पाक्षिक पत्रिका का सर्वत्र स्वागत

November 1964

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युग-निर्माण आन्दोलन का विधिवत् उद्घाटन गत वर्ष गुरुपूर्णिमा (जून 63) को हुआ है। इस जून में उस’का पहला वर्ष पूरा होकर दूसरा प्रारम्भ हुआ। पहला वर्ष संगठन एवं व्यवस्था में लग गया। दूसरा वर्ष ‘युग-निर्माण योजना’ पाक्षिक के साथ आरम्भ हुआ। इस नई पत्रिका की अनिवार्य आवश्यकता इसलिये पड़ गई कि गत वर्ष आन्दोलन ने गहरी नींव जमा ली थी और इस वर्ष इस पुण्य प्रक्रिया को बहुत आगे तक गतिशील होना था। इतने बड़े आन्दोलन के संचालन, मोड़, मार्ग-दर्शन के लिए प्रस्तुतः कतिपय दैनिक पत्रों की आवश्यकता है। कम से कम एक अच्छा साप्ताहिक तो होना ही चाहिए। वह भी न हो तो पाक्षिक से और क्या कमी की जाय? अतएव एक अनिवार्य आवश्यकता के रूप में निकाला हुआ यह पाक्षिक साधनों की दृष्टि से दुर्बल होते हुए भी अपनी कर्तव्य भूमिका का सुचारु रूप से संचालन कर रहा है।

अखण्ड-ज्योति स्थायी महत्व की वस्तु है। उसे लोग इस युग की गीता के रूप में नियमित स्वाध्याय के लिये पीढ़ियों तक संग्रह करने के लिये सुरक्षित रखते हैं। उसमें जो कुछ छपता है वह स्थायी महत्व का होता है। आन्दोलनों में सामयिक परिस्थितियों एवं प्रेरणाओं की प्रधानता रहती है इसलिये उसे समाचार प्रधान बनाना पड़ता है। ‘अखण्ड-ज्योति’ विचार प्रधान है। उसमें कुछ दिनों “युग-निर्माण आन्दोलन की प्रगति” नामक स्तम्भ रखकर इस आवश्यकता की आँशिक पूर्ति की गई थी पर वह चिन्ह पूजा मात्र थी। जिस प्रचण्ड आन्दोलन में तीस हजार मस्तिष्क और साठ हजार हाथ काम कर रहे हैं, जिसकी गतिविधियां निरन्तर तूफानी तेजी के साथ बढ़ती जा रही हों उसके लिये ‘अखण्ड-ज्योति’ में रहने वाला चार छह पन्ने का छोटा-सा स्तम्भ क्या काम कर सकता था? उससे आवश्यकता की कितनी पूर्ति हो सकती थी? काम भी कुछ बनता न था और अखण्ड-ज्योति के स्थायी महत्व की सामग्री भी उतनी कम पड़ जाती थी। इन परिस्थितियों में नई पाक्षिक पत्रिका आरम्भ करने के अतिरिक्त और कोई चारा शेष न रह गया था।

प्रसन्नता की बात है कि इस नये प्रयास ने विगत चार महीने में ही अपना एक नया स्थान बनाया है। अपने परिवार के सभी सक्रिय कार्यकर्ताओं ने उसका सच्चे मन से स्वागत किया है और आन्दोलन की एक अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति का मार्ग निकलने पर अत्यधिक सन्तोष प्रकट किया है। इस पाक्षिक ने सारे परिवार में एक नया उत्साह, नया जीवन, नया प्राण फूँका है और जो सदस्य निष्क्रिय पड़े हुए थे वे भी करवटें ही नहीं बदल रहे हैं वरन् कुछ करने के लिये भी कटिबद्ध हो रहे हैं। जिस प्रकार अखण्ड-ज्योति सोचने की दिशायें ठीक करती है। उसी प्रकार योजना जीवन-क्रम को ठीक तरह संचालित करने-’क्रियाशीलता में उल्लास भरने के लिये महत्वपूर्ण मार्ग दर्शन करती है। विचार और कार्य दोनों के मिलने में ही तो प्रगति का पथ प्रशस्त होता है। इस तथ्य को सत्य के रूप में प्रस्तुत करने के लिये यह दोनों ही पत्रिकायें अपनी-अपनी महत्वपूर्ण भूमिकाएँ प्रस्तुत कर रही हैं।

नई पत्रिका अखण्ड-ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिये अनिवार्य आवश्यकता के रूप में प्रस्तुत हुई है। उसे पढ़कर ही युग-निर्माण आन्दोलन में भाग ले सकने के लिये आवश्यक उत्साह एवं मार्ग दर्शन प्राप्त होता है। अतएव परिजन उसे उसी भाव से पढ़ने भी लगे हैं। ‘आमतौर से सक्रिय कार्यकर्ताओं ने उसे भी अपने ही पैसे से मँगाया है और अन्य सदस्यों तक उसे पहुँचाने एवं पढ़ाने की व्यवस्था कर दी है। जहाँ अधिक कठिनाई एवं कंजूसी आड़े आई है वहाँ कई सदस्यों ने मिल-जुलकर उसे मँगा लिया है। सन्तोष की बात है जहाँ कहीं भी अपने परिजन या परिवार है वहाँ यह पहुँचने लगी है और उत्साहपूर्वक पढ़ी जाने लगी है। ऐसे आलसी लोग बहुत ही कम हैं जिन्होंने नव-निर्माण के पाँचजन्य की तुमुल ध्वनि को भी अपने बहरे कानों में प्रवेश नहीं होने दिया है और कोई करवट बदलने का प्रयत्न नहीं किया है। आशा तो उनसे भी यही की जाती है कि आज नहीं तो कल उन्हें भी परिवार के इस महान अभियान के लिये आरम्भ हुई पुण्य प्रक्रिया के लिये कदम से कदम मिलाकर चलना पड़ेगा।

अब युग-निर्माण आन्दोलन की प्रगति का संक्षिप्त संकेत ही अखण्ड-ज्योति के अन्तिम दो-चार पृष्ठों में रहा करेगा। बाकी तो सब कुछ विस्तारपूर्वक बताने के लिये पाक्षिक पत्रिका है ही जहाँ उसे नहीं मँगाया गया है वह अगले ही दिनों उसे मंगाया भी जाने लगेगा। तब अपने रचनात्मक कार्य की प्रेरणा सन्देश भी सभी परिजनों तक पहुँचना संभव हो जायेगा। ऐसी दशा में अखण्ड-ज्योति में उस स्तम्भ के रखने की कुछ उपयोगिता नहीं रह जाती।

एक बड़े हर्ष की बात यह भी है कि पत्रकारिता की दृष्टि से युग-निर्माण योजना को एक ‘अनुपम घटना’ के रूप में देशभर के पत्र-पत्रिकाओं तथा विचारकों, विद्वानों एवं साहित्यकारों ने उसका स्वागत किया है। अब तक एक हजार से अधिक पत्र ऐसे आये हैं जिनमें इस सम्पादन शैली को भारत में ‘सर्व प्रथम’ माना गया है। पाक्षिक में छपने वाले लेखों, विचारों और समाचारों को अनेक पत्र-पत्रिकायें ‘उद्धृत’ कर रही हैं। कितने ही नवोदित साहित्यकार ऐसे अद्भुत सम्पादन की शिक्षा प्राप्त करने के लिये लालायित हो रहे हैं। चार महीने का यह प्रयास इतना सत्कार प्राप्त करेगा इसकी किसी को स्वप्न में भी आशा न थी। अखण्ड-ज्योति परिवार से बाहर लोग भी उसे एक अनुपम पत्रिका मानकर माँग रहे है। इसे ईश्वर की महती अनुकम्पा के अतिरिक्त और क्या कहा जाए?


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