समय जो गुजर गया, फिर न मिलेगा।

November 1964

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समर्थ स्वामी रामदास समय के सदुपयोग के बारे में बड़े महत्वपूर्ण शब्द कहा करते थे :-

एक सदैवपणाचे लक्षण।

रिकामा जाऊं ने दो एक क्षण॥

(दासबोध- 11-3-24)

अर्थात् “जो मनुष्य समय का सदुपयोग करता है, एक क्षण भी बरबाद नहीं करता, वह बड़ा सौभाग्यवान होता है।” धन और रुपये पैसे के मामले में यह कहा जाता है कि जिसका खर्च व्यवस्थित और मितव्ययी होता है, वही जीवन पर्यन्त धन का सुख-लाभ प्राप्त करता है, उसके खजाने में किसी प्रकार की कमी नहीं आती। ऐसे ही समय के प्रत्येक क्षण का उपयोग कर लेना भी मनुष्य की बुद्धिमत्ता का प्रतीक है। उन्नति की इच्छा रखने वालों को अपना समय कभी भी व्यर्थ न गँवाना चाहिए। समय के सदुपयोग करने में सदैव सावधान रहना चाहिये। आज जो समय गुजर गया, कल वह फिर आने वाला नहीं।

मार्ग चाहे व्यावहारिक हो अथवा पारमार्थिक, जो समय सम्बन्धी विवेक और सावधानी नहीं रखते, उन्हें इस के दुष्परिणाम जन्म-जन्मान्तरों तक भुगतने पड़ते है। आज अपने पास सभी परिस्थितियाँ हैं, साधन हैं। मनुष्य शरीर मिला है, बुद्धि और विचार की बहुमूल्य विरासत जो हमें मिली है वह यह समझ लेने के लिए है कि आपका समय सीमाओं से प्रतिबन्धित है। सृष्टि के दूसरे जीवों में से कई तो लम्बी आयु वाले भी होते हैं किन्तु मनुष्य की अवस्था अधिक से अधिक सौ वर्ष है। उसमें भी कितना समय अवस्था के अनुरूप व्यर्थ चला जाता है। फिर जो शेष बचता है उसका उपयोग यदि साँसारिक और आत्मिक विकास के लिए नहीं कर पाये तो कौन जाने यह परिस्थितियाँ फिर कभी मिलेंगी या नहीं।

आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने वाले भी जब समय का ठीक-ठीक उपयोग नहीं कर पाते, इस सम्बन्ध में जागरुक और विवेकशील नहीं होते तो बड़ा आश्चर्य होता है। इससे अच्छे तो वे लोग ही हैं जो विचारे किसी प्रकार जीवन निर्वाह के साधन और आजीविका जुटाने में ही लगे रहते है। उन्हें यह पछतावा तो नहीं होता कि जीवन के बहुमूल्य क्षणों का पूर्ण उपयोग नहीं कर सके। आजीविका भी अध्यात्म का एक अंग है अतएव सम्पूर्ण न सही, कुछ वर्षों में तो उन्होंने मानव जीवन का सदुपयोग किया। हाथ पर हाथ रखकर आलस्य में समय गँवाने वाले सामाजिक जीवन में गड़बड़ी ही फैलाते है भले ही वे कितने ही बुद्धिमान, भजनोपदेशक, कथावाचक, पण्डित या सन्त संन्यासी ही क्यों न हों। समय का सदुपयोग करने वाला घसियारा, बेकार बैठे रहने वाले पण्डित से बढ़ कर है क्योंकि वह समाज को किसी न किसी रूप में समुन्नत बनाने का प्रयास करता ही है।

आलस्य में समय गँवाने वाले कुसंग और कुबुद्धि के द्वारा उल्टे रास्ते तैयार करते हैं। कहते हैं “खाली दिमाग शैतान का घर”। जब कुछ काम नहीं होता तो खुराफात ही सूझता है। जिन्हें किसी सत्कार्य या स्वाध्याय में रुचि नहीं होती वे खाली समय में कुसंगति, दुर्व्यसन, ताश-तमाशे और तरह-तरह की बुराइयों में ही अपना समय बिताते हैं। समाज में व्यवस्था का कारण कोई बाहरी शक्ति नहीं होती, अधिकाँश बुराइयाँ, कलह और झंझट बढ़ाने का श्रेय उन्हीं को है जो व्यर्थ में समय गँवाते रहते हैं। मनुष्य लम्बे समय निष्प्रयोजन, खाली बैठा नहीं रह सकता अतएव यदि वह भले काम नहीं करता तो बुराई करने में उसे देर न लगेगी। उसे अच्छा या बुरा, सच्चा हो चाहे काल्पनिक, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा। इसलिए यदि उसे सही विषय न मिले तो वह बुराइयाँ ही ग्रहण करता है और उन्हें ही समाज में बिखेरता हुआ चला जाता है।

मनुष्य के अन्तःकरण में ही उसका देवत्व और असुरत्व विद्यमान है। जब तक हमारा देवता जागृत रहता है और हम विभिन्न कल्याणकारी कार्यों में संलग्न रहते हैं। तब तक आन्तरिक असुरता भी मरी हुई पड़ी रहती है पर यह प्रसुप्त वासनायें भी अवकाश के लिए चुपचाप अंतर्मन में जगती रहती हैं और समय पाते ही देवत्व पर प्रहार कर बैठती हैं। इसलिए आध्यात्मिक पुरुष को चाहिए कि वह जागृत व्यवस्था में अपने जीवन के एक एक क्षण का सदुपयोग करता रहे।

जब यह दिखाई दे कि अब अपने पास कोई काम शेष नहीं रहा तो मनुष्य अपने निवास के आस पास की सफाई वस्त्रों की हिफाजत, घर की मरम्मत, बड़ों की देख-भाल, भजन ज्ञान विषयक चर्चा या किसी जीवनोपयोगी साहित्य का स्वाध्याय ही करने लग जाए। इससे टूटी फूटी वस्तुओं की सार-सम्हाल, स्वास्थ्य रक्षा और ज्ञान वृद्धि तो होगी ही। समय का मूल्याँकन केवल रुपये पैसे से ही नहीं हो सकता। जीवन में और भी अनेकों पारमार्थिक व्यवसाय हैं। उन्हें भी देखना और ज्ञान प्राप्त करना हमारा धर्म होना चाहिए। सत्कार्यों में लगाये गए समय का परिणाम सदैव सुखदायक ही होता है।

काम न करने का, लगातार किसी व्यवसाय में अभिरुचि न होने का कारण यह है कि एक सी स्थिति में रहते हुए मनुष्य को उकताहट पैदा होती है। यह स्वाभाविक भी है। मनोरंजन की आवश्यकता सभी को होती है। सन्त महात्मा भी प्रकृति दर्शन और तीर्थ-यात्रा आदि के रूप में मनोरंजन प्राप्त किया करते हैं। यह उकताहट यदि सम्हाली न जाए तो किसी न किसी व्यसन के रूप में ही फूटती है। व्यसन की शुरुआत खाली समय में कुसंगति के कारण ही होती है। हमारे धर्म प्रवर्तकों को इस विषय का ज्ञान था इसलिये उन्होंने हमारे रीति रिवाजों और आचार आदि में अनेकों प्रकार के कार्यक्रम अनिवार्य रूप में संयोजित कर दिए थे। व्रत, त्यौहार, उत्सव, विभिन्न संस्कार-समारोह, विवाह, सहभोज, कथा- कीर्तन, तीर्थ यात्रा सार्वजनिक सभाएं, जुलूस सम्बन्धियों के घर आने जाने आदि की परम्परायें इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रचलित की गई थीं कि निरन्तर काम और जीवन की दुरुहता में संलग्न मनुष्य को ऊब और उकताहट का सामना न करना पड़े।

आज कल इस प्रकार के साधनों में किसी प्रकार की कमी नहीं है। निरुत्साह और मानसिक थकावट दूर करने के लिए विविध मनोरंजक साधन आज बहुत बढ़ गये हैं। किन्तु समय के सदुपयोग और जीवन की सार्थकता की दृष्टि से इनमें से उपयोगी बहुत कम ही दिखाई देते हैं। अधिकाँश तो धन-साध्य और मनुष्य का नैतिक पतन करने वाले ही हैं। इसलिए यह भी आवश्यक हो गया है कि जब कुछ समय श्रम से उत्पन्न थकावट को दूर करने के लिए निकालें तो यह भली भाँति विचार कर लें कि यह जो समय उक्त कार्य में लगाने जा रहे हैं, उसका आध्यात्मिक उत्थान और आत्म विकास के लिए क्या सदुपयोग हो रहा है? मनोरंजन केवल प्रसुप्त वासना की पूर्ति के लिए न हो वरन् उसने भी आत्म कल्याण की भावना सन्निहित बनी रहे तो उस समय का उपयोग सार्थक माना जा सकता है।

फुरसत और खाली समय का उपभोग अच्छे, बुरे किसी भी काम में हो सकता है। नई-नई विद्या, कथा, लेखन, शास्त्रार्थ के द्वारा नई सूझ और आध्यात्मिक बुद्धि जागृत होती है। इससे अपना व समाज दोनों का ही कल्याण होता है। सत्कर्म में लगाये हुये समय से मनुष्य का जीवन सुखी, समुन्नत तथा उद्दात्त बनता है। जापान की उन्नति का प्रमुख कारण फुरसत के समय का सदुपयोग ही है। वहाँ सरकारी काम के घन्टों के बाद का समय लोग कुटीर उद्योगों में लगाते हैं, छोटे-छोटे खिलौने, घड़ियाँ आदि बनाते हैं इससे वहाँ की राष्ट्रीय सम्पत्ति बढ़ी है लोगों का जीवन सुखी हुआ है और नैतिक सदाचार का प्रसार हुआ है। खाली समय का उपयोग जिस प्रकार के कार्यों में करेंगे वैसी ही उन्नति अवश्य होगी।

समय का सदुपयोग प्रत्येक व्यक्ति करे इस सम्बन्ध में यदि कुछ व्यावहारिक कठिनाई है तो वह यह है कि मनुष्य को मनुष्यत्व का सच्चा ज्ञान नहीं होता। जीवन ध्येय का सच्चा ज्ञान तभी हो सकता है जब मनुष्य उसके लिए वास्तविक स्वरूप को पहचानें इनके लिए उसे विवेक, सावधानी और दीर्घ दृष्टि रख कर विचार करना आवश्यक है। जब तक वह अपने निजत्व के ज्ञान की ओर अग्रसर नहीं होता तब तक मनुष्य से यह आशा नहीं की जा सकती कि वह समय का मूल्य पहचान सकता है। उद्देश्य-हीनता ही समय के दुरुपयोग का प्रमुख कारण है।


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