सेवा मानव-जीवन को उत्कृष्ट और पूर्ण बनाने की एक महत्वपूर्ण साधना है। जो फल अनेक तरह की तपश्चर्याओं, साधनाओं, कर्मकाण्ड, उपासनाओं से प्राप्त होता है वह मनुष्य को सेवा के द्वारा सहज ही मिल जाता है। स्व. वल्लभ भाई पटेल ने कहा है “गरीबों की सेवा ही ईश्वर की सेवा है।” गौतम बुद्ध ने यही कहा है- “जिसे मेरी सेवा करनी है वह पीड़ितों की सेवा करे।” सेवा के महान् व्रती बापू ने कहा था “लाखों गूँगों के हृदय में ईश्वर विराजमान हैं, मैं इन लाखों की सेवा के द्वारा ही ईश्वर की पूजा करता हूँ।” सेवा से मनुष्य का तन, मन, धन सब कुछ पवित्र बन जाता है। सेवा से ज्ञान प्राप्त होता है, विश्वात्मा का सान्निध्य प्राप्त होता है सेवा से। सेवा ही मनुष्य का सर्वोपरि धर्म है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि जीवन का यथार्थ लक्ष्य सेवा ही है। आध्यात्मिक, धार्मिक जीवन बिताने पर भी अन्ततः मनुष्य को सेवा की ही प्रेरणा मिलती है। जो जितना विकसित होगा उसमें सेवा की भावना उतनी ही प्रबल होगी। यही मनुष्य के आत्म विकास की सच्ची निशानी है। बसे संसार को छोड़ने वाले, कठोर तपश्चर्या करने वाले बुद्ध को अंत में पीड़ितों की सेवा करने वाली प्रेरणा वापिस संसार में घसीट लाई। सुकरात, ईसा, मुहम्मद, राम, कृष्ण, गाँधी, दयानंद एवं पूर्वकालीन ऋषि महर्षियों का जीवन मंत्र सेवा ही तो था। जीवन लक्ष्य की मंजिल का मार्ग सेवा की सीढ़ियों पर होकर ही जाता है। सचमुच सेवा का मार्ग ज्ञान, मति तप योग आदि के मार्ग से भी ऊँचा है। क्या सेवा भावी मनुष्य को ब्रह्म सायुज्य का लाभ जीते जी नहीं मिल जाता जब उसकी चेतना असीम विश्वात्मा की अर्चना में लगती है जन-जन की सेवा में लीन होती है ?
धन सम्पत्ति रूप यौवन प्रभुता सब मनुष्य को संतुष्ट करने में अपूर्व ही सिद्ध होते हैं, किंतु एक सेवा ही है जो उसे शाँति संतोष प्रदान करती है। हमारे यहाँ संन्यास को जीवन का सर्वोत्कृष्ट स्वरूप माना है लेकिन सेवा संन्यास से भी बड़ी है। संन्यास तो अपनी मुक्ति का आधार बन कर रहा जाता है किंतु सेवा परमार्थ की बलि वेदी पर स्वयं को होम देना है। सेवा जीवन यज्ञ है। इस में मनुष्य संसार रूपी कुण्ड में जनता जनार्दन के मुँह में सेवा की आहुतियाँ देता है।
हमें सेवा को जीवन के एक आवश्यक व्रत के रूप में ग्रहण करना चाहिए। सेवा की साधना कोई भी किसी भी परिस्थिति में कर सकता है। सेवा के लिए पैसे की आवश्यकता नहीं है। उत्कृष्ट भावना, अपनी संकुचितता छोड़ कर जन जीवन के साथ एक रूप होना ही सेवा के लिए पर्याप्त है।
जो लोग यह सोचते हैं क्या करें हमारे पास धन नहीं हम में कोई योग्यता नहीं कैसे सेवा करें? ऐसे लोग समझने में भूल करते हैं। पैसे से किसी की सेवा नहीं होती वह तो साधन है जो सेवा वृत्ति के विकास के साथ स्वयमेव ही चला आता है। बहुत से लोगों की शिकायत होती है, क्या करें अपने काम से ही फुर्सत नहीं मिलती। काम की चक्की में दिन रात इतने उलझे रहते हैं कि अवकाश ही नहीं मिलता। किंतु सेवा व्रत लेने वाले कभी किसी सत्पुरुष ने अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारियों तथा उत्तरदायित्व को नहीं छोड़ा। यदि हम में सेवा की इच्छा हो तो अत्यन्त व्यस्त जीवन में से भी समय निकाल सकते है। अस्तु सेवा के सम्बन्ध में आवश्यकता इस बात की है कि हम में इसके लिए उत्कृष्ट अभिलाषा हो, प्रयत्न, भावना हो। सेवा को जीवन साधना का अंग मान कर हम आँशिक रूप में ही चालू कर सकते हैं। अधिक नहीं प्रति दिन एक दो घण्टे ही निकाल लें तो बहुत है। और यह किसी के लिए कठिन नहीं है। जब लोग खेल-कूद मनोरंजन सैर-सपाटों के लिए समय निकाल लेते हैं तो कोई कारण नहीं कि वे प्रति दिन कुछ भी समय सेवा के लिए न निकाल सकें ।
अब बहुत से लोग यह भी कह सकते हैं कि क्या सेवा करें ? सेवा के लिए सारा धरातल पड़ा है। पद पद पर दूसरे लोगों को हमारी सेवा की आवश्यकता पड़ती है। सेवा किसकी की जाय? इसका उत्तर देते हुए बापू ने कहा कि “सेवा उनकी करो जिनको सेवा की जरूरत है।” अंधों की, गरीबों की, असहाय दीन दुःखियों की सेवा करिए। जिनका कोई नहीं है उन्हें सहारा दीजिए, जो गिर पड़े हैं उन्हें उठाइये। समाज में उनकी संख्या अधिक है।
प्रति दिन हमारे दैनिक जीवन में ऐसा अवसर आते हैं जब दूसरों को हमारी सेवा की आवश्यकता होती है। किसी अशिक्षित का पत्र लिखना। कोई कहीं का पता पूछे उसे सही ठिकाने पहुँचा देना। बोझ उठाने में किसी की मदद कर देना, दुर्घटनाग्रस्त हो जाने पर किसी को अस्पताल पहुँचा देना, कहीं झगड़ा हो रहा हो तो उसे सुलझा देना, कोई सार्वजनिक स्थान गंदा पड़ा हो तो उसकी सफाई कर देना-ऐसे सैंकड़ों ही अवसर सेवा के लिए हमारे समक्ष रहते हैं। हम इन अवसरों पर दूसरों की सहायता कर सकते हैं, उन्हें सहयोग दे सकते हैं।
बहुत से लोग सेवा के लिए बड़ी बड़ी आकाँक्षायें रखते हैं, महापुरुषों की नकल करना चाहते हैं। सेवा कार्य यदि महत रूप से नहीं बनता तो वे कुछ भी नहीं करते। बड़े अवसरों की प्रतीक्षा में बैठे रहने के बजाय छोटे-छोटे अवसर जो नित्य ही हमारे जीवन में आते हैं उनका पूरा-पूरा ध्यान रख कर सेवा व्रत निभाना लोक सेवा का प्रारम्भिक पाठ है। बड़े-बड़े अवसर तो फिर स्वतः ही आने लगते हैं जहाँ उनकी सेवाओं की माँग पर माँग होने लगती है। “पहाड़ फिर; पत्थर ही उठायें” की कहावत के अनुसार सेवा की साधना हमें नीचे से, छोटी-छोटी बातों में दूसरों की सहायता करके शुरू करनी चाहिए।
सेवा साधना में मनुष्य को अपने बड़प्पन, पद प्रतिष्ठा की भावना का त्याग करना आवश्यक है। स्मरण रहे सेवक का पद संसार में सबसे नीचा होता है। उसका स्थान जनता जनार्दन के पैरों के नीचे होता है तभी तो वह विराट मानव की सेवा कर सकता है। जनसेवी को पद, प्रतिष्ठा, बड़प्पन के सभी अलंकारों का त्याग करना आवश्यक है। महात्मा गाँधी के पास एक संन्यासी आये। बापू ने पूछा “आप किस लिए आये हैं ? “जनता की सेवा करने के लिए”। बापू ने कहा कि सेवा करनी है तो गेरुए वस्त्रों को उतारो क्योंकि महात्मा समझ कर लोग उल्टी आप की सेवा करने लगेंगे।” सेवा के समय हमें अपनी वैयक्तिक विशेषताओं, अलंकारों का त्याग करना आवश्यक है। अन्यथा सेवा एक तरह का प्रदर्शन, रस्म बन जाती है। जैसे कि आज के लोग या अफसर श्रमदान करते हुए फोटो खिंचाते और छपाते हैं।
लोक सेवक का हृदय जितना संवेदनशील होगा उतना ही वह दूसरे की सेवा के अवसर प्राप्त कर सकेगा। सम्वेदना, परदुःखकातरता ही दूसरों की पीड़ा को समझने की सामर्थ्य प्रदान करती है। पत्थर दिल क्या जानेगा किसी के दुःख दर्द को। हमें हृदय की सहज कोमलता का भी विकास करना चाहिए। दूसरों के दुःख को अपना दुःख समझना, दूसरों की पीड़ा अपनी पीड़ा समझने पर ही उन की सेवा सहायता की प्रेरणा पैदा होती है।
आत्म विकास के लिए, सामाजिक उत्तरदायित्व, मानवीय कर्तव्य के नाते हमें जन सेवा को जीवन का महत्वपूर्ण नियम बना लेना चाहिए। नित्य किसी न किसी रूप में कम से कम एक व्यक्ति की सेवा का व्रत तो हम अत्यन्त व्यस्त हो कर भी निभा ही सकते हैं।