Quotation

April 1964

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सत्योदका शीलतटा दयोर्मिः।

तत्रामिषेकं कुरु पाँडपुस

न वारिका शुध्यति चान्तरात्मा॥

महाभारत

हे पाँडुपुत्र। आत्मा ही नदी है। संयम का ही दूसरा नाम तीर्थ हैं। सत्य पानी है, शील तट है और दयापूर्ण व्यवहार लहरे हैं। ऐसी आत्म नदी में स्नान करके पुण्यभागवन। केवल तीर्थयात्रा से क्या लाभ। अंतरात्मा पानी से शुद्ध नहीं होती।

जगद्गुरो! हमारे जीवन में सदैव पग-पग पर विपत्तियाँ आती रहें क्योंकि विपत्तियों में ही निश्चित रूप से आप के दर्शन हुआ करते हैं और आपके दर्शन हो जाने पर फिर जन्म मृत्यु के चक्कर में नहीं आना पड़ता।” अपने अन्तःकरण की कुन्ती भी यदि ऐसी ही कामना करने लगे तो लक्ष्य प्राप्ति की आधी सफलता आप पा गये समझिये। पूर्णता की प्राप्ति कराने में कठिनाइयाँ आपकी बाधक नहीं सहायक ही होती हैं। उनके होने से ही तो संघर्ष करने का पौरुष प्रकट होता है और सुविकसित व्यक्तित्व के द्वारा किया हुआ प्रबल पुरुषार्थ कभी निरर्थक नहीं जाता। उससे लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में निरन्तर प्रगति ही होती जाती।

दान की सार्थकता

कोई किसान बीज बोने से पहले यह देख लेता है कि जिस जमीन में वह अपना अन्न बिखेरेगा वह उपजाऊ है या नहीं? यदि उसे विश्वास होता है कि यह जमीन इस लायक है कि बोया हुआ अन्न ठीक तरह उगेगा और एक दाने के हजार दाने पैदा होने में कोई अड़चन न आवेगी तो ही वह बोने का कार्य आरम्भ करता है। यदि उसे यह सन्देह है कि जमीन खराब है और बोया हुआ बीज निरर्थक चला जाएगा तो कोई किसान ऐसी गलती न करेगा कि अपना अन्न और श्रम नष्ट करे। बुवाई का कार्य चतुर किसान तभी आरम्भ करते हैं जब वे जमीन के उपजाऊ होने का पूरा भरोसा कर लेते हैं।

दान देना भी बिलकुल बीज बोने की तरह है। धर्म का पोषण करने के लिए ही हम दान देते हैं। धर्म से पुण्य और पुण्य से सुख मिलता है, इस मान्यता के आधार पर ही हम दान धर्म की प्रक्रिया अपनाते हैं। अन्यथा कोई व्यक्ति अपनी गाढ़ी कमाई का पैसा ऐसे कार्यों में क्यों खर्च करेगा जिसके बदले में उसे कोई लाभ नहीं होता। धर्म के लिए दान का महत्व है। इसलिए जिस कार्य के लिए भी दान किया जाय पहले उसे भली भाँति परख लिया जाय और यह अच्छी तरह जान लिया जाय कि इसके फल-स्वरूप पुण्य की उत्पत्ति होगी या नहीं?

उपजाऊ जमीन में ही बीज बोना बुद्धिमानी है। इसी प्रकार केवल उन्हीं कार्यों के लिए दान दिया जाना चाहिए जिनके फलस्वरूप संसार में सद्ज्ञान एवं सत्कर्म की अभिवृद्धि होने की सम्भावना दिखाई पड़े। किसान तभी एक दाना बोता है जब उसे सौ दाने उपजने की आशा होती है। दान भी ऐसे कार्यों के लिए करना चाहिए जो सौ गुने, अनेक गुने उत्पन्न होते सम्भव दिखाई पड़े। जो कार्य देश, धर्म, समाज और व्यक्ति की प्रगति में सहायक सिद्ध होते हैं-उन्हीं के लिए दान देना सार्थक कहा जा सकता है।

व्यक्ति के समाज के प्रति कुछ कर्तव्य हैं। सामाजिक प्राणी होने के कारण उसका व्यक्तिगत स्वार्थ भी सबके सम्मिलित स्वार्थ के साथ जुड़ा हुआ है। समाज की जैसी भली या बुरी स्थिति होती है। उसका फल उसमें रहने वाले व्यक्ति को भी भोगना पड़ता है। बुरे व्यक्तियों के बीच रहकर कोई अच्छा मनुष्य भी सुख शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता है। अच्छे व्यक्तियों का समूह अपने किसी पिछड़े या गिरे हुए व्यक्ति को भी सहारा देकर ऊँचा उठा लेता है। इन तथ्यों पर ध्यान देते हुए मनीषियों ने ऐसी उदार व्यवस्था बनाई है कि हर व्यक्ति समाज को सुखी एवं समुन्नत बनाने के लिए अपनी कमाई का एक अंश समाज की स्थिति को उच्च बनाने के लिए लगाता रहे। इस कर्तव्य पालन का नाम ही दान है। दान समाज को समुन्नत बनाने वाली एक वैज्ञानिक प्रणाली ही है।

अस्तु, दान को केवल भावना का ही माध्यम न माना जाय वरन् देते समय यह भली प्रकार देख लिया जाय कि जिस कार्य के लिए यह दिया जा रहा है वह समाज के लिए उपयोगी है या नहीं? कार्य की जितनी उपयोगिता होगी उतना ही पुण्य फल कर्ता को मिलेगा। उसके विपरीत यदि अनुपयुक्त कार्य के लिए दान दिया गया है तो इससे जो बुराई बढ़ेगी उसका पाप भी देने वाले को लगेगा।

प्राचीन काल में ब्राह्मण वर्ग एक तपा हुआ, परखा हुआ, चरित्रवान एवं लोक सेवी जन समुदाय था। उसका सारा समय लोक हित के कार्यों में लगता था। अपने व्यक्तिगत खर्च की वे न्यूनतम सीमा रखते थे और अपने सारे प्रयत्न लोक हित की योजनाएं संजोने में लगाये रहते थे। उस जमाने में दान के लिए पात्रता-कुपात्रता की, उपयोगिता अनुपयोगिता की चिन्ता किसी को नहीं करनी पड़ती थी। जो कुछ देना हो ब्राह्मण के हाथ में दे दिया जाय, तो देने वाला पूर्ण निश्चित रहता था कि इस दिये हुए धन का उपयोग केवल समाज हित के कार्यों में ही होगा। जीवन निर्वाह का स्वल्प ध्येय लेकर अपरिग्रही ब्राह्मण सारा धन जन हित का योजना में ही लगाया करते थे। तब ब्राह्मण को देने का अर्थ, समाज के लिए-धर्म के लिए, सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के लिए देना ही माना जाता था।

आज वैसी स्थिति नहीं रही। अब ऐसे ब्राह्मण कोई बिरले ही होंगे जैसे पूर्व काल में। अब दिया हुआ दान, प्राप्त करने वाले ब्राह्मण के व्यक्तिगत उपयोग की वस्तु बन जाती है। ऐसी दशा में यह सोचना ही होगा कि उस व्यक्ति का जीवन सत्प्रवृत्तियों के बढ़ाने में किस सीमा तक सहायक होता है। यही बात साधु-सन्तों के बारे में भी है। ब्राह्मण और साधु की क्रिया पद्धति एक ही थी केवल आश्रम भेद से, गृहस्थ, वानप्रस्थ संन्यास का अन्तर था। आज इनमें से कोई वर्ग ऐसा नहीं रह गया हैं जिसे आशंका एवं सन्देह की दृष्टि से न देखा जाय? व्यक्तिगत जीवन में अत्यन्त मितव्ययी, पूर्ण अपारग्रही, सामाजिक सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाने के लिए अथवा सब कुछ उत्सर्ग किये रहने के गुण आदि न हो तो फिर उन्हें दान देने मात्र से पूर्वकाल की भाँति यह नहीं माना जा सकता कि इस दिये हुए दान का समाजहित के लिए सदुपयोग ही होगा।

आज आवश्यकता इस बात की है कि दान सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के लिए-विशेषतया जनता की मानसिक, आत्मिक एवं नैतिक स्थिति को सुविकसित करने के लिये, विश्वस्त व्यक्तियों या संगठनों के हाथ में दिया जाय और उनके द्वारा होने वाले कार्यों का मूल्याँकन भली प्रकार करते रहा जाय कि उपयोग करने वाले उसे किस तरह व्यय करते हैं और उसका क्या परिणाम निकलता है? इन बातों का ध्यान न रखा जायगा तो दान का उद्देश्य ही नष्ट हो जायगा। कुपात्रों के हाथ में गया हुआ, कुकर्मों के लिये लगा हुआ पैसा भले ही वह दान पुण्य की धर्म भावना से दिया गया हो, दानी के लिये पाप का ही कारण बनेगा। समाज का जो अहित उस दान से होगा उसका उत्तरदायित्व भी उस पर है, जिसने अविवेकपूर्वक दान देकर दुष्प्रवृत्तियों के पोषण में प्रत्यक्ष रूप से सहायता की।

कितने ही निठल्ले, आलसी, ढोंगी, व्यसनी, नशेबाज एवं दुराचारी व्यक्ति धर्म का आडम्बर ओढ़कर भोले भावुक व्यक्तियों से दान प्राप्त करते हैं और उस उपलब्ध धन को दुष्कर्मों में खर्च करते हैं। ऐसा दान आलस, व्यसन, दम्भ, दुराचार एवं नशेबाजी की अभिवृद्धि का कारण बनता है। पोषण पाकर वे दुष्प्रवृत्तियाँ तेजी से बढ़ती है और उनका बुरा परिणाम सारे समाज को भोगना पड़ता है। यदि ऐसे कुपात्रों को निराश होना पड़ा होता, उन्हें सहायता न मिली होती तो सम्भव था कि ठोकर खाकर वे सुधरने या बदलने का प्रयत्न करते। पर जिनने इन निकम्मे और अवांछनीय व्यक्तियों को उन्हें पतनकारी स्थिति में पड़े, रहने के लिये सुविधा प्रदान कर दी वस्तुतः वे ही उस पाप के निमित्त हुए और अविवेकी दाताओं की तरह उन्हें भी उस अव्यवस्था को उत्पन्न करने का पाप भुगतना पड़ेगा।

दीन, दुःखी, पीड़ित, परेशान, भूखे, रोगी, अपंग स्थिति में पड़े हुए व्यक्तियों को दान देना आवश्यक है। यह उदारता और दयालुता की माँग है कि कष्ट में पड़े हुए लोगों को सुविधा देने के लिये जहाँ तक सम्भव हो दूसरे लोग सहायता करें। पर यह सहायता भी ऐसी होनी चाहिये जो उन्हें आलसी, या परावलम्बी न बना दे। मनुष्य में एक दोष यह रहता है कि जब उसे बिना परिश्रम किये सुविधाएँ मिलने लगती हैं तो वह उत्तरदायित्व एवं पुरुषार्थ के झंझट से बचने का अभ्यस्त बनने लगता हैं। दान को व्यवसाय बना लेने वाले और उसे अपना अधिकार मानने वाले लाखों व्यक्ति हमारे देश में मौजूद हैं, यह एक दुर्भाग्य की ही बात मानी जा सकती है।

जो सर्वथा अपंग असमर्थ हैं उनको जीवित रखने के लिये निर्वाह की आवश्यक व्यवस्था की जानी चाहिये। यह व्यवस्था नियमित और क्रमबद्ध होनी चाहिये ताकि कभी अधिक कभी कम की विपन्नता उन्हें न सहनी पड़े। हर घड़ी चिन्तित या व्यग्र न रहना पड़े। ऐसी संस्थाएँ बनानी चाहिये जो अधिकारी अपंग लोगों के भरण पोषण का दायित्व अपने सिर पर लें। भिक्षुकों के निरन्तर माँगते रहने की आदत से उनका अधिक पतन होता है और कई भिक्षुक अनुपयुक्त कार्यों में भी उस पैसे का दुरुपयोग करते हैं, कई तो भिक्षा से ही जोड़-जोड़कर धन जमा कर लेते हैं जो पीछे निरर्थक चला जाता है। इसके विपरीत दुर्बल संकोची या अधिक असमर्थ अपंगों को अभावग्रस्त स्थिति में जीवन समाप्त करना पड़ता है। इस दुविधा से अपंगों को बचाने के लिए ऐसी सामाजिक संस्थाओं को विकसित होना चाहिए जो असमर्थों का उचित उत्तरदायित्व अपने कन्धे पर उठाती हुई मानवता की एक सुव्यवस्थित सेवा कर सकें।

इसके अतिरिक्त जो लोग बेकारी या मानसिक दीनता के कारण भिक्षा माँगते हैं उन्हें किसी उद्योग में लगाने की सुविधा मात्र देकर उन्हें उपार्जन कार्य में लगाना चाहिए। छोटी-छोटी शारीरिक या मानसिक कमी के रहते हुए भी यदि उसे सुविधा प्राप्त हो तो अपने गुजारे के लिए स्वयं उपार्जन कर सकता है। इससे उसमें स्वावलम्बन एवं स्वाभिमान बना रहेगा और साथ ही किसी के दान का दुरुपयोग भी न होगा। कुछ संगठन ऐसे भी होने चाहिए जो अर्ध-असमर्थों को काम में लगाने के लिए गठित हो और दान न देकर उन्हें सुविधापूर्वक श्रम प्रदान करें। अनाथों, विधवाओं, वृद्धों या अन्य प्रकार के अभावग्रस्त लोगों के लिए यदि उपार्जन साधनों का कोई प्रबन्ध हो सके तो वह छुट-पुट दान की अपेक्षा कही अधिक महत्वपूर्ण हो सकता है।

ऐसे संगठित प्रयत्न जब तक विकसित न हों तब तक व्यक्तिगत रूप से भी उन्हीं बातों का ध्यान रखते हुए अपंग असमर्थों की सहायता करनी चाहिए। दान की मात्रा अधिकाधिक हो यह प्रसन्नता की ही बात होगी। बात केवल इतनी-सी विचारणीय है कि उसका सदुपयोग हुआ या नहीं। सदुपयोग पर ही तो दान की सार्थकता निर्भर रहती है।

पीड़ितों और असमर्थों की सहायता जिस प्रकार आवश्यक है उसी प्रकार समाज में सद्ज्ञान एवं सद्भावों की वृद्धि भी आवश्यक है। दुष्प्रवृत्तियाँ अपने आप बढ़ती और फैलती हैं पर सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाने के लिए बहुत प्रयत्न और पुरुषार्थ करना पड़ता है तब कहीं थोड़ी-सी अभिरुचि उधर मुड़ती है। मनुष्य कुविचारों को छोड़कर सद्विचारों का अभ्यासी बने, कुमार्ग छोड़कर सन्मार्ग पर प्रवृत्त हो, ऐसी प्रेरणा देने वाले भावनात्मक प्रयत्नों का होना और बढ़ना किसी भी समाज का स्तर ऊंचा उठाने के लिए आवश्यक है। ऐसी प्रवृत्तियाँ सहयोग एवं साधनों के अभाव में मुरझाई पड़ी रहती हैं उन्हें सींचा जा सके तो वे मानवीय दृष्टिकोण को व्यापक बनाने में बहुत सहायता कर सकती हैं। आवश्यकता इसी बात की है कि ऐसे सद्ज्ञान प्रसाधनों को आरम्भ करने और सींचने में दान वृत्ति को सार्थक बनाने वाले विचारशील आगे बढ़ कर दूसरे दान देने वालों का मार्ग-दर्शन करते रहें।

हमारे देश में दान बहुत होता है। दान को धर्म का एक आवश्यक अंग बना कर हिन्दू-धर्म के आविष्कर्ता ऋषियों ने एक बहुत ही सुन्दर परम्परा को जन्म दिया है। पर उसकी सार्थकता तभी मानी जा सकती है जब उसमें विवेक का पूरा समन्वय रहे। पात्र-कुपात्र का ध्यान रखा जाय और यह देखते रहा जाय कि दान का उद्देश्य पूरा हुआ कि नहीं। दान ठीक उसी प्रकार का एक वैज्ञानिक कार्य है जैसा किसान का बीज बोना। बीज बोते समय भूमि की परीक्षा जिस प्रकार कर ली जाती है उसी प्रकार दान देने से पूर्व जिस व्यक्ति या जिस कार्य के लिए दिया जा रहा हैं उसकी उपयुक्तता को भली प्रकार परख लिया जाना भी आवश्यक है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: