दिव्य विचारों से उत्कृष्ट जीवन

November 1964

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संसार में अधिकाँश व्यक्ति बिना किसी उद्देश्य का अविचारपूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं किन्तु जो अपने जीवन को उत्तम विचारों के अनुरूप ढालते हैं उन्हें जीवन-ध्येय की सिद्धि होती है। मनुष्य का जीवन उसके भले-बुरे विचारों के अनुरूप बनता है। कर्म का प्रारम्भिक स्वरूप विचार है अतएव चरित्र और आचरण का निर्माण विचार ही करते हैं, यही मानना पड़ता है। जिसके विचार श्रेष्ठ होंगे उसके आचरण भी पवित्र होंगे। जीवन की यह पवित्रता ही मनुष्य को श्रेष्ठ बनाती है, ऊँचा उठाती है। अविवेक पूर्ण जीवन जीने में कोई विशेषता नहीं होती। सामान्य स्तर का जीवन तो पशु भी जी लेते हैं किंतु उस जीवन का महत्व ही क्या जो अपना लक्ष्य न प्राप्त कर सके।

उत्कृष्ट जीवन जीने की जिनकी चाह होती है, जो अंतःकरण से यह अभिलाषा करते हैं कि उनका व्यक्तित्व सामान्य व्यक्तियों की अपेक्षा कुछ ऊँचा, शानदार तथा प्रतिभा-युक्त हो, उन्हें इसके लिए आवश्यक प्रयास भी जुटाने पड़ते हैं। संसार के दूसरे प्राणी तो प्राकृतिक-प्रेरणा से प्रतिबन्धित जीवनयापन करते हैं किंतु मनुष्य की यह विशेषता है कि वह किसी भी समय स्वेच्छा से अपने जीवन मान में परिवर्तन कर सकता है। मनुष्य गीली मिट्टी है, विचार उसका साँचा। जैसे विचार होंगे वैसा ही मनुष्य का व्यक्तित्व होगा। इसलिए जब भी कभी ऐसी आकाँक्षा उठे तब अपने विचारों को गम्भीरतापूर्वक देखें- बुरे विचारों को दूर करें और दिव्य-विचारों को धारण करना प्रारम्भ कर दें, तब निश्चय ही अपना जीवन उत्कृष्ट बनने लगेगा।

प्रत्येक मनुष्य में प्रगति की ओर बढ़ सकने की बड़ी ही विलक्षण शक्ति परमात्मा ने दी है किंतु यह तब तक अविकसित ही बनी रहती है जब तक श्रेष्ठ आदर्श सम्मुख रखकर वैसा ही उद्दात्त बनने की चेष्टा नहीं की जाती। मनुष्य को यह भाव अपने मस्तिष्क से निकाल देना चाहिए कि उसके पास पर्याप्त बौद्धिक क्षमता या शैक्षणिक योग्यता नहीं। कई बार भाग्य और परिस्थितियों को भी बाधक मानते हैं किन्तु यह मान्यताएं प्रायः अस्तित्व-विहीन ही होती हैं। निर्बलता, न्यूनता और अनुत्साह की दुर्बल मान्यताओं से अभिप्रेत मनुष्य जीवन में कोई महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त नहीं कर पाते। अनुभव किया कीजिये कि आप में विश्वास और मनोरथ-सिद्धि की बड़ी विलक्षण-शक्ति भरी पड़ी है। आपको केवल उस शक्ति को प्रयोग में लाना है- आप देखेंगे कि आपके स्वप्न अवश्य साकार होते हैं। जो विचार आप को तुच्छ और विनाशपूर्ण दिखाई दें, उन्हें एक क्षण के लिए भी मस्तिष्क में टिकने न दें, उन योजनाओं के विचार-विमर्श में ही लगे रहें जिनसे आपको लक्ष्य-प्राप्ति में मदद मिलती है।

सफलता मनुष्य को तभी मिलती है जब मनुष्य अपने विचारों को साहसपूर्वक कर्म में बदल देता है। आप विद्याध्ययन करना चाहते हैं, स्वस्थ बनना चाहते, तेजस्वी, बलवान और महापुरुष बनना चाहते हैं- किसी भी स्थिति में आपके विचारों को दृढ़तापूर्वक मूर्तरूप देना ही पड़ेगा।

निराशाजनक और अन्धकारमय विचारों को एक प्रकार से मानसिक रोग कहा जा सकता है। निराश व्यक्ति अपने भाग्य का विनाश स्वयं ही करते हैं। प्रत्येक कार्य में उन्हें शंका ही बनी रहती है। अधूरे मन से सन्दिग्ध अवस्था में किये गए कार्य कभी सफल नहीं होते। यह एक प्रकार के कुविचार हैं जो हमारी अवनति के मुख्य कारण होते हैं। आशावान् व्यक्ति अल्प-शक्ति और विपरीत परिस्थिति में भी अपना मार्ग बना लेते हैं। श्रेष्ठता, उत्कृष्टता और पवित्रता के विचारों से ही आत्मविश्वास जागृत किया जा सकता है। इसी से वह शक्ति प्राप्त होती है जो मनुष्य को बहुत ऊँचे उठा सकती है।

भले और बुरे-दोनों प्रकार के विचार मनुष्य के अंतःकरण में भरे होते हैं। अपनी इच्छा और रुचि के अनुसार वह जिन्हें चाहता है उन्हें जगा लेता है। जिनसे किसी प्रकार का सरोकार नहीं होता व सुप्तावस्था में पड़े रहते हैं। जब मनुष्य कुविचारों का आश्रय लेता है तो उसका कलुषित अन्तःकरण विकसित होता है और दीनता,निष्कृष्टता, आधि व्याधि, दरिद्रता, दैन्यता के अज्ञानमूलक परिणाम सिनेमा के पर्दे की भाँति सामने नाचने लगते हैं। पर जब वह शुभ्र विचारों में रमण करता है तो दिव्य-जीवन और श्रेष्ठता का अवतरण होने लगता है, सुख, समृद्धि और सफलता के मंगलमय परिणाम उपस्थित होने लगते हैं। मनुष्य का जीवन और कुछ नहीं विचारों का प्रतिबिम्ब मात्र है।

आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश पाने के लिए विचार-शोधन अत्यावश्यक है। श्रद्धा-भक्ति आत्म-विश्वास और गहन निष्ठा आदि मनोवृत्तियों के पीछे एक सत्य क्रिया-शील रहता है। इस सत्य में ही वह क्षमता और उत्पादक शक्ति होती है जो हमारी प्राकृत अभिलाषाओं को सुख और सफलता का रूप प्रदान करती है। अतः यह मानना पड़ता है कि दिव्य विचार उन्हें ही कह सकते हैं जो सत्य से ओत-प्रोत हों। सत्य कसौटी है जिसमें विचारों की सार्थकता निरर्थकता का अनुपात व्यक्त होता है। सार्थक विचारों से ही मनुष्य का जीवन भी सार्थक होता है। निरर्थक विचारों को तो दुःखरूप ही मान सकते हैं।

हमारी अभिलाषायें जब अंतर्बल को जगा नहीं पातीं और विजय कामना मन्द पड़ जाती है तो यह देखना चाहिए कि सही विचार की प्रक्रिया में क्या कोई विरोधी भाव कार्य कर रहा है इनमें से? पलायनवाद प्रमुख है। पलायनवाद का सीधा सा अर्थ है अपनी शक्तियों की तुलना में अपने काम को बड़ा या कष्ट साध्य मानना। जब हम कठिनाइयों से संघर्ष करने का विचार त्याग देते हैं तो वहीं सारी उत्पादक मशीनरी ठप्प पड़ जाती है, सरलता की ओर भागने का प्रयत्न करने लगते हैं। पर इससे कुछ बनता नहीं। चित्तवृत्तियां अस्त−व्यस्त हो जाती हैं और महानता प्राप्ति की कामना धूलि-धूसरित होकर रह जाती है।

भाग्यवाद भी ऐसा ही विरोधी भाव है। सच कहें तो भाग्यवाद मनुष्य की सबसे संकीर्ण मनोवृत्ति है। काम, क्रोध,भय, बैर आदि दुष्प्रवृत्तियों का जन्मदाता हम भाग्यवाद को ही मानते हैं। पुरुषार्थ के सहारे मनुष्य ने बड़ी-बड़ी सफलताएं पाई हैं, बड़ी -बड़ी कठिनाइयों और मुसीबतों को झेलकर आगे बढ़ा है- निश्चयात्मक बुद्धि से पुरुषार्थ का उदय होता है और भाग्यवाद का अर्थ है मनुष्य की संशयात्मक स्थिति। सन्देह की स्थिति में कभी किसी का काम सफल नहीं होगा क्योंकि इससे विचार शक्ति निश्चेष्ट और निष्प्राण बनी रहती है। “मैं इस कार्य को अवश्य पूरा करूंगा।” इस प्रकार के संशय रहित संकल्प में ही वह शक्ति होती है जो सफलता, सुख और श्रेय प्रदान करती है।

भावुकता, अतिशयता तथा संकीर्णता आदि और भी अनेकों छोटी-छोटी शिकायतें मनुष्य के मस्तिष्क में भरी होती हैं। यह दुर्बलताएं मनुष्य की उच्च विचारधारा को रोकती हैं। निम्नकोटि के विचारों से मनुष्य का जीवन स्तर भी दीन-हीन और पतित ही बना रहता है, अतः उत्कृष्टता प्राप्ति की जिन्हें कामना हो, उन्हें अपने मस्तिष्क में उन्हीं विचारों को स्थान देना चाहिए जिससे उसकी सम्पादन शक्ति बलवान बनी रहे।

आप उन वस्तुओं की कल्पना किया कीजिए जो दिव्य हों, जिनसे आप का जीवन प्रकाशवान् बनता हो। आपका आत्म-विश्वास इतना प्रदीप्त रहे कि अपने प्रयत्न और उत्साह में किसी तरह की शिथिलता न आने पावे। आत्म-सत्ता की महत्ता पर प्रत्येक क्षण विचार करते रहा करें, इससे मानव-जीवन अवश्य सार्थक होगा। इस मार्ग पर चलते हुए आज नहीं तो कल आप निश्चय ही उच्च स्थिति प्राप्त कर लेंगे।


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