता और उसके लिये उचित प्रयत्नों की बात भुलाकर मनुष्य असुरता की ओर बढ़ रहा है। इसी से वह दुःखी है। छुटकारे का उपाय एक ही है कि वह इन पतनोन्मुख दुष्प्रवृत्तियों का परित्याग करे और सदाचारी जीवन जीने में सुख और संतोष अनुभव करे।

यह कार्य हमें स्वयं ही करना होगा। अपनी परिस्थितियों का निर्माता मनुष्य स्वयं है। सुख और समुन्नति के लिये आत्म-घातिनी दुष्प्रवृत्तियों से दूर रहने और सत्य, न्याय, समता आदि सद्गुणों का प्रसार उसे ही करना पड़ेगा। हमारी भलाई भी इसी में है। सदाचरण को अपनाकर ही हम सुखी रह सकते हैं।


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