एकाग्रता व संलग्नता से ही लक्ष्य सिद्ध होगी

July 1965

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मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन एक तरह से लक्ष्यवेध की साधना है। उद्देश्य उसका भौतिक है या आध्यात्मिक यह दूसरी बात है पर जीवन की एक दिशा होती जरूर है। प्रत्येक उद्देश्य की पूर्ति के लिये जो उपक्रम किये जाते हैं, सफलता के लिये उनमें एकाग्रता तथा संलग्नता बहुत जरूरी है। शिकारी तीर चलाने के पूर्व साँस रोक कर सारा ध्यान अपने शिकार पर जमा देता है। मनोयोग थोड़ा-सा भी अस्थिर हो जाय तो तीर कहीं का कहीं जा गिरे। लक्ष्य पर ठीक तरह से निशाना साधे बिना जिस तरह कोई सफलता नहीं मिलती, दृढ़ मन्तव्य बिना मनुष्य का जीवन भी खेल मात्र दिखाई देता है। उससे किसी प्रकार की सफलता की आशा नहीं की जा सकती।

प्रतिदिन कोई न कोई मन्तव्य बनाते रहें और हर दूसरे दिन उसे बदलते रहें तो कोई समस्या हल न होगी। हर प्रयत्न में विचलित बने रहेंगे। कहावत है “आधी छोड़ सारी को धावे, आधी रहे न सारी पावै” अर्थात् अनेक कल्पनायें करने की अपेक्षा किसी एक विचार पर स्थिर रहना अधिक लाभदायक होता है। चाहे वह थोड़े ही लाभ की बात हो पर उसमें भी दृढ़तापूर्वक संलग्न रहेंगे तभी सफलता मिलेगी।

जीवन का एक व्यवसाय निश्चित कर लें फिर उसमें तत्परता पूर्वक सारी शक्ति लगादें। पूर्ण एकाग्रता तथा संलग्नता के बिना सफलता नहीं मिलती। नित्य नये व्यवसाय बदलते रहना मनुष्य की अवनति का प्रमुख कारण है। काम की विशेष योग्यता और मार्गदर्शक अनुभव संलग्नता से ही प्राप्त होते हैं।

किसी व्यक्ति की बहुत बड़ी सफलता देखकर या किसी महत्वाकाँक्षा से प्रेरित होकर लोग बहुत बड़े संकल्प कर लेते हैं। पर कुछ ही दिनों में उन्हें असफल हुआ या संकल्पच्युत हुआ पाते हैं, तो इसके कारण पर विचार करने की इच्छा होती है। सफल पुरुषों के जीवन से इसका आसानी से समाधान हो जाता है। सफलता प्राप्त करने के लिये आवश्यक है कि मनुष्य अपने तन, मन, धन की सारी शक्ति संकल्प को सफल बनाने में लगा दे। मनोवृत्तियाँ पल-पल पर बदलती रहें, शरीर से क्रियाशील न हों और उचित साधन न जुटायें तो सफलता कैसे मिल सकेगी। जिस मन की स्थिति डाँवाडोल रहती है वह कभी एक काम, फिर दूसरा, फिर तीसरा इस तरह से इधर-उधर चक्कर काटता रहता है और जिस बात की प्रतिज्ञा की थी वह यों ही अधूरी रह जाती है।

युद्ध में लड़ने का काम सैनिक करते हैं। किन्तु विजय का श्रेय कमाण्डर को मिलता है। कोई अल्प बुद्धि का व्यक्ति ऐसी आशंका प्रकट कर सकता है कि ऐसा क्यों होता है। पर समझदार लोग जानते हैं कि युद्ध की सारी रूप-रेखा सेनापति ही बनाता है। वही यह निश्चित करता है कि किस टुकड़ी को कहाँ लगायें, कहाँ गोला, बारूद पहुँचे, कहाँ की संचार व्यवस्था कैसी हो? सेनापति लड़ने नहीं जाता पर सारा युद्ध उसके मस्तिष्क में चित्रपट की भाँति घूमता रहता है। पूर्ण एकाग्रता से उस पर विश्लेषण करता रहता है तब कहीं विजय का श्रेय उसे मिल पाता है। संलग्नता, लक्ष्य बुद्धि और तन्मयता के द्वारा ही सेनापति युद्ध का ठीक परिचालन कर पाते हैं। ठीक उसी तरह जीवन संग्राम में विजयश्री प्राप्त करने के लिये मन की एकाग्रता व संकल्पशीलता आपेक्षित है।

बार-बार जो मन की स्थिति बदलती रहती है उसे सर्वप्रथम काबू करने की आवश्यकता है किसी लक्ष्य पर जब मन केन्द्रित रहता है तो सफलता की अनेक योजनायें सूझती रहती हैं। वैज्ञानिक शोध कार्यों में इतने दत्तचित्त तथा एकाग्र होकर कार्य करते हैं कि उन्हें लैबोरेटरी के बाहर की दुनिया का भी ज्ञान नहीं होता। एक-एक सिद्धान्त के रहस्यों पर घुसते चले जाते हैं और कोई नई चीज ढूंढ़ कर निकाल लाते हैं। एक ही बात जब तक मस्तिष्क में रहती है तब तक उसी के अनेक साधनों की सूझ होती रहती है। उनमें से उपयोगी बातों की पकड़ एकाग्रता से ही होती है। शरीर-मन की सारी क्रियाओं को साधकर बगुला एक प्रकार से निश्चेष्ट-सा हो जाता है, इसी धोखे में मछली बाहर आ जाती है। बगुला को तो इसी की ताक रहती ही है खट से उसे पकड़ लेता है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सफलता के लिये मनुष्य को भी इसी तरह “को-ध्यानी” बनना आवश्यक है।

एक ही दिशा में अपनी सारी चित्त-वृत्तियाँ आरोपित रखने से नये महत्व की बातों का ज्ञान तो होता ही है वह भूलें और त्रुटियाँ भी समझ में आ जाती हैं जिनसे काम में गड़बड़ी उत्पन्न होने की आशंका होती है। इसी अनुभव के आधार पर कठिनाइयों से पहले ही बच जाना सम्भव होता है। रोज एक नया काम बदलने से तो किसी तरह का भी ज्ञान प्राप्त नहीं होता, न अनुभव विकसित होते हैं।

आकाश में उड़ने वाले जहाज के कप्तान को कुतुबनुमा की सुई के सहारे चलना पड़ता है। कोई ऐसे चिह्न नहीं होते जिस तरह सड़क पर मोटरें दौड़ती हैं। फिर बादलों से बचाव, हवा के कटाव आदि में पंखों को भी ऊपर नीचे करना पड़ता है। पाइलट यदि वहाँ कोई उपन्यास पढ़ना चाहे तो जहाज के गिर जाने का ही खतरा पैदा हो सकता है, इसलिये उसका सारा ध्यान जहाज को ठीक तरह चलाने में ही लगा रहता है। बिना लक्ष्य पर स्थिर हुये जहाज के कप्तान को कोस भर की यात्रा करना भी दुस्साध्य हो जायगा।

यह मशीनों का युग है। अब मनुष्य का बहुत-सा काम कल-कारखाने पूरा करते हैं भारी उत्पादन के कारखानों के कल पुर्जे देखकर मस्तिष्क चक्कर काटने लगता है। इतनी सारी मशीनरी का नियन्त्रण कौन कर सकेगा। पर वह क्षमता इंजीनियर में होती है। इंजीनियर भी दूसरे मनुष्यों की तरह ही होते हैं पर उनमें यह विशेषता होती है कि काम करने के समय उनका सारा ध्यान मशीन के कल पुर्जों के साथ बँध जाता है। फरनेस में ईंधन जा रहा है, डायनेमो ठीक काम कर रहा है या नहीं, कोयला, पानी, तेल आदि पर्याप्त मात्रा में हैं या नहीं। एक-एक हिस्से पर पूरा-पूरा ध्यान रखकर ही सारी मशीनरी को वह अपने नियन्त्रण में रख पाता है। ध्यान इधर-उधर बँटा रहे तो रोज ही कारखानों में विस्फोट होता रहे।

काम करते हुये बहुत समय बीत जाय और पूर्ण संलग्नता के बावजूद भी यदि कोई सफलता न मिले तो समझना चाहिए कोई जबर्दस्त कमी है। यदि कारण इतना बलवान हो जिसे आसानी से न हटाया जा सकता हो, तो फिर उसे बदल ही देना चाहिये। संलग्नता का मतलब यह कदापि नहीं कि असम्भव कार्य के पीछे ही पड़े रहें।

पर यदि लक्ष्य स्थिर कर लिया जाय और जिस रास्ते में चल रहे हैं उसी में कुछ कमी दिखाई दे तो किसी दूसरे मार्ग से उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। मान लीजिये आप हाई-स्कूल पास कर चुके हैं और एम.ए. पास करने की इच्छा है। पर घर की आर्थिक कठिनाइयों के कारण स्कूल में नहीं पढ़ सकते। कुछ दिन कालेज गये भी पर फीस देने की व्यवस्था नहीं हो पाई तब आप अपना रास्ता बदल दीजिये। देखिये आपको कहीं शिक्षण-कार्य मिल सकता है क्या? यदि ऐसी व्यवस्था हो जाय तो आप घर की आर्थिक कठिनाई में भी कुछ सहयोग दे सकते हैं और बचे हुए समय का सदुपयोग अध्ययन में करके प्राइवेट परीक्षा भी दे सकते हैं। इस तरह की परिस्थितियों में केवल मार्ग बदलना पड़ता है बाकी सफलता की बुनियादी बातें ज्यों-की-त्यों बनी रहती हैं।

इसमें सन्देह नहीं है कि मनुष्य के कठिन श्रम, एकाग्रता और सतत अभ्यास से बड़े-बड़े काम हल हो जाते हैं पर उद्देश्य जो निश्चित किये जावें, उनके औचित्य पर भी गम्भीरतापूर्वक विचार कर लेना चाहिये। अपनी शारीरिक स्थिति, बुद्धि, योग्यता और परिस्थितियों के अनुकूल लक्ष्य निर्धारित करने से ही सफलता मिल सकती है। शक्ति से बहुत चढ़-बढ़ कर बनाये गये लक्ष्य असफल रहे तो इसमें सन्देह न होना चाहिये क्योंकि मनुष्य के पुरुषार्थ के साथ प्राकृतिक संयोग भी काम करते रहते हैं। असम्भव उद्देश्य न निश्चित करना ही मनुष्य की बुद्धिमानी है।

पर जिन्हें हम पूरा कर सकने की स्थिति में हों और उनसे मनुष्य जीवन सार्थक होता हो तो ऐसे लक्ष्य-जीवन में बनाकर उन पर पूर्ण लगन, एकाग्रता व संलग्नता के साथ तब तक लगे रहना चाहिये जब तक सफलता न मिल जाय। एकाग्रता और संलग्नता में ही सफलता का सारा रहस्य छुपा हुआ है। मनुष्य जीवन के ये दो भूषण हैं जिससे उसका व्यक्तित्व निखरता है और वह कुछ असामान्य कार्य भी सम्पन्न कर लेता है।

युग-निर्माण आन्दोलन की प्रगति

जेष्ठ में महत्वपूर्ण शिक्षण शिविर

गायत्री तपोभूमि में सम्पन्न हुए इस बार के जेष्ठ शिविर में बहुत ही महत्वपूर्ण आयोजन सम्पन्न हुए। पन्द्रह-पन्द्रह दिन के दो शिविर रखे गये थे अधिकाँश शिक्षार्थी ऐसे आये जो दोनों में ही सम्मिलित रहे। श्रद्धापूर्वक चान्द्रायण व्रत किया और साथ ही गायत्री पुरश्चरण भी। व्यवहारिक आध्यात्म एवं संजीवन विद्या के प्रशिक्षण का अनुपम लाभ भी लेते रहे। नया प्रवचन कक्ष तथा सपरिवार ठहरने लायक 10 नये कमरे बन जाने से अधिक शिक्षार्थियों को स्वीकृति दे सकना संभव हो गया और पिछले शिविरों में जितने शिक्षार्थी आया करते थे, इस बार उससे ठीक दूने थे। नया प्रवचन हाल भी ठसाठस भर जाता था। एक महीना इतने आनन्दपूर्वक बीता कि जाते समय लोग आँसू भरे ही विदा हो रहे थे।

चान्द्रायण व्रत से शरीर और मन का स्वास्थ्य सुधारने में जो आश्चर्यजनक लाभ होता है उसका अनुभव गत तीन वर्षों में लगभग 1000 व्यक्ति कर चुके हैं। एक से चर्चा सुनकर दूसरे की इच्छा होती है और लोगों को इस अव्यय तपश्चर्या का लाभ उठाने की आकाँक्षा उत्पन्न होती है। इन शिविरों में अधिक उपस्थिति होते चलने का एक कारण यह भी है।

बैसाख सुदी 15 को नये प्रवचन हाल का उद्घाटन, विवाहोन्माद प्रतिरोध आन्दोलन का प्रत्यक्ष दृश्य उपस्थित करते हुए सम्पन्न हुआ। कान्यकुब्ज समाज के एक प्रतिभाशाली बी. ए. के अन्तिम वर्ष में पढ़ने वाले और अच्छी नौकरी से लगे हुए संगम नामक, स्वस्थ, सुन्दर और सुशील लड़के का विवाह मैट्रिक तक पढ़ी हुई सरला नामक लड़की के साथ सम्पन्न हुआ। दोनों ही फर्रुखाबाद जिले के हैं। उनके अभिभावक एवं सम्बन्धी उपस्थिति थे। दहेज के नाम पर एक रुपया मात्र दिया गया। ऐसे लड़कों पर उस समाज में बहुत अधिक दहेज माँगा जाता है, पर आदर्शवाद के लिए त्याग का साहस करने वाले लोग भी तो आखिर इस संसार में बिलकुल मिट नहीं गये हैं, यह बात इस विवाह को देखकर दर्शकों ने समझी और अवसर आने पर वैसा ही अनुकरण करने की प्रेरणा स्वयं भी प्राप्त की। उस शुभ शकुन के साथ शिक्षण शिविर एवं प्रवचन हाल का शुभारम्भ होने से लोगों ने कल्पना की कि यह नया अभियान सफलतापूर्वक आगे बढ़ेगा और भारतीय समाज के नये निर्माण की महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करेगा।

शिक्षण का प्रधान विषय यद्यपि संजीवन विद्या-जीवन जीने की कला ही था, पर इस बार धर्म प्रचार की विशेष शिक्षा देने का भी प्रबन्ध किया गया था जिसे शिक्षार्थियों ने बहुत पसन्द किया।

नई ‘गीता कथा’के प्रवचनों में सैकड़ों ऐतिहासिक, पौराणिक कथाएं दृष्टान्त, नीति श्लोक, रामायण की चौपाइयाँ जुड़ जाने से उसका प्रवचन बहुत ही आकर्षक एवं हृदयग्राही बन गया। कथा सामूहिक पारायण किये जाने का स्वरूप भी बड़ा सुन्दर बन पड़ता था। यह गीता कथा सुन कर सभी को यह निश्चय हो गया कि भागवत सप्ताहों की तरह गीता सप्ताहों का आयोजन भी लोकप्रिय हो सकता है और उससे जन-जागरण का उद्देश्य भली भाँति पूरा हो सकता है।

एक दिन नवनिर्मित सत्य नारायण कथा भी बड़े उत्साहपूर्ण वातावरण में हुई। कथानक लीलावती, कलावती आदि के पुराने ही हैं, पर कथा पात्रों के पारस्परिक संवादों में जीवन निर्माण की प्रायः सभी महत्वपूर्ण शिक्षाएं भर दी गई हैं। यह कथा जिनने सुनी, उनने विश्वास किया कि यदि यह कथा घर-घर सुनाई जाने लगे तो धर्म और संस्कृति के पुनरुत्थान में भारी योगदान मिल सकता है।

दैनिक यज्ञ के उपरान्त प्रतिदिन एक संस्कार कराया जाता था। आगन्तुकों में से जिन्हें अपने या अपने स्त्री-बच्चों के संस्कार कराने थे, उनने नियत तिथियों पर बड़े उत्साहपूर्वक कराये। गर्भवती स्त्रियों का पुंसवन संस्कार और छोटे बच्चों का नामकरण, अन्न प्राशन, मुँडन, विद्यारम्भ आदि किये गये। कितनों के ही यज्ञोपवीत संस्कार हुए। 17 पुरुषों और 2 महिलाओं ने वानप्रस्थ लिये और प्रतिज्ञा की कि वे नियमित रूप से लोक मंगल के लिए सेवा संलग्न रहेंगे और अपना अधिकाँश समय जन जागरण में लगावेंगे। 24 कलशों द्वारा इन पीत वस्त्र धारी वानप्रस्थों का अभिषेक देखकर प्राचीनकाल जैसे कर्मयोगी, साधु ब्राह्मणों का स्मरण हो आता था। अंत्येष्टि और मरणोत्तर संस्कार आटे का बड़ा-सा पुतला बना कर सिखाया गया। आज कल लोग, मुर्दों को ऐसे ही जला देते हैं, जब कि उनका विधिवत् यज्ञ के साथ अंत्येष्टि संस्कार होना चाहिए। नकली पुतले का दाह संस्कार, चिता जलाया जाना आदि कृत्य जहाँ लोगों के कौतूहल का विषय बने हुये थे, वहाँ उससे आवश्यकता के साथ उस संस्कार को ठीक तरह से करने का ज्ञानवर्धन भी हुआ।

संस्कार समाप्त हो जाने पर प्रतिदिन एक पर्व मनाने की शिक्षा आरम्भ की गई। गुरुपूर्णिमा, श्रावणी, पितृ अमावस्या, विजय दशमी, दिवाली, गीता जयन्ती, वसन्त पंचमी, शिवरात्रि, होली, गायत्री जयन्ती पर्वों को किस प्रकार मनाया जाय और उनके माध्यम से समाज शिक्षण किस प्रकार किया जाए, यह सारी पद्धति शिक्षार्थियों ने मनोयोग पूर्वक सीखी। धर्म से जन जागरण का उद्देश्य पूरा करने के लिये यह सारा शिक्षण आवश्यक भी था।

लेखन शिविर यथाक्रम चलता रहा। अखण्ड ज्योति परिवार के दो प्रमुख साहित्य सेवी डॉ0 रामचरण महेन्द्र और श्री सत्यभक्त जी का सार्वजनिक अभिनन्दन किया गया। उन्हें मान-पत्र दिये गये। समारोह में मथुरा के प्रायः सभी साहित्यकार और गण्यमान्य लोकसेवी उपस्थिति थे।

आगन्तुकों को वृज की तीर्थ यात्रा करने के लिए बस किराये पर कर दी गई थी, जिसने वृन्दावन, गोकुल, महावन, दाऊजी, गोवर्धन, नन्दगाँव, बरसाना, जतीपुरा आदि सभी तीर्थ दिखाये। किराये और समय की दृष्टि से इसमें बहुत बचत रही।

जेष्ठ का एक मास तक चलने वाला शिविर प्रत्येक दृष्टि से बहुत सफल रहा। 17, 18, 19 जून के होने वाले समाज सुधार सम्मेलन की तैयारी की जा रही है। चूँकि अखण्ड-ज्योति का यह अंक तब तक छप चुकेगा। सिलाई, कटाई, पैकिंग आदि के लिये समय रहे, इसलिये हर महीने वह 20 तारीख तक छप जाती है। इसलिये इस अंक में सम्मेलन के समाचार न जा सकेंगे उसका उल्लेख अगले अंक में होगा। यह सम्मेलन भी भारतीय समाज के नव-निर्माण की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण सिद्ध होगा, ऐसी आशा है।


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