आश्विन मास का शिविर

November 1964

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आश्विन का चान्द्रायण व्रत एवं सजीवन विद्या शिविर गायत्री तपोभूमि मथुरा में बड़ी सफलता एवं आनन्दमय वातावरण में सम्पन्न हुआ। स्थान की कमी के कारण 50 व्यक्तियों को ही स्वीकृति दी गई थी पर उनकी संख्या बढ़ कर 80 हो गई। कुछ लोगों को उनके विशेष अनुरोध पर निर्धारित संख्या का व्यक्तिक्रम करके स्वीकृतियाँ देनी पड़ीं। नवरात्रि में बीच के 9 दिन 27 व्यक्ति और बढ़ गये थे। उन दिनों साधकों की संख्या एक सौ से भी ऊपर पहुँच गई। स्थान की कमी की दृष्टि से सभी को असुविधा रही पर किसी प्रकार काम चल गया। शिक्षार्थियों ने इस असुविधा को भी किसी प्रकार सहन कर लिया।

चान्द्रायण व्रत को इस युग की सब से श्रेष्ठ तपश्चर्या माना गया है। अन्तःकरण पर चढ़े हुए मल आवरण और विक्षेपों का समाधान एवं संशोधन करने के लिए उससे बढ़कर और कोई साधन नहीं। वर्तमान जीवन में बन पड़े पापों का इस प्रकार अच्छा प्रायश्चित हो जाता है। इसे करने के उपरान्त जो लोग भावी जीवन में निष्पाप रहने की प्रतिज्ञा निभा लेते हैं उनके लिए निस्संदेह जीवन लक्ष्य की उपलब्धि सरल बन जाती है।

कब्ज, अपच, पेट में वायु उत्पन्न होते रहना जैसे उदर रोग ही आमतौर से अन्य अनेक रोगों का कारण होते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा-सिद्धान्तों के अनुसार कब्ज ही समस्त रोगों की एक मात्र जड़ है। कब्ज दूर हो जाने में-पेट के ठीक काम करने से, शरीर में नये जीवन का संचार होता है और निरोग दीर्घ जीवन की सम्भावना बढ़ जाती है। चान्द्रायणव्रत उदर रोगों का अमोघ उपचार है। एक महीना पेट को वैज्ञानिक ढंग का उपवास कराने का अवसर मिलता है उस विश्राम को पाकर उदर के अवयव फिर अपना काम ठीक प्रकार करना आरम्भ कर देते है उपरोक्त धर्मानुष्ठान में हमने प्राकृतिक चिकित्सा के आधुनिक विज्ञान सम्मत तथ्यों का भी समावेश कर दिया है इसलिए वह धार्मिक तपश्चर्या अब उदर रोगों की चिकित्सा की दृष्टि से भी उतनी ही महत्वपूर्ण बन गई है। आँतों की सफाई के लिये एनीमा आदि का उपयोग करते रहने से पेट अच्छी तरह साफ हो जाता है और उपवास का पूरा-पूरा लाभ भी मिलता है।

दुर्बल वृद्ध, बालक, महिलाएँ या मानसिक दृष्टि से कठोर उपवास सहन न कर सकने वालों के लिए दूध, छाछ, शाक, रस आदि की कुछ अतिरिक्त व्यवस्था कर दी जाती है जिससे यह कठिन उपवास सरल बन जाता है और दुस्साहसी लोग ही नहीं वरन् दुर्बल प्रकृति के लोग भी उसे आसानी कर पाते हैं। अलग-अलग व्यक्तियों की उदर सम्बन्धी कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए उनका अलग अलग उपचार भी चलता रहता है। जिससे शिविर में आने वाले को वह लाभ भी मिलता है जो किसी कुशल एवं विश्वस्त चिकित्सक की चिकित्सा करने से मिल सकना सम्भव है। अभी केवल उदर रोगों की चिकित्सा का ही यहाँ प्रबन्ध है। अन्य रोगों का उपचार प्रबन्ध नहीं है। फिर भी यह एक रोग मिट जाने से अन्य रोग 80 प्रतिशत स्वयं ही अच्छे हो जाते हैं। इस प्रकार चान्द्रायणव्रत शिविर शरीर शोधन की दृष्टि से एक अच्छी चिकित्सा पद्धति भी है।

शरीर और मन का एक प्रकार से उथल-पुथलकारी संशोधन हो जाने से कोई व्यक्ति अपनी जीवन प्रगति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। यह लाभ चान्द्रायणव्रत शिविर में आने वालों को मिलता है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण आश्विन के इस शिविर में देखा गया। जो भी आए उनमें से अधिकाँश इस अलभ्य अवसर को एक अनुपम सौभाग्य मानते हुए अपने भाग्य को सराहते हुए गये।

इस एक महीने में सवालक्ष गायत्री पुरश्चरण कर लेना अपने आप में एक श्रेष्ठ साधना है। यों साधारण गायत्री अनुष्ठान कोई भी अपने घर रहकर कर सकता है पर गायत्री तपोभूमि जैसे पवित्र स्थान में, चान्द्रायणव्रत करते हुए उसका महत्व बहुत बढ़ जाता है। साधारण परिस्थितियों में जो लाभ दस अनुष्ठान करने से मिलता है वह यहाँ की विशेष परिस्थितियों में एक में ही मिल जाता है। आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से भी यह एक महीना प्रत्येक साधक के लिए बहुत उपयुक्त सिद्ध हुआ।

संजीवन विद्या का शिक्षण अध्यात्म ज्ञान का एक व्यावहारिक मार्ग दर्शन है। जिन्दगी जीने की कला से अपरिचित होने के कारण हमारे सामने चिन्ताओं, विक्षोभों, असफलताओं, कुण्ठाओं, बीमारियों एवं कठिनाइयों का पहाड़ खड़ा रहता है। पग−पग पर जीवन की निरर्थकता प्रतीत होती है। इस मानसिक विपन्नता को हटाकर आशा, उत्साह और व्यवस्थित जीवन एवं रचनात्मक दृष्टिकोण अपनाने की प्रेरणा जिस प्रकार से सम्भव हो सकती है वह सब कुछ भाषणों तथा प्रयोगों द्वारा शिक्षार्थी की अन्तः भूमिका में प्रविष्ट कराया जाता है। यह पद्धतियाँ ऋषियों के गुरुकुलों में प्रयुक्त होती थीं इसलिये अति प्राचीन भी हैं और मनोविज्ञान की नवीनतम शोधों का तथा वर्तमान समाज विज्ञान के तथ्यों का समावेश रहने से यह नवीनतम भी है। इस प्रशिक्षण का जीवन-शोधन की दृष्टि से कैसा चमत्कारी प्रभाव पड़ता है उसे प्रत्येक शिक्षार्थी भली प्रकार अनुभव कर सकता है।

विगत जून में तीन परामर्श शिविर हुए थे। वे अलग तरह के थे। यह एक महीने का आश्विन शिविर सबसे पहले था इसलिये उसमें कुछ व्यावहारिक एवं व्यवस्था संबंधी कठिनाइयाँ तथा त्रुटियाँ रह गईं। पहले प्रयोग में यह स्वाभाविक भी था। अगले शिविरों में यह त्रुटियाँ दूर हो जायेंगी और वे अधिकाधिक उपयोगी सिद्ध होते जायेंगे। फिर भी हमें पहले शिविर में आशाजनक सफलता प्राप्त हुई है और यह सुनिश्चित हो गया है कि आगे इस पुण्य प्रक्रिया का लाभ उठा सकना हर अखण्ड-ज्योति पाठक के लिये सम्भव हो सकेगा। जीवन शोधन की इस विद्यापीठ को आरम्भ होते और उसका सफलतापूर्वक मूर्तिमान होते देखकर हमें कितना सन्तोष एवं हर्ष है उसका परिचय लेखनी द्वारा नहीं दिया जा सकता।


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