शास्त्र-चर्चा

July 1965

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यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति। सर्वभूतेषु चात्मानं ततो ने विजुगुप्सते॥

जो समस्त प्राणियों में आपको और अपने में समस्त प्राणियों को देखता है, वह उपर्युक्त एकात्मक-दर्शन के कारण किसी को घृणा या उपेक्षा का पात्र नहीं समझता। अर्थात् वह सबके हित में ही अपने हित को समझता है।

अयं निजः परो वेति गणनाँ लघुचेतसाम् । उदारचरितानाँ तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥

और दूसरे यह अपना है वा यह पराया है, यह अल्पबुद्धियों की गिनती है। उदार चरित वालों के लिए तो सारी पृथ्वी ही कुटुम्ब है।

परेषाँ सुख सौकर्य सर्वदा चिन्तयेन्नरः। स्वार्थ एक सदा लग्नः समाजार्हे भवेन्नच॥

मनुष्य को सर्वथा दूसरों के सुख एवं सुविधा की और पूर्ण विचार करना चाहिए। जो व्यक्ति सदा अपने ही मतलब के कार्य में लगा रहता है और दूसरों का बिल्कुल ध्यान ही नहीं रखता ऐसा मनुष्य समाज में रहने योग्य नहीं होता।

दुःखं ददाति योऽन्यस्य ध्रुवं दुखं स विन्दति। तस्मान्न कस्यचित् दुखं दातव्यं दुःखभीरुण॥

जो मनुष्य दूसरे को दुख देता है निश्चय ही वह स्वयं दुख पाता है, इसलिए दुःख से डरने वाले मनुष्य को चाहिए कि वह दूसरों को दुःख न दे।

प्राणा यथात्मनोऽभीष्टा भूतानामपि ते तथा। आत्मौपम्येन भूतेषु दयाँ कुर्वन्ति साधवा॥

जिस प्रकार अपने प्राण प्यारे हैं, वैसे ही और प्राणियों को भी अपने-अपने प्राण प्यारे हैं, इसलिए साधुजन अपने प्राणों के समान दूसरों पर दया करते हैं।

श्रू यताँ धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्। आत्मनः प्रतिकूलानि परेषाँ न समाचरेत्॥

उपदेशक कहता है कि तुम धर्म का उपदेश सुनो उसे सुनकर चित्त में धारण करो। जो आत्मा के विरुद्ध हैं, जिन कामों को हम अपने लिए बुरा समझते हैं वे कार्य दूसरों के साथ भी नहीं करने चाहिए। जो अपने विरुद्ध कर्म हैं वे दूसरों के लिए भी भले नहीं हैं यह समझना चाहिए।


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