सात्विक कर्मों से ही आनन्द मिलेगा।

November 1964

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सुख मानव-जीवन की स्वाभाविक कामना है। हर कोई यह चाहता है कि उसे दुःख में न रहना पड़े। जिसके लिये वह अपनी बुद्धि, शक्ति, विवेक, विश्वास और सभ्यता के अनुसार प्रयत्न भी करते हैं। एक वस्तु में यदि सुख की कमी दिखाई देती है तो दूसरी ओर भागते हैं पर पहला सुख छोड़ने के पूर्व अन्य सुख या आनन्द का विश्वास या किसी ठोस आधार पर अवलम्बित कल्पना आवश्यक है। इहलौकिक सुखों की अपेक्षा पारलौकिक सुखों की ओर आकृष्ट होने के पीछे भी यही भावना सन्निहित होती है कि मनुष्य को इन्द्रियजन्य सुख क्षणिक और व्याधि उत्पादक लगते हैं इसलिए परलोक में वह किसी ऐसे सुख की कल्पना करता है जिसमें टिकाऊपन हो, स्थिरता और अमरत्व हो। सुख के विनाश से मनुष्य घबड़ा उठता है। मृत्यु से भय केवल इसलिए लगता है कि शारीरिक सुखों के प्रति मोह होता है अतएव यह नहीं चाहते कि जिस शरीर से तरह-तरह के उपभोग करते हैं वह कभी नष्ट हो और उसका अस्तित्व मिट जाय।

मनुष्य का जी जब इस संसार के स्थूल सुखों से तृप्त नहीं हुआ तो उसने उसे ईश्वर के सान्निध्य से प्राप्त करना चाहा। वैराग्य, भक्ति, साधना, उपासना का वह अभ्यास करने लगा। आहार-विहार में उसने कठोरता और संयम प्रारम्भ किया। देह-दमन और तरह-तरह की यातनाएँ सहन करके देखीं, किंतु सुखों की कल्पना का वह सर्वथा त्याग नहीं कर सकता। कठोर तपश्चर्या के कारण भी उसकी वह इच्छा समाप्त न हुई तो लगा जैसे जीवात्मा मौलिक रूप से आनन्द प्राप्ति की कामना से ही इस संसार में अवतरित हुई है और जब तक उसकी यह आकाँक्षा सही रूप से तृप्त नहीं होती है तब तक उसके जीवन में हलचल, उद्यम और उद्योग बने ही रहते हैं।

सच्चे आनन्द का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए यह देखना है कि विविध सुखों के साथ जीवात्मा का मेल किस प्रकार होता है। इन्द्रिय और विषय-सुखों के विपरीत परिणामों को देखते हुए उन्हें ध्येय नहीं माना जा सकता। शारीरिक-पतन, मनोबल में गिरावट, सामाजिक जीवन में अनेकों बुराइयों का समावेश, ऊँच-नीच का भेद-बर्ताव अपहरण और अनाचार के अधिकाँश परिणाम इन्द्रिय-भोगों की अतिशयता के कारण ही बढ़ते हैं। पारलौकिक सुखों के बारे में भी यहीं बात है कि पहले तो उसकी प्राप्ति के लिए यहीं अनेकों दुःख झेलने पड़ते हैं, फिर यदि यह मान लें कि अन्यत्र लोकों में सुख है तो वह भी इन्द्रियजन्य ही हो सकता है। इसे भी स्थिर और शाश्वत नहीं मान सकते। जब यह कल्पना उठी तो सुख और दुःख दोनों ही निर्मूल दिखाई देने लगे और इन दोनों से ही बचने के लिए वैराग्य भावना पैदा हुई।

किंतु इससे भी मनुष्य को संतोष नहीं मिला। मानव-जीवन की स्वाभाविक प्रेरणाओं का दमन करके एक प्रकार का बनावटी जीवन बिताने से स्थिर शान्ति उपलब्ध नहीं हुई। सोचा यह गया था कि सुख-असुख की कल्पना त्याग देने से चित्तवृत्तियाँ परेशान नहीं करेंगी। पर जब इस प्रकार से भी संतोष और शाँति नहीं मिलीं तो यह लगा कि हमारे बन्धन अभी भी ज्यों के त्यों बने हुए हैं। भूख, प्यास, आवास-निवास और निद्रा आदि के कारण जीवात्मा मुक्त नहीं हो पाई इसीलिए इस आन्तरिक उथल-पुथल का अन्त नहीं हो पाया। अब विवेचनात्मक बुद्धि जागृत हुई और शरीर तथा आत्मा दोनों का प्रथम अस्तित्व प्रतिभासित होने लगा। इसलिए बन्धन-मुक्त होने के लिए दोहरे उपक्रम की उपयोगिता समझ में आई। एक प्रकार के साधन ऐसे हैं जिनमें मनुष्य को शारीरिक सुखों को मिटाने के लिए तप करना पड़ता है। अपनी इच्छाओं को दबाना पड़ता है। भूख, प्यास और रहन-सहन में स्वेच्छा से अभाव उत्पन्न करना पड़ता है। यह शरीर और उसके क्षणिक सुखोपभोग के प्रति आसक्ति भाव समाप्त करने के लिए करना पड़ता है।

दूसरी ओर आत्म-विकास करना पड़ता है। इसके लिए अपने जीवन में श्रद्धा, विश्वास, प्रेम, आत्मीयता, उदारता, सहृदयता आदि सद्गुणों को प्रकाशित करना पड़ता है इससे आत्मा और शरीर के अस्तित्व और उनकी पृथक आवश्यकताएं स्पष्ट रूप से अलग दिखाई देने लगती हैं। ज्यों-ज्यों मनुष्य जीवन का यह विशिष्ट संयोग अधिक विकसित और परिष्कृत होने लगता है त्यों-त्यों आत्मिक शक्तियाँ प्रकाश में आने लगती हैं और एक विलक्षण सुख की अनुभूति होने लगती है। इसी अवस्था का नाम साधना है। यह जीवन की अत्यन्त महत्वपूर्ण अवस्था है जिसमें मनुष्य एक ऐसी संकरी पगडण्डी से होकर चलता है जिसके एक ओर मोक्ष और दूसरी ओर बन्धन, एक तरफ सुख और दूसरी ओर दुःख होता है। साधना मनुष्य की सबसे अधिक सतर्क और जागरुक अवस्था का नाम है। इसलिए साधना का दूसरा नाम ‘विचारों की तपश्चर्या’ भी है। साँसारिक और आत्मिक दोनों प्रकार के विचारों की रस्साकशी में मनुष्य कभी इधर कभी उधर खिंचता रहता है जिससे दुःख और सुख दोनों ही अनुपाततः प्रभावित करते रहते हैं।

साधक-जीवन दुस्तर इसलिए मानते हैं कि वैराग्य के आवेश में कठोरता का कृत्रिम जीवन सच्चा और स्वाभाविक नहीं होता। मन की कल्पना जब तक सात्विक बनी रहती है तब तक इस जीवन में सरसता बनी रहती है, किंतु कल्पनायें कभी एक-सी नहीं रहतीं इसलिए असत् कल्पनाओं में पड़ते ही मनुष्य का जीवन कार्य-रहित और आनन्द रहित होता जाता है। कभी अनुभूति और उत्साह बढ़ता है, किसी समय मानसिक चञ्चलता और अतृप्ति का अनुभव होने लगता है। साधना का महत्व इसलिए होता है कि इससे मानवीय दोषों का निवारण होता है। कठिन इसलिए होती है कि मनुष्य का दम्भ बढ़ने का भय बना रहता है।

जीवन-ध्येय की प्राप्ति की दृष्टि से वैराग्य, भक्ति साधना और आत्मा ज्ञान प्राप्त करना निःसन्देह उपयोगी ही नहीं आवश्यक भी है किन्तु दम्भाचार बढ़ने से मनुष्य के सर्वनाश की भी आशंका बनी रहती है, इसलिए यह नहीं कह सकते कि साधक जीवन सभी के लिए ही उपयोगी है।

सत्कर्म मनुष्य जीवन की-सर्वांगीण साधना का पर्याय है। हमारा लक्ष्य मन, बुद्धि और शरीर इन तीनों की शक्तियों को विकसित और शुद्ध करना होना चाहिए। हमारा शरीर निरोग, स्वस्थ, चपल और बलवान हो ऐसे अपने आप में गुण पैदा करने चाहिएं। मन ऐसा हो जो सात्विक विषयों में रुचि ले और संकल्पवान हो। बुद्धि शुद्ध विचारों से अनुप्राणित-अर्थात् सत्-असत् का विवेक भाव बनाये रखे, हमारा यह प्रयत्न होना चाहिये। हमारा यह विश्वास होना चाहिये कि हमारे समग्र विकास के लिए सात्विक आनन्द प्राप्त करना आवश्यक है। प्रेम, उदारता, स्नेह, आत्मीयता, मैत्री, सज्जनता आदि सद्गुण मानवीय विकास में बाधक नहीं होते। दुःख का कारण दुष्कृत्य और आलस्य व अकर्मण्यता होती है। इससे मनुष्य का जीवन पतित होता है। वह अन्त में स्थूल भोगों के क्षुद्र आनन्द की ओर चलने लगता है। इससे व्यक्तिगत जीवन में तो बुराइयाँ आती ही हैं, सामाजिक जीवन भी मलिन और अपवित्र होता है। फलतः सम्पूर्ण मानव-जाति को अवनति और दम्भ-पाखण्ड में जीवन यापन करना पड़ता है।

सुख और जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए न तो कर्तव्य कर्मों- गृहस्थ जीवन-से भागने की आवश्यकता है, न ही सुखों की भावना को कठोरतापूर्वक कुचलने की। भाव यह होना चाहिए कि- कर्म करें पर वे नितान्त स्वार्थपूर्ण न हों, सुखों का उपयोग करें किन्तु उनके प्रति आसक्ति न हो। इस प्रकार जीवन शोधन करके, विवेकपूर्वक अपनी प्रवृत्तियों को निश्चित करने और व्यावहारिक रूप से उन्हें अमल में लाते हुए चित्त शुद्ध करना, सद्गुणों की वृद्धि करना ही मानव मात्र का ध्येय होना चाहिए। इसी को भगवान कृष्ण ने गीता में निष्काम कर्म-योग और शास्त्रकारों ने “सहज समाधि” की उपाधि दी है।

सभी प्राणियों के साथ अपने सम्बन्धों को पवित्र, उदार, आत्मीयतापूर्ण और सुखप्रद बनाने का हमें प्रयत्न करना चाहिए, इससे मनुष्य को सात्विक सुख और आनन्द का अनुभव हुए बिना नहीं रहेगा। शरीर, मन और बुद्धि की शुद्ध शक्तियों को जागृत करने से ही मनुष्य सच्चा सुख प्राप्त कर सकता है, यही मनुष्य जीवन की सर्वोत्कृष्ट साधना है। यही उसके विकास का उत्तम मार्ग है। इसी से मनुष्य का जीवन लक्ष्य भी पूरा हो जाता है।


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