परिवार संस्था और उसका महत्व

November 1964

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भारतीय समाज निर्माताओं ने मनुष्य के आन्तरिक बाह्य जीवन को अधिकाधिक परिष्कृत उन्नत, विकसित करने के लिए भौतिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में नाना प्रयोग किए। नाना आदर्शों संस्थाओं की स्थापना की। धर्म, दर्शन, अर्थविज्ञान, वर्ण-व्यवस्था, आश्रम आदि इसी प्रकार के प्रयोग थे। लेकिन जीवन में विभिन्न पहलुओं का एकीकरण करते हुए उन्होंने परिवार संस्था का एक महत्वपूर्ण प्रयोग किया था, जो व्यावहारिक, सहज सुलभ, सुखकर सिद्ध हुआ। परिवार संस्था ने मनुष्य के जीवन को आदि काल से ऐसा मार्गदर्शन किया है जैसा अन्य किसी भी संस्था ने नहीं किया होगा। इतिहास बदल गये, दुनिया का नक्शा बदल गया, समाज संस्थाओं में बड़े-बड़े परिवर्तन हुए लेकिन भारतीय समाज में परिवार संस्था आज भी ध्रुव बिन्दु की तरह जीवित है। यद्यपि वर्तमान युग में कई आर्थिक, वैज्ञानिक, सामाजिक परिवर्तनों का प्रभाव अब परिवार पर भी पड़ने लगा है लेकिन भारतीय परिवार के मूल में जो विशाल भावना, जीवित प्रेरणा का काम कर रही है वह उसे मिटने नहीं देगी। वर्तमान संक्रमण काल के बाद वह परिस्थितियों में परिवार संस्था पुनर्गठित होकर-मानव के उत्कर्ष में अपना योगदान जारी रखेगी।

वस्तुतः मानवीय जीवन में जो कुछ भी आनन्दमय, रसपूर्ण साथ ही कर्तव्य और धर्म का सारतत्व है वह “हिंदू-परिवार” में सरलता से मिल जाता है। हमारे समाज-शिल्पियों ने ‘परिवार संस्थान’ की नींव में ऐसे अमृततत्वों के बीज वपन कर दिए हैं जिनके कारण काल के अनन्त प्रवाह में भी भारतीय परिवार अपना अस्तित्व सदा-सदा कायम रखेगा।

भारतीय मनीषियों की एक विशेषता रही है, वह यह है कि उनके प्रयोग केवल स्थूल पक्ष अथवा भौतिक तथ्यों तक ही सीमित नहीं रहते थे। वे सूक्ष्म क्षेत्रों में विश्व का संचालन करने वाले सार्वभौमिक तथ्यों की खोज करते थे और फिर उन्हें भौतिक विधानों में व्यवस्थित करते थे। परिवार संस्था के मूल में किसी ऋषि के इसी तरह के सूक्ष्म अन्वेषण का रहस्य छुपा हुआ है।

नारी और पुरुष परिवार संस्था के दो मूल स्तम्भ हैं। दोनों मानो नदी के दो तट हों जिनके मध्य से परिवार की जीवन की धारा बहती है। वैदिक साहित्य में स्त्री-पुरुष की उपमा पृथ्वी और द्युलोक से दी गई है। विवाह संस्कार के अवसर पर भी पुरुष, स्त्री से कहता है “द्योरहं पृथ्वी त्वम।” मैं द्यो हूँ तू पृथ्वी। आकाश और धरती, पुरुष और प्रकृति, के संयोग से ही विश्व परिवार का उदय हुआ, ठीक इसी तरह स्त्री और पुरुष के संयोग से परिवार संस्था का निर्माण होता है। हिंदू परिवार की मूल प्रेरणा बहुत विशाल है जिसमें हिंदू धर्म की वह मूल भावना सुरक्षित रहती है जिसके अनुसार हमारे यहाँ स्थूल और नश्वर का सम्बन्ध विश्वव्यापी चिरन्तन नित्य सूक्ष्म सत्ता के विधान से मिलाया गया है। परिवार संस्था केवल स्थूल व्यवस्था मात्र नहीं है अपितु उसमें भी एक सूक्ष्म किंतु सनातन सत्य की जीवन ज्योति समाई हुई है। विश्व जीवन में द्योः और पृथ्वी से लेकर परिवार में स्त्री-पुरुष के गृहस्थ जीवन की मधुर कल्पना में ऋषि का एक ही दार्शनिक दृष्टिकोण रहा है। जैसे द्युलोक और पृथ्वी एक ही संस्थान के पूरक, तत्व हैं उसी तरह स्त्री और पुरुष भी परिवार संस्था के पूरक अंग हैं।

स्त्री-पुरुष की अभेदता को व्यक्त करते हुए पुरुष, स्त्री से कहता है - “सामोऽहस्मि ऋकत्वम्” मैं यह हूँ तू वह है। तू वह है मैं यह हूँ। मैं साम हूँ तू ऋक् है। किसी वस्तु का व्यास अथवा परिधि परस्पर अभिन्न होते हैं। व्यास न हो तो परिधि का अस्तित्व नहीं, परिधि न हो तो व्यास कहाँ से आये? सृष्टि के मूल भूत हेतु में जिस तरह द्युलोक और पृथ्वी का स्थान है उसी तरह परिवार संस्था में स्त्री पुरुष का कैसी विशाल कल्पना थी हमारे समाज शिल्पी मनीषी की पारिवारिक जीवन के अन्तराल में।

परिवार संस्था में जहाँ स्त्री पुरुष को अभेदता का प्रतिपादन किया गया है। वहाँ पूरे संस्थान को कर्तव्य धर्म की मर्यादाओं में बाँध कर उसे सभी भाँति अनुशासन, सेवा त्याग, सहिष्णुता-प्रिय बनाया जाता है और इन पारिवारिक मर्यादाओं पर ही समाज की सुव्यवस्था, शान्ति, विकास निर्भर करता है। परिवार में माता-पिता, पुत्र, बहन, भाई, पति-पत्नी, नातेदार, रिश्तेदार, परस्पर कर्तव्य धर्म से बंधे हुए होते हैं। कर्तव्य की भावना मनुष्य में एक दूसरे के प्रति सेवा सद्भावना उत्सर्ग की सद्वृत्तियाँ पैदा करती हैं। हिन्दु परिवार में समस्त व्यवहार कर्तव्य की भावना पर टिका हुआ है। सभी सदस्य एक दूसरे के लिए सहर्ष कष्ट सहन करते हैं, त्याग करते हैं। दूसरों के लिए अपने सुख और स्वार्थ का प्रसन्नता के साथ त्याग करते हैं। शास्त्रकारों की भाषा में यही स्वर्गीय जीवन है। इसके विपरीत जहाँ अपने सुख और स्वार्थ के लिए दूसरों के हकों की छीनाझपटी, अपने अधिकार जताकर केवल पाने या लेने ही लेने का व्यवहार सामूहिक जीवन में परस्पर तनाव और संघर्ष को जन्म देता है, वहाँ विरोध, द्वेष, ईर्ष्या पैदा हो जाती है। इसे ही नीतिकारों ने नरक कहा है। यदि धरती पर स्वर्गीय जीवन की प्रत्यक्ष रचना कहीं हुई है तो वह है भारतीय परिवार संस्था। रस, आनन्द, त्याग उत्सर्ग सेवा सहिष्णुता का स्वर्गीय वातावरण यदि कहीं देखना ही हो वह हिन्दू परिवार में सफलता से देखा जा सकता है। रामायण का आदर्श हिन्दू परिवार का ज्वलन्त उदाहरण है। इसमें स्वार्थपरता पदलोलुपता, बुराइयों के ऊपर त्याग, सेवा, सद्गुणों की विजय बताई गई है।

परिवार ने जहाँ व्यक्ति के विकास में भारी योग दिया है वहाँ सामाजिक साँस्कृतिक उत्थान में भी बहुत बड़ा हाथ रहा है। परम्परा को आधार बना कर उससे आगे नियमित विकास और सन्तुलित प्रगति के क्षेत्र में परिवार संस्था सदा-सदा कार्य करती रही है। समाज के लिए जो भी हितकर आवश्यक है उसकी रक्षा परिवार संस्था ने पूरी की है। पर्व, त्यौहार, कला, सौजन्य, उत्साह, उमंग को परिवार संस्था ने ही सदा-सदा- जीवित रखा है।

समाज और संस्कृति के विकास में परम्परा का अपना एक महत्व रहा है। लोग अपनी परम्परा को शानदार बनाये रखने के लिए बड़े से बड़ा त्याग करते हैं और इस तरह के आदर्श कुलों का जहाँ बाहुल्य होता है वह समाज भी आदर्श और महान बन जाता है। महात्मा विदुर ने युधिष्ठिर को आदर्श कुलों के आधार बताते हुए कहा था “तप, दम, ब्रह्म-ज्ञान, यज्ञ, दान शुद्ध विवाह, सम्यक् विचारों से कुल आदर्श बनते है”। इन बातों में कहीं भी ऐसा नहीं है कि धन अथवा भौतिक ऐश्वर्य सम्पदाओं से कुल की मर्यादा बढ़ती है। धर्म के आचरण से ही परिवार उन्नत होते हैं। प्रत्येक सदस्य परिवार की शान के लिए उसकी समृद्धि विकास के लिए अपने जीवन में बड़े से बड़ा काम करने की इच्छा रखता है और ऐसी उत्साहयुक्त भावना व्यक्ति और समाज दोनों के लिए बहुत ही हितकर सिद्ध होती है। व्यक्ति जहाँ परिवार के भवन में धर्म आदर्श की सीढ़ियों पर ऊँचे से ऊँचा चढ़ता है वहाँ ऐसे व्यक्तियों से समाज भी समुन्नत होता है और अनेक सदस्यों से युक्त परिवार का उत्थान सभी भाँति स्वच्छ फूलता-फलता समृद्ध और विकसित होता रहता है।

परिवार संस्थान तपस्थली है जहाँ व्यक्ति स्वेच्छा से तप -त्याग धर्माचरण का अवलम्बन लेता है। परिवार में मनुष्य का आत्मिक मानसिक विकास सरलता से हो जाता है। परस्पर एक दूसरे के प्रति अपने कर्तव्य निभाने का धर्म मनुष्यों का जीवन निखार देता है।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि हिन्दू परिवार व्यक्तिगत जीवन निर्माण के साथ साथ सामाजिक जीवन की समृद्धि के लिए एक महान प्रयोग हुआ है हमारे देश में। अनेक आक्रमणों, आघातों को सहकर भी आज जो हमारी सामाजिक, साँस्कृतिक धरोहर सुरक्षित रही है उसके मूल में परिवार संस्था का बहुत बड़ा योग रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि आज के परिवर्तनों, परिस्थितियों में परिवार संस्था को पुनर्गठित करके समाज की इस जीवनदायिनी धारा को अधिक शक्तिशाली और समृद्ध बनाया जाए।


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