आत्म-भावना से आत्म-कल्याण

July 1965

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मनुष्य के अतिरिक्त इस सृष्टि में और भी अनेकों जीव-जन्तु हैं। शेर, हाथी, खरगोश, सियार, भेड़िया, भालू, मोर, कौवा, तीतर, बटेर, सर्प, मछलियाँ, चमगादड़ असंख्य असंख्य योनियाँ इस वसुमती-वसुन्धरा में विद्यमान हैं। इनमें से कोई शक्ति में मनुष्य से बड़ा है, कोई सौंदर्य में, किसी को घ्राण-शक्ति अधिक मिली है किसी में स्वर-सौंदर्य अधिक है। किन्तु मनुष्य को छोड़कर दूसरे प्राणियों में अपना कल्याण चिन्तन करने की योग्यता नहीं है। प्राकृतिक प्रेरणा से अन्य जीव, सामयिक प्रयोजन के अनुसार आहार, निद्रा, भय और विहार में रत रहते हैं। इससे अतिरिक्त आत्म-कल्याण की बात सोच लेना अन्य जीवों के वश की बात नहीं है। ऐसी विकेन्द्रित शक्ति और क्षमताएं भी उन्हें नहीं मिली हैं।

इतना सब कुछ होते हुए भी मनुष्येत्तर प्राणियों में आत्मोद्धार की भावना नहीं होती। इसका उन्हें ज्ञान भी नहीं होता। पर मनुष्य में अनेक शक्तियाँ एक साथ आकर संकलित हुई हैं। इन शक्तियों का यदि आत्म-कल्याण के लिये सदुपयोग न हो और मनुष्य भी अन्य जीवों की तरह आहार, निद्रा, कलह, काम आदि में ही प्रवृत्त रहे तो इसे उसकी बुद्धिमत्ता न कहेंगे। यही समझा जायगा कि उसने जीवन-लक्ष्य प्राप्त करने के मूल उद्देश्य की अवहेलना की है।

देश, काल और कार्य-कारण भाव से परे प्रत्येक व्यक्ति में एक तत्व उपस्थित है। यह तत्व सभी की आत्मा है। मनुष्य शरीर नहीं है। वह परमात्मा का अविनाशी-अंश जीवात्मा है। देश काल आदि से परे होने के कारण वह सर्वत्र एक ही है। यह तत्व बुद्धि से भी परे है। बुद्धि का काम केवल दृश्यमान जगत तक ही सीमित है किन्तु आत्म-तत्व सम्पूर्ण विश्व में समाविष्ट है। बुद्धि को जब उसी में अन्तर्हित कर देते हैं तब वह परिलक्षित होता है। यद्यपि वह मन के संकल्प-विकल्प से परे है तो भी मन को जब उसमें विलय कर देते हैं तो आत्मानुभूति होने लगती है।

आत्मा जिस प्रकार अपने आप में विद्यमान है उसी तरह सम्पूर्ण प्राणियों में भी वही समाया है। एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य से प्रेम होना एकत्व का भाव है जो आत्मा की ही देन है। प्रत्येक व्यक्ति इस तरह दूसरों से जो प्रेम करता है वह प्रेम उसे ही मिलता है। सबके लिये उपकार की, भलाई की भावनायें अपने लिये ही लौट आती हैं। बाह्य दृष्टि से कोई यह भले ही सोचे कि उपकार-कर्त्ता को, श्रेय का दान करने वाले को, घाटा उठाना पड़ता है किन्तु ऐसी बात नहीं है। लोक-सेवा एक प्रकार की आत्म-सेवा ही है, इससे मनुष्य के आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है।

सभी जीव सुख चाहते हैं, आनन्द की खोज में हैं, किन्तु सभी का सुख समान नहीं है। दुष्ट प्रकृति के व्यक्ति विषय-सुख के लिये लालायित रहते हैं और उसी में आकंठ डूबे रहते हैं। पशुओं की तरह भविष्य की, पारलौकिक जीवन की उन्हें कोई चिन्ता नहीं होती। जैसे भी हो अपनी सुख-सामग्री जुटाने में ही व्यस्त रहते हैं। इसके लिये वे झूठ, चोरी, ठगी, डकैती, हत्या, बलात्कार आदि कोई भी पाप करने से नहीं हिचकिचाते। दूसरे के हित कल्याण की बात उनकी कल्पना तक में नहीं आती। इन्द्रियों के उन्मत्त सेवक, भोग के लिये ही जीते हैं और उसी में रोते-झींकते मर-खप कर स्वाहा हो जाते हैं।

दूसरों का अनिष्ट करके, उन्हें कष्ट और क्लेश पहुँचा कर अपने सुख-साधन की चेष्टा करना उचित नहीं है। इसमें स्वयं को भी दुःख, कष्ट तो उठाना पड़ता ही है, पापों का एक बना बनाया गट्ठर सिर पर और सवार हो जाता है। उसके लिये चतुर्दिक् भय और यातनाओं के ही दिग्दर्शन होंगे। कभी शारीरिक कष्ट, कभी राज-दण्ड का भय। लोक-निन्दा तथा घृणा का पात्र बनकर समाज में रहना कठिन हो जाता है। यह स्थिति मनुष्य अपने क्षुद्र स्वार्थ, अनात्म-भावना से बनाता है और उसका दण्ड भी स्वयं ही भोगता है।

ऐसे व्यक्तियों का जीवन नारकीय कहा गया है और उनकी बड़ी भर्त्सना की गई है। छान्दोग्य उपनिषद् में शास्त्रकार ने एक कथोपकथन प्रस्तुत किया है—श्वेतकेतु के पिता उसे समझाते हुए कहते हैं—

“तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो हयत्ते रमणीयाँ योनिमापद्येरन् ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिय योनिं वा वैश्य योनिं वाथ य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूय योनिमा-पद्येरञ्श्वयोनिं वा सूकरयोनिं वा चाण्डालयोनिं वा।”

अर्थात्-इन जीवों में जो इस लोक में-आत्मभावना से शुभ आचरण वाले होते हैं वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि उत्तम योनि को प्राप्त होते हैं किन्तु जो अधम कृत्य और दुष्ट आचरण वाले होते हैं उन्हें अधम योनि में ही जन्म धारण करना पड़ता है वे कुत्ते, सुअर या चाण्डाल योनि को प्राप्त होते हैं।”

यह स्पष्ट है कि मनुष्य स्वार्थवश ही दुष्कर्म करते हैं, इसी से उनकी दुर्गति होती है किन्तु जो सम्पूर्ण प्राणियों को आत्म दृष्टि से देखते हैं उनके लिये जीव-जन्तु कीट-पतंग का कोई भाव नहीं आता। सभी प्राणी ईश्वर के बालक हैं। परमात्मा ही उन सब में आत्म-रूप से विराजित हैं। इसलिये उन सभी का आदर करना चाहिये, सुख पहुँचाना चाहिये। किसी को दुःख न मिले, किसी को त्रास न दें। सबके साथ मधुरता का व्यवहार हो, तो इसे ईश्वर की सच्ची सेवा मानेंगे और उसके प्रतिफल भी आत्म-कल्याण-कारक ही होंगे।

आत्म-भाव के चिन्तन से साधारण मानसिक चिन्तायें नष्ट हो जाती हैं। बाह्य जगत का चिन्तन करते रहने के कारण ही मनुष्य हानि-लाभ के व्यापार में फँस जाता है। पहले तो वह इन साँसारिक विषयों का चिन्तन करता है, किन्तु वह व्यापार जब पूर्ण रूप से अभ्यास में आ जाता है तो विषय स्वयं ही उसे आबद्ध कर लेते हैं। इस बात का अनुभव तब होता है जब यह महसूस करते हैं कि हम गलत दिशा में भटक रहे हैं और मन पर नियंत्रण करने की चेष्टा करते हैं। वे उतनी ही तेजी से प्रत्याक्रमण करते हैं और जीव को बार-बार अपनी ओर घसीटते हैं इससे मानसिक द्वंद्व बढ़ता है, बौद्धिक, क्षमता घटती है और अशान्ति बढ़ती जाती है। थक जाने से जिस तरह शारीरिक शक्ति का पतन होता है और निर्बलता अनुभव होती है, विषय चिन्तन से ठीक उसी प्रकार मानसिक-थकावट बढ़ती है और सही सोचने की मानसिक शक्ति बिल्कुल नष्ट हो जाती है।

मानसिक थकावट का स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है। नींद नहीं आती, पाचन संस्थान खराब हो जाता है। परिणाम स्वरूप और भी अशान्ति बढ़ जाती है।

आत्म-भावना के मनन से मनुष्य की अन्तर्मुखी दृष्टि जागृत होती है। वह समझने लगता है कि नाशवान् शरीर के प्रयोजन उतने आवश्यक नहीं जितने आत्म-कल्याण के। इससे उसमें निश्चयात्मक वृत्ति आती है और वह धीरे-धीरे मन को वशवर्ती बनाने की अभ्यास करने लगता है। मन अभ्यास का गुलाम है, उसे तो आप जिधर ही लगा देंगे उधर ही आपकी आज्ञाओं का पालन करने लगता है। खुली छूट और स्वेच्छाचारिता बरतने देने से ही मन उद्दण्ड और विषय लोलुप बनता है। अतः उसे बार-बार आत्म-चिन्तन की ओर मोड़ना चाहिये। बुराई के प्रति भय दिखाते रहना चाहिये।

अंतर्मुखी होना भावनात्मक प्रक्रिया है। इसे कर्म द्वारा तभी व्यक्त कर सकते हैं जब वैसे उत्कृष्ट भाव मस्तिष्क में पहले से ही विद्यमान हों। स्वामी रामकृष्ण परमहंस सदैव इस बात पर जोर देते रहते थे कि अद्वैत दृष्टि भाव में है, क्रिया में नहीं। तात्विक दृष्टि से गाय और बाघ भी आत्मा हैं किन्तु आत्म-भावना न होने से ही बाघ गाय को खा जाता है। तात्पर्य यह है कि अद्वैत की भावना यदि नहीं आती तो मानसिक हिंसा होगी और दुष्परिणाम भी भोगने ही पड़ेंगे।

आत्म-भावना मनुष्य को सन्मार्गगामी बनाती है और उसकी आन्तरिक शक्तियों को विकसित कर पारमार्थिक लक्ष्य की ओर अग्रसर करती है, यह ठीक है किन्तु लोक-व्यवहार सदैव शरीर तथा स्वभाव के अनुसार ही करना चाहिये। हाथी, बाघ, अजगर आदि में भी वही आत्मा विद्यमान है किन्तु उनका स्वभाव इस योग्य नहीं होता कि उनके साथ किसी तरह का भलमनसाहत का व्यवहार किया जाय। उन्हें आदर या सम्मान नहीं दिया जा सकता। इससे आत्म-भावना को अधूरा नहीं समझना चाहिये। आपकी भावनाओं का लाभ तो आपको मिलेगा ही पर लोक-व्यवहार में गुण,कर्म और स्वभाव को ही देखकर अपने कर्तव्य का अनुमान किया जाता है।


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