श्रम ही नहीं विश्राम भी

July 1965

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श्रम की उपयोगिता निःसन्देह बहुत अधिक है। शारीरिक अंगों के परिचालन, रक्त -संचार में क्रिया-शीलता तथा पाचन संयन्त्रों को मजबूत बनाये रखने के लिये परिश्रम का बड़ा महत्व है। इसमें आलस्य करने से स्वास्थ्य गिरता है, शक्ति क्षीण होती है और स्फूर्ति चली जाती है। आलस्य और प्रमाद से जीवन का हर एक पहलू प्रभावित हुये बिना नहीं रह पाता। इससे शारीरिक शक्तियाँ शिथिल पड़ जाती हैं, मनोबल गिरता है और समाज का गौरव नष्ट हो जाता है। सचमुच परिश्रम जीवन का प्रकाश है जिससे मनुष्य सरलतापूर्वक अपनी विकास-यात्रा पूरी कर लेता है।

किन्तु इसका एक दूसरा पहलू भी है। वह यह है कि निरन्तर श्रम करते रहने से शारीरिक शक्ति का एक निश्चित अंश खर्च हो जाता है। इससे शिथिलता आ जाती है और शरीर टूटने लगता है। नैसर्गिक रूप से पुनः जीवन शक्ति प्राप्त करने के लिये स्वयं प्रकृति हमें विश्राम करने लिए विवश कर देती है। श्रम के बाद विश्राम की इसलिये अतीव आवश्यकता है। दिन के बाद रात, जीवन और मृत्यु का क्रम इसी सिद्धान्त पर आधारित है कि अति श्रम से उत्पन्न शक्ति-ह्रास दूर करके अगले जीवन के लिये पर्याप्त शक्ति व सजीवता प्राप्त करली जाये। श्रम का विश्राम से ऐसा ही सम्बन्ध है। संयत-जीवन का आधार यही है कि हम परिश्रम तो करें किन्तु विश्राम करना भी न भूलें। इससे शक्ति और शान्ति मिलती है।

बड़ी-बड़ी मशीनों को भी निश्चित समय के बाद विश्राम देना पड़ता है। सप्ताह में एक दिन रविवार का अवकाश इसलिये दिया जाता है कि शेष 6 दिन तक जो शरीर शिथिल होता रहा, मानसिक तनाव पैदा हुआ, शक्ति खोई उसे एक दिन पूर्ण विश्राम देकर फिर से ठीक कर लें। श्रम एक प्रकार का ध्वंस कार्य है। हर श्रमयुक्त कार्य से शरीर का कुछ न कुछ अंश अवश्य क्षय होता है। इसे पुनः प्राप्त करने के लिये ही यह अवकाश देने की पद्धति चलाई गई है। इससे खोयी हुई सामर्थ्य शक्ति व क्षमता आसानी से पूरी हो जाती है। इस प्रकार विश्राम में बिताया हुआ समय कभी भी निरर्थक नहीं जाता। वरन् आगे के लिये शक्ति -संचय करली जाती है।

मानव-जीवन में ऐसा सुयोग सरल नहीं है इस युग में तो यह समस्या और भी जटिल रूप धारण कर चुकी है। आज की परिस्थितियों में आवश्यकतायें इतनी बढ़ गई हैं कि उन्हें ही जुटाने से मनुष्य को फुरसत नहीं मिलती। अभाव और दरिद्रता, लोभ और प्रभुत्व की महत्वाकांक्षाओं के कारण लोगों में बड़ी बेचैनी उठ रही है। सभी उतावले होकर इन अनियन्त्रित कामनाओं के पीछे बुरी तरह पागल हो रहे हैं। इसका मनुष्य के स्वास्थ्य पर कितना दूषित प्रभाव पड़ा है यह किसी से छुपा नहीं है। आठ घण्टे आफिस में काम करके आये हैं तो घड़ी भर चैन से बैठे नहीं कि ट्यूशन पढ़ाने चल दिये। वहाँ से लौट कर आये तो दूसरे भारी काम करने पड़े। हारा थका शरीर किसी प्रकार विवश होकर आज्ञायें तो पूर्ण करता रहता है किन्तु यह क्रम देर तक नहीं चल पाता कि कोई बीमारी, कमजोरी या रोग आ दबोचता है। फिर अति-श्रम से कमाया हुआ यह धन डाक्टरों की भेंट में ही स्वाहा कर देना पड़ता है। स्वास्थ्य की खराबी हुई, शक्ति का पतन हुआ सो एक तरफ ।

कार्य-व्यस्तता बुरी नहीं, किन्तु समुचित विश्राम भर तो मिले। कड़ी धूप में कठोर शारीरिक श्रम करने वालो किसान हर थोड़ी देर के बाद किसी घने वृक्ष की शीतल छाया में आराम कर लेते हैं तो दुबारा काम करने की शक्ति मिल जाती है। ऐसा अभ्यास बनाया जा सकता है कि चार घण्टे के परिश्रम के बाद आधा घन्टे बैठकर या लेटकर विश्राम भी कर लें। इससे स्वास्थ्य स्थिर बना रहता है।

कार्य से शारीरिक शक्ति का पतन उतना नहीं हो जितना जल्दबाजी और चिन्ता से। एक कहावत है-”आदमी कैसे मरा? काम के बोझ से? नहीं जल्दबाजी और उद्वेग से।” दूसरों से आगे बढ़ जाने की प्रतियोगिता पूर्ण महत्वाकांक्षा के कारण मनुष्य को इतनी उतावला इतनी जल्दबाजी मचती है कि वह एक दिन में सारी आवश्यकताओं की अधिक से अधिक पूर्ति कर लेना चाहता है। इस दौड़ धूप के कारण बेचारा आधी घड़ी विश्राम भी नहीं कर पाता। व्यर्थ ही शारीरिक शक्तियों को घुलाता रहता है। इसका परिणाम थोड़े ही दिनों में स्वास्थ्य की खराबी के रूप में दिखाई पड़ने लगता है तो बुरी तरह पछताते दुःखी एवं चिन्तित होते हैं। आखिर इस जल्दबाजी में क्या रखा है, यह एक विचारणीय बात है। यह मानसिक अस्थिरता कभी भी विश्राम नहीं लेने देती। इससे बचने में ही श्रेय है, इसी से स्वास्थ्य सुरक्षित रखा जा सकता है।

विश्राम का यह अर्थ कदापि नहीं होता कि जब काम से थक जाय तो बैठकर या लेटकर शारीरिक थकान तो दूर करें किन्तु मन में बुरी तरह दुश्चिन्तायें घूमती रहें। विद्वेष, क्रोध, प्रतिशोध और हिंसा की भावनायें उठ रही हों तो शारीरिक दृष्टि से विश्राम करते हुये भी आराम न मिलेगा। मानसिक बेचैनी का शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इससे धमनियाँ शिथिल पड़ जाती हैं, खून खराब होने लगता है और स्वास्थ्य गिर जाता है।

विश्राम की सार्थकता मानसिक तनाव से बच कर शारीरिक थकान को मिटाने से होती है। यह उद्देश्य सो जाने या निष्क्रिय बैठ जाने मात्र से नहीं पूरा होता। इस समय वे सभी साधन, जो मानसिक थकान को दूर करते मनोरंजन, प्रसन्नता, उत्साह और प्रफुल्लता प्रदान करते हों, उन्हें भी अपनाया जाना चाहिये ताकि शरीर और मन दोनों का विश्राम हो जाय।

सामूहिक रूप से हँसते गाते और मनोरंजन करते हुए किसान दिन भर कड़ी मेहनत करते रहते हैं। सैनिकों में मनो-विनोद की आदत पड़ जाती है जिससे वे चौबीसों घण्टे कार्य कर सकने की क्षमता रखते हैं। इससे यह पता चलता है कि मानसिक विश्राम शारीरिक विश्राम से भी आवश्यक है। स्वास्थ्य को सुस्थिर बनाये रखने के लिये इन दोनों की ही आवश्यकता है, डॉ0 हरबर्ट ए॰ रेमन का कथन है कि शारीरिक विश्राम का मानसिक विश्राम से मेल होने पर ही शरीर को पूर्ण विश्राम का सौभाग्य मिलता है।

मानसिक तनाव के कारण देखा गया है कि प्रायः लोगों को बड़ी देर तक नींद नहीं आती। यद्यपि शरीर चारपाई पर लेटा हुआ रहता है, पर इससे विश्राम की आवश्यकता पूरी नहीं हो पाती है। जब कभी ऐसी स्थिति आये तो शरीर को शिथिल करने का प्रयत्न करना चाहिये। यह विचार बार-बार मन में लाना चाहिये कि—”मेरे जीवन में कोई समस्यायें नहीं हैं। मैं पूर्ण सुखी हूँ, मेरा भविष्य सब प्रकार उज्ज्वल है।” इस प्रकार सुखद विचारों में मस्तिष्क को उलझा देने से शरीर शिथिल होने लगेगा और थोड़ी देर में नींद आ जायेगी।

विश्राम करने के पूर्व अपने मन को चिन्ता-शून्य बना लेना चाहिये। सारे शरीर को शिथिल बनाते हुए दोनों आँखें मूँद लेनी चाहिये। अब आप शरीर के किसी एक ही अंग का चिन्तन करना प्रारम्भ करें। आप देखेंगे कि अन्दर ही अन्दर उस अंग में क्षणिक उत्तेजना जागृत होनी है और वह अंग शिथिल पड़ने लगता है। इसी प्रकार क्रम से सारे अंगों को शिथिल बनाकर पूर्ण विश्राम का आनन्द प्राप्त करना आसान हो जायेगा। एक दो सप्ताह में यह क्रिया स्वाभाविक हो जायेगी। सोने या विश्राम करने के पूर्व शरीर को इस प्रकार शिथिल कर लेने से सच्ची व गहरी नींद आती है। और उसी अनुपात से शरीर शक्ति प्राप्त कर लेता है और आगे के कार्य के लिये सजीव हो उठता है।

जिस प्रकार अधिक परिश्रम से विश्राम करने का जी करता है उसी प्रकार किसी रोग की अवस्था में भी विश्राम की आवश्यकता है। विश्राम एक प्रकार रोग का प्राकृतिक इलाज है। डॉ0 सैमुएल जैक्सन ने लिखा हैं—”पूर्ण विश्राम सभी बीमारियों का अचूक इलाज है।” इससे स्नायु स्निग्ध होते हैं और उनकी शिथिलता दूर हो जाती है फलतः रोग दूर होने लगते हैं।

विश्राम स्वास्थ्य के लिये उपयोगी ही नहीं आवश्यक भी है किन्तु इसकी अति न होने पावे इसका सदैव ध्यान बना रहे। अति विश्राम का अर्थ है आलस्य और अकर्मण्यता, जो विकास के महान् शत्रु हैं। हमें अपने शारीरिक स्वास्थ्य के लिये तथा खोयी हुई शक्ति प्राप्त करने के लिये ही विश्राम करना चाहिये। इसी दृष्टि से इसकी उपयोगिता है।


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