मृत्यु की भी तैयारी कीजिए?

November 1964

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मृत्यु अपार शान्ति के सागर में विश्राम करना है। मृत्यु जीवन का परिपक्व फल है। मृत्यु व्यक्त और अव्यक्त के मिलने का महापर्व है। मृत्यु नवजीवन का आरम्भ है। सभी भाँति मृत्यु मंगलमय है, आनन्ददायी है। मृत्यु और जीवन का आनन्द साथ है। महर्षि वाल्मीकि ने कहा है-

“सहैव मृत्युर्व्रजति सह मृत्युर्निषीदति।

गत्वा सुदीर्घनष्वानं सह मृत्यु निवर्ततें॥

“मृत्यु (जीवन के) साथ ही चलती है। वह साथ ही बैठती है और सुदूरवर्ती पथ पर भी साथ-साथ जाकर ही लौट आती है।”

मृत्यु जीवन का इतना अनन्य आवश्यक अंग होते हुए भी हममें से अधिकाँश लोग उसे भुलाये रहते हैं और जीवन की एक स्वाभाविक घटना से, मृत्यु से हम भयभीत हो उठते हैं। उसकी कल्पना मात्र से हम सिहर उठते हैं। साक्षात मृत्यु आने पर तो रोने लगते हैं, छटपटाते हैं, भयातुर होकर हाथ पैर फेंकने लगते हैं। अधिकाँश लोगों की मृत्यु इसी तरह होती है। मौत को न चाहना, मृत्यु का भय, मृत्यु के अवसर पर कष्टानुभूति, अव्यवस्थिता ये सब हमारे अपने ही प्रयत्नों का फल है। वस्त्र उतारने में जैसे कठिनाई न होनी चाहिए उसी तरह शरीर के जर्जरित रुग्ण चोले को उतार फेंकने में भी कष्ट न होना चाहिए। लेकिन ऐसा क्यों नहीं होता है, इसका उत्तर देते हुए विदेशी विचारक मेरीबेल कहता है “ यह सब इस कारण है कि हमने इससे अपनी जान पहचान बढ़ाने का उद्योग नहीं किया।” मृत्यु को तो हम जीवन व्यापार में खोकर बिल्कुल ही भूल जाते हैं। हमारे मन में कभी मरने की कल्पना भी नहीं होती, जिसका एक न एक दिन हमें स्पर्श करना ही होता है।

सुकरात कहते थे “मृत्यु के बारे में हमेशा प्रसन्न रहो।” मृत्यु प्रसन्न होने आनन्द मनाने का अवसर है, लेकिन हम इसके बारे में कभी सोचते विचारते भी नहीं। अन्य बातों की तरह मौत से मिलने की तैयारी भी हम करें तो मिल्टन के शब्दों में “मृत्यु एक सोने की चाभी है जो अमरता के महल को खोल देती है” सत्य सिद्ध हो। सचमुच जो मरना जानते हैं उनके लिए मौत भयंकर नहीं होती।

वस्तुतः मृत्यु नये जन्म की तैयारी करने का अवसर है। जीवन मृत्यु की तैयारी करने का अवसर है तो हमारा समस्त जीवन क्या है? मृत्यु के पड़ाव तक पहुँचने का मार्ग। लेकिन हम यह भूल जाते हैं और जीवन व्यापार अपने संग्रह के लिए करने लगते हैं। हमारा प्रत्येक कार्य ऐसा होता है मानो हमें इसी धरती पर रहना है। मृत्यु की असली तैयारी बहुत ही कम लोग कर पाते हैं। लेकिन वे ही मौत को भगवान का निमंत्रण मानकर, आनन्द का मंगल का पर्व जानकर प्रसन्न होते हैं।

देशबन्धु दास ने मृत्यु के समय एक कविता लिखी थी जिसके भाव हैं “मेरे ज्ञानाभिमान की गठरी मेरे सिर से उतार ले। मेरी पुस्तकों की गठरी मेरे कन्धों से नीचे उतार ले। इस बोझ को उठाते उठाते मैं अब बहुत जीर्ण शीर्ण हो गया हूँ। मुझमें जान नहीं हैं। मैं बहुत थक चुका मेरे बोझों को उतार लें, प्रभो।”

“ अब वेद की आवश्यकता है न वेदान्त की। अब तो सब कुछ भूल जाने दो प्रभु। अब मुझे आपका वह राज्य दिखाई दे रहा है। प्रभो! मैं तुम्हारे कुँज के द्वार पर खड़ा हूँ। अपने निर्वाणोन्मुख दीपक को प्रज्ज्वलित करने के लिए तेरे द्वार पर आया हूँ, भगवान।”

जो मृत्यु का मर्म जानते हैं वे इसी तरह मृत्यु को देख कर कविता रचने लगते हैं जैसे बसन्त की बहार को, बरसात की रिमझिम को, पक्षियों के कलरव को देख सुनकर। प्रिय के धाम में प्रवेश पाने का अवसर है मृत्यु। पीहर में, माँ की ममतामयी अंक में मोद मनाने आह्लाद प्राप्त करने की मंगल बेला है- मृत्यु। इसीलिए तो सुकरात मरते समय अमृत तत्व का आस्वादन कर रहा था अपने शिष्यों को हँसी खुशी में मौत का अर्थ समझा रहा था। सन्त तुकाराम कीर्तन करते-करते मौत की गोदी में सो गये। गेटे “अधिक प्रकाश! अधिक प्रकाश!!” की चकाचौंध में ही लीन हो गये। लोकमान्य ने “यदा यदाहि धर्मस्य” वाला श्लोक बोलते- बोलते आंखें मूँद लीं। दयानन्द “प्रभु-इच्छा की पूर्ति” का स्मरण करते हुए अनन्त में विलीन हो गये। महात्मा बुद्ध “आत्मन्दीय का अर्थ” बताते हुए चल बसे। बापू “हे राम, हे राम” कर रहे थे। स्वतन्त्रता संग्राम के असंख्यों सेनानी ‘अहले वतन की याद में मस्ती भरे तराने गाते हुए मौत की गोद में कूद पड़े। हंसी खुशी के साथ मौत का आलिंगन करने वाले अमर लोगों की गाथाओं से इतिहास भरा पड़ा है।

मौत से डरने वाले ही जन्म मरण को बन्धन समझते हैं उससे पीछा छुड़ाने के लिए नाना प्रयत्न करते हैं लेकिन जो मृत्यु का रहस्य जानते हैं उनके लिए जीवन मरण एक खेल है। महात्मा बुद्ध ने कहा था “मुझे निर्वाण मोक्ष नहीं चाहिए। मैं तो बार-बार जन्म लेता रहूँ, दीन-दुखी लोगों की सेवा के लिए।” हमारे सन्त ऋषि -महर्षियों के लिए मृत्यु आनन्द का पर्व है। शांति के अपार सागर में छलाँग लगाने की शुभ वेला है। चैतन्य महाप्रभु आनन्द की मस्ती में मतवाले होकर सागर में कूद पड़े थे। स्वामी रामतीर्थ के लिए मृत्यु भागीरथी की धारा में अपनी गोद फैलाये बैठी थी। माँ की सुखकर गोद को देखते ही स्वामी जी मचल उठे और कूद पड़े। उनके लिए दीपावली का पर्व बनकर आयी थी मृत्यु।

मृत्यु के क्षण ही जीवन की परीक्षा का समय होता है। इसी समय पर मालूम पड़ता है कि व्यक्ति ने पिछला जीवन कैसा बिताया। जो मरते समय रोयेगा, हाथ पैर फेंकेगा, छटपटायेगा तो समझा जायगा कि इस मनुष्य ने सारा जीवन रोते कलपते, इधर-उधर मृग मरीचिका की तरह भाग-दौड़ करते बिताया है। जो मृत्यु के समय हंसेगा जिसके चेहरे पर शान्ति प्रसन्नता आनन्द की रेखायें फूट पड़ेंगी उसका जीवन सफल माना जायगा। महापुरुषों की मृत्यु भी अलौकिक होती है उन क्षणों में एक अपूर्व पर्व जैसा वातावरण बन जाता है। धरती पर दो आत्मीय व्यक्तियों के मिलने का अवसर कितना सुखद बन जाता है। लेकिन मृत्यु के अवसर पर तो आत्मा परमात्मा के दरवाजे पर पैर रखती है। प्रेमी अपने प्रियतम से मिलता है। भक्त अपने भगवान से। पुत्र अपनी माता से। इसलिए मृत्यु के समय भी आनन्द का, उल्लास का वातावरण होना ही चाहिए। मृत्यु एक पर्व है, जन्म जैसा ही।

मृत्यु के अवसर पर मनुष्य की स्मृति बहुत साफ हो जाती है। समय और पक्ष-विपक्ष की धूल हट जाती है। उस समय जीवन भर के कर्म-घटनायें, सिनेमा की दृश्यावली की तरह एक-एक करके स्मृति पटल पर आने लगती है। जिसने जीवन का सही -सही उपयोग किया होता है। जिन्होंने व्यर्थ ही अपने जीवन वन को लुटा दिया, दुरुपयोग किया उन्हें घोर पश्चाताप, असन्तोष की आग में जलना पड़ता है और देखा जाता है कि इस तरह के लोग मरते समय बड़ी मानसिक यन्त्रणा, कष्ट सा अनुभव करते हैं। मरने में बड़ा लम्बा समय लेते हैं। इसी तरह जो लोग पहले से ही अपने आपको मृत्यु के लिए तैयार न करके वस्तु पदार्थों के गोरखधन्धे, संग्रह आदि में ही लगे रहते हैं उन्हें अपना सब कुछ जुटाया हुआ सामान जब छोड़ना पड़ता है, खाली हाथ जाना पड़ता है तो बड़ा मानसिक कष्ट होने लगता है। संसार और यहाँ के वस्तु पदार्थों में उनकी आसक्ति उन्हें बड़ा कष्ट देती है।

जीवन एक कहानी है मृत्यु उसका परिणाम। जीवन एक प्रश्न है तो मृत्यु उसका उत्तर। जीवन एक यात्रा है तो मृत्यु साँझ। दोनों का अनन्य साथ है। लेकिन गौरवपूर्ण मृत्यु प्राप्त करना जीवन की सफलता का प्रमाण है और यह जीवन भर तैयारी करने पर ही निर्भर करती है। हमारा जीवन मृत्यु की तैयारी कर अवसर है। आवश्यकता इस बात की है कि मृत्यु को याद रखते हुए हम अपने कार्यक्रम निर्धारित करें। योजनायें बनायें। यह भी निर्विवाद सत्य है कि मृत्यु का गौरवपूर्ण सुखद शान्तिमय स्पर्श तभी प्राप्त होता है जब हम स्वः को भूलकर परमार्थ के लिए जीवन लगा देते हैं किसी महान सत्य की साधना में, जन सेवा में, परमार्थ में, जीवन लगा देने पर ही मौत के आनंददायी क्षण प्राप्त होते है मनुष्य को।


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