केश, वस्त्र और वेष सभ्यों जैसे रखिए

November 1964

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बाल-बुद्धि के लोग शारीरिक सौंदर्य और रूप का आकर्षण बढ़ाने के लिए तरह-तरह से वेष-विन्यास और साज-सज्जा किया करते हैं। सम्भव है इससे उन्हें कुछ अधिक सफलता मिलती हो किन्तु इस प्रकार का भड़कीला वेष-विन्यास और बाहरी रूप बढ़ाने से मनुष्य के चरित्र का पतन ही हुआ है। विचित्र प्रकार की वेष-भूषा, विदेशियों की नकल अच्छे व्यक्तित्व की प्रतीक नहीं हो सकती। प्रत्येक देश काल और परिस्थिति के अनुसार जहाँ संस्कृति रीति-रिवाज और सामाजिक आचार-संहिता में एकता नहीं होती वैसे ही अपने धर्म, अपनी संस्कृति के अनुरूप केश, वस्त्र और वेष-भूषा से मनुष्य के चरित्र और आत्मिक बल का अनुमान किया जाता है। इस दृष्टि से अपनी भी एक प्रणाली है, उसी में सीमित रहने में हमारा बड़प्पन, सादगी, शालीनता तथा साँस्कृतिक गौरव माना जा सकता है।

बालों से मनुष्य का व्यक्तित्व समझ में आता है। मनुष्य की उजड्डता, ओछापन और चारित्रिक हीनता की झलक भी बालों से मिलती है। छोटे-छोटे कटाये हुए बाल मनुष्य की योग्यता प्रकट करते हैं। सुव्यवस्थित ढंग से रखाये गये बाल यह व्यक्त करते है कि व्यक्ति का स्वभाव, आचरण सामान्य व्यक्तियों की अपेक्षा कुछ अधिक सुन्दर होना चाहिए किन्तु बड़े-बड़े बाल, अस्त−व्यस्त और बिखरे हुए बालों से मनुष्य का ओछापन जाहिर होता है। इससे मस्तिष्क के ज्ञान तन्तु दुर्बल पड़ जाते हैं। लम्बे बाल यदि ठीक प्रकार तेल डाल कर और सँवार कर न रखे जाएं तो सिर में मैल जम जाता है और फोड़े फुन्सियाँ तथा गंजापन का रोग उत्पन्न हो सकता है। इस तरह केश केवल व्यक्तित्व की दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं हैं बल्कि उनका स्वास्थ्य के साथ भी अटूट सम्बन्ध है।

कुछ लोगों को यह भ्रम होता है कि धार्मिक दृष्टि से लम्बी जटायें रखना बड़प्पन का चिन्ह है। यह आदर्श वे साधु-सन्तों और साधकों से अनुकरण करते हैं। सम्भव है जब केशकर्तन प्रारम्भ न हुआ तो लोग ऐसा करते हों, या साधनाओं की शोध में इन छोटी-छोटी बातों से समय बचा कर अधिक समय आध्यात्मिक शोधों में लगाने की आवश्यकता रही हो-तब लम्बी जटाओं को कुछ महत्व दिया जाता रहा हो। पर अब जब न तो ऐसे साधु संत और महात्मा रहे और न ही उनके काटने में किसी परेशानी का सामना करना पड़ता हो तो लम्बे बाल रखने की कोई उपयोगिता समझ में नहीं आती। सिर में व्यर्थ का बोझ बनाये रखना बुद्धिमानी की बात नहीं हो सकती। हलके छोटे बालों से सिर साफ और ज्ञान तन्तु ताजे बने रहते हैं। इससे सात्विकता बनी रहती है। बड़े बाल तमोगुण का प्रतीक होते हैं। इसी प्रकार बालों को तरह-तरह से स्त्रियों के समान काढ़ना और विचित्र तरह की आकृति बनाना भी बुरा है।

वस्त्रों के बारे में भी ठीक ऐसी ही बात है। भारतीय संस्कृति की सर्वोपरि विशेषता यही रही है कि यहाँ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सादगी को ही अधिक महत्व दिया गया है। यह विशेषता वस्त्राभूषण के साथ भी जुड़ी हुई है। पिछले दिनों हमें जो यवनों और अंग्रेजों की दासता भुगतनी पड़ी उससे हमारे सम्पूर्ण आचार-विचार ही परिवर्तित हो गए हैं। यह परिवर्तन खान-पान, रहन-सहन, बोल-चाल आदि सभी में समा गया है। वस्त्र भी आज हमारी साँस्कृतिक विशेषता, गौरव, जलवायु आदि के अनुरूप नहीं हैं।

भारत उष्ण प्रकृति का देश है अतएव वस्त्रों की अधिकता की यहाँ कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। पूर्व पुरुषों के चित्रों से यह विदित होता है कि ऋषि-मुनि, सन्त, गृहत्यागी, गृहस्थ व राजा लोग भी प्रायः उतने वस्त्र धारण करते थे जो सदाचार और शील संरक्षण के लिए आवश्यक होते थे। विशेष अवसरों पर विशेष प्रकार के वस्त्र पहनने की परम्परा थी। अधिकाँश लोग अपने शरीर का अधिक से अधिक हिस्सा खुला रखते थे ताकि वे ऋतुओं के प्रभाव को आसानी से बर्दाश्त कर लें।

वस्त्र पहनने की जो परम्परा पूर्व पुरुषों की थी वह बड़ी सरल और उपयोगी रही है। धोती, कुर्ता, आदि का चयन सादगी और सरलता की दृष्टि से भी श्रेष्ठ रहा है और इसका सम्बन्ध स्वास्थ्य की स्थिरता से भी रहा है। किन्तु खेद की बात है कि अब वस्त्रों की दृष्टि से हमारी साँस्कृतिक-श्रेष्ठता लुप्त प्रायः हो चुकी है। पूर्णतया विदेशियों का अनुकरण हो रहा है।

पैन्ट और चूड़ीदार पायजामा, टोप आदि टाई आदि का प्रचलन सर्वथा अभारतीय है। ये यहाँ की जलवायु के अनुरूप भी नहीं हैं और इससे भद्रता भी प्रकट नहीं होती है। अब लोग समझने लगे हैं कि पैण्ट के साथ वे हर घड़ी कितनी गन्दगी साथ लिए घूमते हैं? इसका स्वास्थ्य पर कितना बुरा असर पड़ता है? दूसरे जो वस्त्र चुस्त होते हैं और जिनसे शरीर का उभार ज्यों का त्यों दिखाई देता है वे अधिकाँश वासना और कामुकता भड़काने वाले होते हैं। बनियान, कमीज, सूटर और कोट-एक के ऊपर एक- अनेक कपड़े पहन लेने से बेचारे शरीर की दुर्दशा होती है। चुस्त कपड़े स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छे नहीं माने जाते। नैसर्गिक रूप से शरीर को हर क्षण शुद्ध हवा मिलती रहनी चाहिए। यदि ऐसा न हुआ तो रोम-कूप गन्दगी से भर जाते हैं और कोमल स्थानों में हर घड़ी सीलन बनी रहने के कारण दाद, खाज, अकौता, फोड़ा और फुन्सियाँ बनी रहती हैं। किसी भी अवस्था में देश काल की परिस्थितियों के प्रतिकूल वस्त्र नुकसानदेह ही हो सकते हैं।

अब यह बुराई स्त्रियों के जीवन में प्रवेश करती जा रही है, यह एक-चिन्तनीय विषय है। स्त्रियों का आधुनिक पहनावा इतना फूहड़ और भड़कीला हो रहा है कि हर शर्मदार की आँखें नीची हो जाती हैं। दुराचार को प्रोत्साहन देने में सिनेमा, नाच, अश्लील गाने जितने आवश्यक हो रहे हैं- वस्त्र-सज्जा, उससे कहीं अधिक ही है। हमारी बच्चियाँ अब उन वस्त्रों की ओर अधिक आकर्षित होती हैं जो विचित्र प्रकार के रंग रंगीले तथा आधे- छोटे होते हैं। स्त्रियों के वस्त्र ऐसे होने चाहिएं जिनसे उनका अधिकाँश शरीर ढका रहे किन्तु वस्तु स्थिति इससे सर्वथा विपरीत है। यह बड़ी चिन्ता की बात है। अब इसमें तीव्रता से परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव की जा रही है।

स्त्रियों की भारतीय वेषभूषा को अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त है। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी पोशाक किसी भी देश की महिलाओं से निकृष्ट है। आज जहाँ साड़ी और पूरी बाँह के सलूके का प्रचलन दूसरे देशों में बढ़ रहा है, वहाँ यह सबसे अधिक आवश्यक है कि अपनी परम्पराओं का अनुशीलन पहले अपने घर में ही हो। हमारी बहिनों और बेटियों को इस बात पर अधिक ध्यान देना चाहिए और वस्त्रों की सादगी अपनाने का प्रयत्न करना चाहिए। यह संयम उन बालिकाओं को अधिक सिखाने की आवश्यकता है जो इस समय शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ रही हैं क्योंकि महिलाओं के निर्माण की भावी बागडोर उन्हीं के हाथों आने वाली है।

स्नो आदि के उत्पादन में तेजी से जो वृद्धि हो रही है उससे और भी चिन्ता हो रही है स्नो का 1956 में 914450 पौण्ड उत्पादन हुआ जो दूसरे वर्ष 1081889 पौण्ड हो गया। इससे यह पता चलता है कि मनुष्य अपने वेष विन्यास में किस तेजी के साथ अप्राकृतिक साधनों को बढ़ा रहा है। नैतिक दृष्टि से यह सचमुच चिन्ता की बात है कि मनुष्य की आदतों में छिछोरेपन की बढ़ोत्तरी अधिक हो रही है। एड़ी से लेकर चोटी तक जिस प्रकार से आज लोग शरीर को अप्राकृतिक ढंग से सजाते हैं उससे समाज का नैतिक पतन ही हुआ है।

मानवीय स्वभाव की यह छोटी-छोटी बातें भी सामूहिक तौर पर बड़ी प्रभावशील होती हैं इसलिए यह आवश्यकता अब प्रत्येक विचारवान के समक्ष समस्या बन कर खड़ी है। इसमें परिवर्तन किए बिना हमारे जातीय-जीवन संस्कृति का विकास होना-सम्भव नहीं है। राष्ट्र का नैतिक बल जागृत करने के लिए भी केश, वस्त्र और वेष विन्यास आदि में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने पड़ेंगे। आत्म-गौरव भी इसी में है कि अपनी साँस्कृतिक चेतना को समझें और उसे अपने जीवन में धारण करें।


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