मनुष्य और उसकी महान् शक्ति

November 1964

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

परमाणु शक्ति के सम्बन्ध में आधुनिक वैज्ञानिकों का कथन है कि जब उसकी सम्पूर्ण जानकारी मनुष्य को ही जायगी तो सारे ग्रह नक्षत्रों की दूरी ऐसी हो जायेगी जैसे पृथ्वी पर एक गाँव से दूसरा गाँव किन्तु इसकी जानकारी का भी अधिष्ठाता मनुष्य है अतः उसकी शक्ति का अनुमान लगाना भी असम्भव है। मनुष्य में वह सारी शक्तियाँ विद्यमान हैं जिनसे इस संसार का विनाश भी हो सकता है और निर्माण तो इतना अधिक हो सकता है कि उसका एक छोटा सा रूप इस सुरम्य धरती को ही देख सकते है।

मनुष्य विधाता की रचना का सर्वश्रेष्ठ चमत्कारिक प्राणी है। अव्यवस्थित धरती को सुव्यवस्थित रूप देने का श्रेय उसे ही प्राप्त है। ज्ञान, विज्ञान, भाषा लिपि स्वर, आदि की जो विशेषताएं उसे प्राप्त हैं उनसे निःसन्देह उसकी महत्ता ही प्रतिपादित होती है। मनुष्य इस संसार का समग्र सम्पन्न प्राणी है, महर्षि व्यास ने इस सम्बन्ध में अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा है :-

गुह्यं ब्रह्म तदिदं व्रवीम-

महि मानुषात श्रेष्ठतरं हि किंचित्॥

“मैं बड़े भेद की बात तुम्हें बताता हूँ कि मनुष्य से बढ़कर इस संसार में और कुछ भी नहीं है।” वह सर्वशक्ति सम्पन्न है। जहाँ चाहे उलट-फेर कर दे, जहाँ चाहे युद्ध मार काट मचा दें। जी में आये तो शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित करदे। कोई भी कार्य ऐसा नहीं जो मनुष्य की सामर्थ्य से बाहर हो। धन, पद, यश, आदि कोई वैभव ऐसा नहीं जिसे वह प्राप्त न कर सकता हो।

भगवान राम और कृष्ण भी मनुष्य ही थे किन्तु उन्होंने अपनी शक्तियों का उत्कर्ष किया और नर से नारायण बन कर विश्व में पूजे जाने लगे। मनुष्य अपने पौरुष से-विद्या, बुद्धि और बल से- वैभव प्राप्त कर सकता है। देवत्व की उच्च कक्षा में प्रतिष्ठित हो सकता है, वह भगवान बन सकता है। उसकी शक्ति से परे इस संसार में कुछ भी तो नहीं है। शास्त्रकार का कथन है “यत्त्रह्माण्डे तत्पिण्डे” अर्थात् जो कुछ भी इस संसार में दिखाई देता है वह सभी बीज रूप से मनुष्य के शरीर में-पिण्ड में विद्यमान है।

मनुष्य दीन, हीन और पद दलित तभी तक है जब तक वह अपने आपको पहचानता नहीं। तुलसीदास जी जब तक निकृष्ट जीवन व्यतीत करते रहे तब तक वे शोक संताप में डूबे रहे, किसी ने उन्हें जाना तक नहीं, बेचारे मारे मारे इधर से उधर घूमते रहे। किन्तु जैसे ही उनकी आन्तरिक शक्तियाँ प्रकाशित हुईं, तुलसीदास जी अमृत पुत्र हो गये, जन-जन की वाणी में समा गये, सन्त बन गये महात्मा हो गये। बाल्मीकि, अंगुलिमाल आदि की कथायें सर्वविदित हैं। विल्वमंगल सूरदास के नाम से प्रसिद्ध हुए, इसके मूल में मानवीय अन्तःकरण का विकास ही सन्निहित है। वह शक्तियाँ, वह सामर्थ्य प्रत्येक मनुष्य में है अन्तर केवल इतना है कि लौकिक कामनाओं से घिरा हुआ इन्सान पारलौकिक सम्भावनाओं का विचार तक नहीं करता, इसी कारण वह छोटा है, तुच्छ है, निकृष्ट है।

अपने प्रभाव से मनुष्य चेतना विहीन प्राणियों को भी नवजीवन देने की शक्ति रखता है। देश समाज और राष्ट्र तक बदल डाले हैं उसने। मनुष्य सामाजिक जीवन का निर्माता है, उससे राष्ट्र को बल मिलता है। मानवीय शक्ति की एक चिंगारी से युग परिवर्तित हुए हैं, हो रहे हैं और यह क्रम आगे भी युग-युगान्तरों तक चलता रहेगा। वह जिधर चलता है, दिशायें चलने लगती हैं, रुकता है तो सारा संसार निष्प्राण सा हो जाता है। मनुष्य ही संसार की गति, जीवन और प्राण है। वह न होता तो सारा संसार ऊबड़-खाबड़ अस्त-व्यस्त और जड़वत् पड़ा होता। धरती पर यही प्राण बिखराता और विभिन्न प्रकार के खेल रचाया करता है।

वैज्ञानिक आविष्कारों और औद्योगिक संस्थाओं की ओर दृष्टि घुमाने से उसकी महत्ता की बात और भी पुष्ट होती है। लगता है चाहे जब अणु- आयुधों का प्रयोग करके वह सारी धरती को तहस -नहस कर डाले। यह भी सम्भव है कि वह इस शक्ति का उपयोग रचनात्मक कार्यों में करने लगे तब तो स्वर्ग के सभी बहुमूल्य पदार्थ यहीं प्राप्त करने में कोई मुश्किल शेष न रहेगी। मनुष्य के अन्दर भगवान का तेज, सृष्टि का सत्व सिद्धियों के स्रोत, देखकर उसे प्रभु का प्यारा कहने को मन करता है। लगता है इन्हीं विशेषताओं के कारण संसार के दूसरे प्राणी शारीरिक शक्तियों में प्रबल होते हुये भी उसे शीश झुकाते हैं।

इतना होते हुये भी मनुष्य की यह दलित और गलित अवस्था देखकर एकाएक उसकी शक्तियों पर विश्वास नहीं होता। इसका एक ही कारण है कि लोग सुख प्राप्ति के साधनों में भटक जाते हैं और अपनी शक्तियों से वंचित बने रहते हैं। सुख और शान्ति का मूल है मनुष्य की आत्मा। जब तक वह आत्म साक्षात्कार नहीं कर लेता तब तक उसकी शक्ति ऐसी ही है जैसे घर में अपार सोना गड़ा है, पर वह किस स्थान पर कितनी गहराई पर गड़ा है, इस ज्ञान के अभाव में उस सोने की प्राप्ति नहीं हो सकती। आत्मा ही सिद्धियों की जननी है। ब्रह्मा तादात्म्य का कारण और माध्यम भी वही है। उसे पहचाने बिना मनुष्य शक्तिवान नहीं हो सकता। इसके लिए मनुष्य को साधना स्वाध्याय संयम एवं पारलौकिक जीवन का अभ्यास करना पड़ता है तब उस शक्ति का अभ्युदय होना सम्भव हो सकता है।

आत्म ज्ञान प्राप्त करने के लिए कुल, देश और काल का कोई बंधन नहीं है। अपनी श्रद्धा निष्ठा, विश्वास, लगन और तत्परता के बल पर हीन कुल उत्पन्न व्यक्ति भी आत्मोद्धार कर सकता है। अजामिल, गुह, रैदास और कबीर आदि सन्तों के जीवन से यह प्रमाणित होता है कि आत्म ज्ञान प्राप्त करने के लिये वर्ण व्यवस्था बाधक नहीं। जीवन शोधन के द्वारा नीच कुल में उत्पन्न व्यक्ति भी सवर्णों जैसी ही आध्यात्मिक स्थिति प्राप्त कर सकता है। इसी प्रकार सतयुग, द्वापर, कलियुग की सीमायें भी इस मार्ग में रुकावट नहीं डालती है। हमारे पूर्व पुरुष अनन्त शक्तियों के स्वामी थे। यह उत्तरदायित्व किसी न किसी रूप में हमें भी प्राप्त है और आगे भी यह क्रम सदैव इसी भाँति चलता रहेगा। संस्कृति, शिक्षा और सदाचार के अनुरूप कुल और काल में- आत्म ज्ञानी पुरुषों में न्यूनाधिक्य तो हो सकता है किन्तु यह परिस्थितियाँ इनसे प्रतिबन्धित नहीं हैं।

आत्म-परिष्कार निःसंदेह एक प्रकार का तप है। इससे कई व्यक्ति अपनी असमर्थता प्रकट करने लगते हैं। बचाव के लिये लोग यह कहा करते है “हमारी तो अब अवस्था नहीं रही। या हम अब बुड्ढे हो गये अब तो मन भी नहीं लगता। या हम तो अभी नवयुवक हैं, अभी हमारे हँसने खेलने के दिन है। धर्म कर्म की बातें तो वृद्धावस्था में चलती हैं आदि-आदि।” पर इसलिये वस्तु स्थिति बदलती नहीं। आत्मा जन्म मरण रहित है। उसे न बुढ़ापा आता न मृत्यु होती है। प्रत्येक परिस्थिति में वह एक सा होता है। ऐसा न होता तो ध्रुव पाँच वर्ष की अवस्था में पूर्णता प्राप्त न करते। जगद्गुरु शंकराचार्य ने इकत्तीस वर्ष की अवस्था में ही वह कार्य पूरा कर दिखाया था जो कोई सौ वर्ष का भी व्यक्ति नहीं कर सकता था। सन्त ज्ञानेश्वर ने 15 वर्ष की अवस्था में गीता की सुप्रसिद्ध ज्ञानेश्वरी टीका लिखी थी। अमेरिका के प्रख्यात आविष्कारक एडिसन 135 वर्ष के बाद तक सृष्टि के महत्वपूर्ण रहस्य खोजने में लगे रहे और सफलता पाई। आत्मोन्नति के मार्ग में आयु का कम या ज्यादा होना बाधक नहीं है आवश्यकता केवल अपने संस्कारों के जागरण की होती है।

उन्नतिशील होना पूर्णतया भाग्य पर भी निर्भर नहीं है। विचार पूर्वक देखने से यह पता चलता है कि परमात्मा से जो साधन मनुष्यों को मिले हैं वे प्रायः समान हैं। हर किसी को दो हाथ, दो पाँव, नाक, आँख, मुख आदि एक जैसे मिले हैं। विचार, विद्या, आदि के साधन भी प्रत्येक मनुष्य अपनी लगन के अनुसार प्राप्त कर सकता है। भाग्यवादी सिद्धान्त कायरों और का पुरुषों का है। पुरुषार्थ एक भाव है और उसका कर्ता पुरुष है अर्थात् मनुष्य अपने भाग्य का निर्माण अपने पौरुष से करता है। अपनी पूर्व असमृद्धि से किसी को अपनी क्षुद्रता स्वीकार नहीं कर लेनी चाहिए। बलवान आत्मायें प्रतिकूल दिशा में भी उन्नति करती हैं। मनुष्य के व्यक्तित्व का सच्चा परिष्कार तो कठिनाइयों में ही होता है।

बाह्य साधनों के अभाव का रोना भी अत्यन्त दुर्भाग्य पूर्ण है। आपके पास फाउन्टेन पेन नहीं है तो क्या इससे लिखने का काम रोक देना चाहिए। आप होल्डर से भी काम चला सकते हैं कलम या पेन्सिल ही इस्तेमाल कर लें तो क्या हर्ज है। मनुष्य साधनों का दास नहीं है वह साधन स्वयं बनाता है। धन स्वतः पैदा नहीं होता, किया जाता है। इसलिये निर्धनता पर आँसू बहाना हम अकर्मण्यता मानते हैं। उद्योगी पुरुष तो हजार हाथ कुआँ खोदकर भी पानी निकाल लेते हैं। आत्म-शोधन भी किसी साधन के अभाव में रुकता नहीं। यदि अपना मनोबल कमजोर न हो तो गई-गुजरी अवस्था में भी आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है।

अपनी इच्छा शक्ति दृढ़ हो तो स्थान, संगठन आदि के अत्यन्त छोटे अभाव भी आत्मोत्थान में बाधा पहुँचा नहीं सकते। संसार के अधिकाँश महापुरुषों ने तो आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिये अपनी सुख सुविधाओं का त्याग भी कर दिया था। एक दृष्टि से भौतिक सम्पन्नता आध्यात्मिक विकास में बाधक मानी गई है क्योंकि इससे मनुष्य की चेष्टायें अन्तर्मुखी नहीं हो पातीं। मनुष्य साँसारिक विषय वासनाओं में ही फँसा रहता है। हमारे ऋषियों ने इसी लिये यज्ञीय जीवन की परम्परा को जन्म दिया है। वे स्वयं त्यागमय जीवन जीते थे ऐसा ही आदेश वे हमें भी दे गये हैं। उनके ऐसा करने का एक ही उद्देश्य था कि मनुष्य अपनी आवश्यकतायें बढ़ाकर आत्म कल्याण के मार्ग से कहीं विचलित न हो जाये।

योग वसिष्ठ में कहा गया है कि मनुष्य अपनी आत्मा के दर्शन अपनी ही शक्तियों को प्रयुक्त करके करे, कोई बाह्य शक्ति आपकी सहायता नहीं कर सकती :-

यद्यदासाद्यते किंचित्केनचित्क्वचिदेव हि।

स्वशक्तिसंप्रवृत्त्या यल्लभ्यते नान्यतः क्वचित्।

अर्थात् मनुष्य यदि कुछ प्राप्त करता है तो अपनी ही शक्तियों के द्वारा। बाहरी साधन सीमित सहायता मात्र दे सकते हैं। इसी प्रकार सन्त इमर्सन का कथन है “मनुष्य अपनी सहायता आप ही कर सकता है।”

जिन सद्गुणों को आधार पर मनुष्य उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है उनमें से प्रमुख है - आत्म -विश्वास। अंग्रेजी के प्रमुख कवि टेनिसन ने लिखा है “जीवन शक्ति सम्पन्न हो सकता है यदि हममें आत्म विश्वास, आत्मज्ञान, और आत्म संयम हो।” मनुष्य व्यर्थ ही लौकिक कामनाओं में डूबा रहता है। इससे उसका कोई भी प्रयोजन पूरा नहीं होता। मनुष्य का ध्येय इससे शरीर सुख तक ही सीमित हो जाता है। किन्तु जब वह यह विचार करने लगता है कि शरीर जड़ और चेतन शक्तियों का सम्मिश्रण है तो उसकी आध्यात्मिक आस्था जागृत होती है। इसी का नाम आत्म-विश्वास है। इसी से आत्म क्षुद्रता का निवारण होता है।

संकल्प कर लेने मात्र से ही सफलता नहीं मिल सकती। इसके लिए क्रियाशील होना पड़ता है और संयमित जीवन द्वारा शारीरिक शक्तियों को गतिशील रखना पड़ता है। सौंदर्य लहरी में जगद्गुरु शंकराचार्य ने लिखा है :-

शिवः शक्त्या युक्तों यदि भवति शक्तः प्रभवितुँ।

न चेदेव देवो न खलु कुशलः स्पन्दितुमपि॥

अर्थात् संकल्प सिद्धि के लिये कर्म करना पड़ता है। कर्म का आधार शक्ति है, तभी सामर्थ्य बनती है। शक्ति न हो तो क्रियाशीलता भी न रहेगी।

इस प्रकार मनुष्य जब धीरे-धीरे अपने दोष दुर्गुणों को हटाकर श्रेष्ठ संस्कारों को धारण करने लगता है तो उसके जीवन में दृष्टिकोण में, स्वभावतया परिवर्तन होने लगता है। भोग-विलास की लालसा मिट जाती है और आत्म-ज्ञान की इच्छा बलवान होती जाती है। वैसे ही साधन भी मिलते जाते हैं और जीवन क्रम सरलतापूर्वक लक्ष्य प्राप्ति की ओर अग्रसर होने लगता है। यह साधन बाह्य नहीं होते वरन् आन्तरिक विशेषतायें ही होती हैं। सत्य, अहिंसा, प्रेम, त्याग, सेवा, आशा, उत्साह, धैर्य, स्वाध्याय, संयम सदाचार आदि के द्वारा उसका परिष्कार होकर शुद्ध निर्मल तथा पवित्र आत्मा के दर्शन होने लगते हैं।

यही वह स्थिति होती है जहाँ सम्पूर्ण शक्तियाँ आकर केन्द्रीभूत हो जाती हैं और “अहं ब्रह्मास्मि अयमात्मा” की शक्तिशाली भूमिका पर मनुष्य पदार्पण कर जाता है। मनुष्य जिस उद्देश्य को लेकर इस धरती में आता है उसकी पूर्ति हो जाती है और वह अनन्त सिद्धियों का स्वामी बन कर सुखोपभोग करता है। जिन्हें सुख की कामना हो उन सबके लिए भी यही रास्ता है कि अपना पौरुष जागृत करें, शक्तिशाली बनें। तभी सच्चा सुख मिल सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118