आए ले हमारी प्रीति हम तैयार हैं।
मृत्यु की भी न जिसको भीति आए ले हमारी प्रीति हम तैयार हैं।
चाहता हूँ स्वर्ग से अमरत्व को लाऊँ धरा पर खींच।
चाहता हूँ विश्व की मरुभूमि को दूँ आँसुओं से सींच।
चाहता हूँ मैं बुझा दूँ यह विषमता की धधकती आग।
चाहता हूँ विश्व-पट से मैं मिटा दूँ रक्त के यह दाग।
यह मनुजता जो सतत देवत्व की पर्याय-
चाहता हूँ यह मनुष्य की अर्चना बन जाए।
आ न पाए फिर मरण त्यौहार जीवन-पर्व के उपरान्त।
चाहता हूँ हो न मानव मृत्यु से पंचत्व से भी क्लाँत।
सृष्टि में जो कुछ अशिव का तत्व है परिव्याप्त।
वेदना-वैषम्य का, नैराश्य का उत्पात।
चाहता हूँ मैं इसे शिव-सप्त में अनुरक्त में दूँ ढाल,
हो न मानव-चेतना पशु-वृत्ति से पामाल।
पाषाण की पूजा बहुत कुछ की उपेक्षित हो रहा इन्सान।
राष्ट्र की बगिया इसी से आज तक वीरान-
हो नया निर्माण मानव का, नए युग का नया इतिहास।
चाहता हूँ प्राण-पण से मैं नई धरती, नया आकाश।
मुक्त गाए गए मनुज जो मुक्ति के पदगीत, आए ले हमारी प्रीति हम तैयार हैं।
मृत्यू की भी हो न जिसको भीति आए ले हमारी प्रीति हम तैयार है।
-डॉ राजकुमार पाण्डेय ‘कुमार’
*समाप्त*