सन्मार्ग की ओर चलते हुये मनुष्य जिन दिव्य अनुभूतियों की कामना करता है उन तक पहुँचने में, पग-पग पर कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं। भौतिक या व्यावहारिक इच्छा जितनी बलवान नहीं होती जितनी मानसिक विभ्राँतियाँ परेशान करती हैं। आचार क्षेत्र की हरएक कठिनाई दूर हो सकती है, न भी हो तो उससे आध्यात्मिक जीवन के प्रति संशयात्मक स्थिति उत्पन्न नहीं होती, किंतु मनुष्य की चित्तवृत्तियों में वह शक्ति होती है जो उसे एक क्षण में श्रेय से हटाकर प्रेय की ओर धकेल देती है।
इसलिये श्रेयार्थी को अपने मस्तिष्क की प्रत्येक हलचल पर बड़ा ध्यान रखना पड़ता है। चित्तवृत्तियों पर नियंत्रण रखते हुये उन्हें हर क्षण सन्मार्ग की ओर लगाये रखने वाली शक्ति का ही नाम विवेक है। सत्य को प्राप्त करने और उसे जीवन में धारण करने के लिये आत्म-निरीक्षण, आत्म-शोधन और सत्य ग्रहण-इन तीनों क्रियाओं के सम्मिश्रण का ही नाम विवेक है। विवेक वह प्रकाश है जिसमें मनुष्य आध्यात्मिक दृष्टि से अपना सही रास्ता निर्धारित करता है और सही कदम उठाता है। विवेक के साधन का पालन, आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत में ही नहीं, अंत तक, जब तक मानव शरीर बना हुआ है अथवा साधनों का सिद्धि में विलय नहीं हो जाता, तब तक करना पड़ता है। विवेक ही मानव जीवन की सच्ची कसौटी, सच्ची सफलता है।
हमारी उन्नति का मूलाधार हमारा चित्त है। दुष्प्रवृत्तियों में घूमने वाली चित्त की दशा ही दुःख और दुर्गति का कारण होती है। किंतु जब चित्त की दशा विशुद्ध रूप से सत्य को ग्रहण करने में तत्पर बनी रहती है तो - पारमार्थिक बुद्धि का विकास होता है, मनुष्य निरन्तर अपने लक्ष्य की ओर गतिशील बना रहता है और अन्ततोगत्वा अपना जीवन लक्ष्य प्राप्त कर लेता है। इसलिये विवेक मनुष्य जीवन की प्रथम आवश्यकता है। इसी से जीवन दिशा का निर्माण होता है, शास्त्रकार का कथन है :-
प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत नरश्चरितमात्मनः।
किं नु में पशुभिस्तुल्यं किं नु सत्पुरुषैरिति॥
अर्थात् “मनुष्य को चाहिये कि वह सदैव अपने चरित्र का निरीक्षण करता रहे। यह ध्यान बनाये रखे कि वह जो विचार कार्य और व्यवहार कर रहा है वह मानवीय हैं- पशुओं जैसे नहीं।” जब तक इस प्रकार की चेतना मानव मन में जागृत रहती है तब तक उसके सभी क्रियाकलाप सत्य और यथार्थ मूलक बने रहे है।
आध्यात्मिक जीवन का समग्र रूप से विवेचन करने वाली बुद्धि ही विवेक है। अपने मन वाणी और शरीर के प्रत्येक व्यापार का प्रतिक्षण निरीक्षण करता हुआ विवेक करता रहे कि उसके द्वारा कौन से कर्म सच्चे और कौन से मिथ्या, आडम्बर या केवल अहंकार की पूर्ति के लिये होते है। यह मीमाँसा न्याय-पूर्ण हो तो ही यह आशा की जा सकती है कि मनुष्य विवेकशील बना रह सकता है।
विवेकयुक्त कर्म ही हमारी बौद्धिक और आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करते हैं। जो कर्म केवल परम्परागत अथवा अपने मानसिक संस्कारों के द्वारा चलते रहते हैं, उनसे मनुष्य की उन्नति होगी, इस में संदेह है। ऐसी अवस्था में तो कई बार व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से विनाश की परिस्थितियाँ उत्पन्न होती देखी गई हैं। सच्चा विकास चित्त को शुद्ध और बुद्धि को परिष्कृत करके आचरण करने से ही होता है। इसी का नाम सदाचार है। मानव धर्म भी इसे ही कहते हैं।
मनुष्य जो भी कुछ कर्म करता है वे पहले विचार रूप में मस्तिष्क में आते हैं। कार्य करने का साधन शरीर है। यदि यह कार्य विवेकयुक्त नहीं रहेंगे तो विचारों और आचरण में असंगति आ सकती है। इससे विभ्रम पैदा होता है और कार्य की सफलता में गतिरोध उत्पन्न होता है। विचार और आचरण में एक रूपता लाने का मुख्य कार्य विवेक द्वारा होता है। इसी से संयम, दृढ़ता, धर्मनिष्ठा और आत्म-विश्वास के शुभ गुणों का परिष्कार होता है। विकारों के साथ संघर्ष करके उन्हें नियंत्रण में रखकर या दबाकर ही धर्म साधनों में स्थिर रहा जा सकता है।
मनुष्य किसी भी स्थिति में क्यों न हो सत्य की खोज और प्राप्ति कर सकता है। रीति यह है कि वह अपनी वर्तमान परिस्थितियों का सदुपयोग बुद्धि और शक्ति प्राप्त करने में लगाए। अपने मस्तिष्क में पवित्र विचारों को निरन्तर स्थान देने से शुभ कर्मों में मन लगा रहता है और मनुष्य की बुद्धिमत्ता उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। क्रियाओं में सदाचार से शक्ति का विकास होता है और अपव्यय रुक जाने से शक्ति का ह्रास नहीं होता। स्थिर शक्ति और सात्विक बुद्धि के सम्मिश्रण से ही दिव्य जीवन की अनुभूति होती है। आध्यात्मिक जीवन का राजमार्ग भी यही है।
आदर्श और रुकावटों का प्रमुख केन्द्र मनुष्य का अन्तःकरण ही होता है, सद्प्रवृत्तियों के विकास से आदर्शों की रक्षा होती है और दुष्कर्मों के संयोग से ही असफलता, दीनता और हीनता के अमंगल परिणाम प्रस्तुत होते हैं। मनुष्य अपने आदर्शों की प्राप्ति कर ले, इसके लिये उसे अन्तःकरण की इस पवित्रता को बनाये रखना परमावश्यक है। जिनका आचरण इस प्रकार हो कि वे भूल सुधार की इच्छा रखते हों उनके सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि वे आगे चलकर सफलता प्राप्त कर लेंगे। थोड़े शब्दों में यह कह सकते हैं कि उसका व्यक्तित्व विवेकशील है। इन शब्दों से ही मनुष्य की प्रगति का सरलतापूर्वक अन्दाज लगाया जा सकता है।
श्रेयार्थी को पुराने अनिष्टकारी संस्कार नष्ट करके शिष्ट संस्कार ग्रहण करने चाहियें। यह प्रयत्न शुष्क व नीरस न हो। इसमें अरुचि का भाव न आये, इसके लिये धैर्य दृढ़ता और विकार के अंतर को समझना, साँसारिक कामनाओं और आत्मा की स्वाभाविक आकाँक्षा के बीच जो एक पर्दा पड़ा होता है उसे सदैव ध्यान में बनाये रखना चाहिये। क्रोध और तेजस्विता, दीनता और नम्रता, दुर्बलता और क्षमा, साहस और भीरुता, दम्भ और आत्मविश्वास के बीच जो अंतर है, उसे प्रत्येक क्षण विचारते रहने से ही सहज वृत्तियों की समुन्नति होती है। मानवीय विकास का क्रम यही है कि मनुष्य निरन्तर सत् और असत् के बीच मौलिक भेदभाव बनाये रहे।
भावनात्मक परिष्कार के लिये केवल अपने विचार-जगत में निरीक्षण की प्रवृत्ति रखना ही यथेष्ट नहीं है। अपने खान-पान, वस्त्र, आवास, पास-पड़ोस के जीवन पर भी गम्भीरतापूर्वक विचार करते रहना होगा। व्यक्ति की भलाई का क्षेत्र उसके मन, वाणी और शरीर तक ही सीमित नहीं है, उसका सामाजिक पहलू भी उतना ही महत्वपूर्ण है अतः इधर से भी पूर्ण विवेक का पालन करना पड़ेगा। आरोग्य, मितव्ययिता, निरासक्तता के साथ ही सामाजिक सम्बन्ध, विनयशीलता, भद्रता और सौमनस्यता भी अतीव आवश्यक हैं।
मानसिक, भावनात्मक तथा साँसारिक जीवन की न्यायपूर्ण समीक्षा ही विवेक की स्थिति है। यदि हम इस दिशा में निष्क्रिय, निश्चेष्ट और निष्प्राण बने रहें तो हमारे जीवन का परम लक्ष्य एक गोपनीय विषय ही बना रह जाएगा। लोग कभी साँसारिक कामनाओं से हटकर आध्यात्मिक जीवन की ओर झाँककर देखना भी न चाहेंगे। इसलिये अन्य भूमिकाओं के साथ विवेक की साधना भी सतत् चलती रहनी चाहिये ताकि हमारे जीवन का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण आध्यात्मिक पहलू आँखों से ओझल न होने पाये। एक भाग अप्रकाशित ही न बना रहे इसके लिये विवेक की अखण्ड-ज्योति प्रत्येक मनुष्य के जीवन में जगमगाती ही रहनी चाहिये। हमारा हृदय इतना शुद्ध और पवित्र होना चाहिये कि प्रत्येक भावना का सूक्ष्मतर प्रत्युत्तर वह दे सके।
मनुष्य जीवन के दो पहलू हैं। सत्-अर्थात् निर्माण का क्षेत्र, असत्-अर्थात् निषेधात्मक पहलू। किसी निश्चित पथ पर सरलतापूर्वक आगे बढ़ने का यही उपाय है कि अपने मार्ग की बाधाओं को दूर करते हुए आगे बढ़ें। आध्यात्मिक विकास के पथ पर भी ठीक ऐसी ही प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। अपने दोष दुर्गुणों को ढूंढ़ना, उनका निवारण करना। अपने जीवन में सत्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन एवं प्रश्रय देना। इसी का नाम विवेक है। जो इस स्थिति को पा लेते हैं उन्हीं का मानव जीवन सफल कहा जा सकता है। वही अंत में महानता की महान विभूति से गौरवान्वित होते और श्रेय का अनन्त सुख प्राप्त करते हैं।