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April 1964

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-श्री अरविन्द

वाणी का सदुपयोग करना हम सीख जायें तो प्रिय-’हित और मित’ ही बोला करें। दूसरों की प्रसन्नता और हिम्मत बढ़ाने वाली आदर, विनय और मधुरता से भरी हुई वाणी सबको मधु से भी अधिक मधुर लगती है। उसे सुनने के लिए हर किसी के कान प्यासे रहते हैं। जिससे दूसरों का हित साधन होता हो ऐसी सन्मार्ग की प्रेरणा देने वाली उपयोगी बातें ही करने के लिए वाणी उपयोग किया जाय करे तो वह कितनी सार्थक बन सकती है? कोयल और कौवे की वाणी का अन्तर और उसका प्रतिफल जानते हुए भी हमारे स्वभाव में कटु-भाषण ही समाया रहता है। निन्दा, चुगली, व्यंग, उपहास, कठोरता, कर्कशता, अहंकार, दोषी, जैसी बुराइयों से भरी हुई दूसरों का दिल दुखाने वाली वाणी ही अक्सर हम लोग बोला करते हैं, कतरनी की तरह लबड़-लबड़ बेकार में जीभ चलाते रहने वाले बातूनी लोग अपना और दूसरों का समय बर्बाद करते है और बात का बतंगड़ बनाने के लिए कुछ न कुछ ऐसे प्रसंग उठाते हैं जिससे दुर्भावनाएँ बढ़ चलें। ‘खरी बात कहने’ के नाम पर तीर सी चुभने वाली कटु-भाषा बोलने वाले असंख्य लोग अन्ततः अपने चारों ओर शत्रुता का वातावरण बना लेते हैं। वाणी का सदुपयोग यदि सीख लिया जाय तो चारों और प्रेम की धारा बहने लगे और सहयोग एवं सद्भाव का स्वर्गीय वातावरण इस धरती पर सर्वत्र फैला-फैला दीख पड़ने लगे। क्लेश, कलह और द्वेष दुर्भाग्य वाणी के दुरुपयोग से बढ़ते हैं। सुसंस्कृत अभिभाषण का सद्गुण यदि व्यापक रूप से अपनाया जा सके तो सतयुग जैसी स्नेह सौजन्य भरी परिस्थितियाँ आज भी चारों और लक्षित हो सकती हैं।

इन्द्रियों के दुरुपयोग के कारण ही हमारा शरीर खोखला होता है। शाक-पात खाकर भी मनुष्य सौ वर्ष जी सकता है, पर जीभ का चटोरापन, कामेन्द्रिय की विषय वासना तथा अन्य इन्द्रियों का अपनी-अपनी मर्यादाओं का व्यतिक्रम करना अस्वस्थता एवं दुर्बलता का कारण बन जाता है। आम शिकायत है कि लोगों का स्वास्थ्य दिन-दिन गिरता चला जाता है और विविध विधि रोगों का आक्रमण तीव्रता के साथ बढ़ता जाता है। इनके कारण और निवारण ढूंढ़ने के लिए प्रयोगशालाओं में बड़े-बड़े अन्वेषण होते रहते हैं। इससे कुछ भी प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं है। जिह्वा इन्द्रिय और कामेन्द्रिय पर अंकुश लगाये बिना, आहार और विहार में सात्विकी एवं संयम का समावेश किये बिना जीवनी शक्ति का क्षरण रोका न जा सकेगा और उसके बिना दुर्बलता, अस्वस्थता एवं अकाल मृत्यु का बढ़ता हुआ प्रकोप और किसी प्रकार रोका न जा सकेगा। असंयम ही हमारे स्वास्थ्य का प्रधान शत्रु है, उसे परास्त किये बिना शारीरिक सुख की आशा-दुराशा मात्र ही बनी रहेगी।

शिष्टाचार, नागरिकता की मर्यादाओं का पालन एवं कर्तव्य परायणता का नियन्त्रण स्वीकार न करके उच्छृंखलता की प्रवृत्ति बुरी तरह बढ़ती चली जा रही है। वासनाओं और तृष्णाओं में ग्रसित मनुष्य अनैतिक एवं उद्धत गतिविधियाँ अपनाते हैं और अपराधों की बढ़ोतरी होती जाती है। आवेशों पर नियंत्रण न रहने से लोग छोटे-छोटे कारणों को लेकर आपे से बाहर हो जाते हैं और न करने लायक उद्धत कृत्य कर डालते हैं। छुरेबाजी, हत्याएं, आत्महत्याएँ, मुकदमेबाजी, पार्टीबन्दी, षड़यन्त्र आदि की दुर्घटनाओं के पीछे मनुष्य की गलत ढंग से सोचने की आदत ही प्रधान कारण रही होती है। यदि लोग गम्भीरता पूर्ण सोचने, दूसरों की परिस्थिति समझने और उलझनों को शान्तिपूर्ण ढंग से सुलझाने का प्रयत्न करें, सहिष्णुता, सहनशीलता एवं सद्भावना से काम ले तो पेचीदा दीखने वाली उलझने भी सहज ही सुलझ जाया करें और भिन्नता के बीच एकता बनाये रहने का रास्ता निकला आया करे।

विचारों का असंयम मानव-जाति के लिए एक-भयंकर अभिशाप एवं दुर्भाग्य बना हुआ है। हम मानवोचित उत्कृष्ट आदर्शवादी विचारधारा परित्याग कर पशुओं एवं पिशाचों के ढंग से सोचते है। आकाँक्षाओं का स्तर बहुत ही निकृष्ट रहता है। साहस के अभाव में चिन्ता, भय, निराशा, शौक, क्षोभ से चित्त निरन्तर उद्विग्न बना रहता है। कलह और संघर्षों का, द्वेष और दुर्भावनाओं का विस्तार, विचारधारा का स्तर अधोगामी होने के कारण ही होता है। यदि लोग ऊँचे ढंग से सोच अपने मानवीय गौरव का स्मरण रहे और मनुष्यता की प्रतिष्ठा एवं मर्यादा के अनुरूप सोचे तो निकृष्ट गति विधियाँ अपनाने का अवसर ही न आवे। कुकर्मों की सृष्टि कुविचारों से ही होती है। दीनता-दरिद्रता और पतन के लिए निष्कृष्ट कोटि की विचारधारा ही उत्तरदायी है। यदि विचारशक्ति का संयम और सदुपयोग कर हम ध्यान देने लगें तो नर को नारायण और जीव को ब्रह्म के रूप से परिणत होते हुए देर न लगे।

जीवन अविकसित एवं निम्न स्तर का बना इसलिए पड़ा रहता है कि हम अपनी शक्तियों के महत्व को पहिचानते नहीं, उनको कुमार्ग से हटाने और सन्मार्ग पर लगाने का प्रयत्न नहीं करते। यह उपेक्षा जब तक बनी रहेगी तब बाह्य साधनों के द्वारा सुखी बनने के लिए किये गये प्रयत्न निष्फल ही जाते रहेंगे। मनुष्य अपने भीतर उतनी प्रचण्ड शक्ति और सामर्थ्य भरा बैठा है कि उसके सदुपयोग का संकल्प एवं साहस कर लेने से प्रगति का प्रत्येक द्वार खुल सकता है और मनुष्य ऊँचे से ऊँचे यहाँ तक की परमात्मा की समीपता प्राप्त करने तक की स्थिति उपलब्ध कर सकता है।

कठिनाइयाँ आपकी सहायक भी तो हैं।

अध्यात्म मार्ग पर चलते हुये पग-पग पर कठिनाइयों का समाना करना पड़ता है। जीवन-यापन के पर्याप्त साधनों का अभाव, परिजनों को वह व्यवस्थायें न जुटा पाना जिसकी वे हमसे अपेक्षा रखते हैं, दूसरे लोगों के विद्वेष व उपहास भरे व्यंग आदि, अनेकों कठिनाइयाँ हैं जो मनुष्य को उसके लक्ष्य से विचलित करती रहती हैं। इनसे भी बढ़कर अपना निज का आलस्य, मिथ्याभिमान, काम, क्रोध, भय व प्रलोभन ये भी तो वैसी ही कठिनाइयाँ हैं जैसी औरों द्वारा उत्पन्न की गई। इनके आते ही व्यक्ति का उत्साह घट जाता है और जिस लक्ष्य की ओर वह बढ़ा था उसे बीच में ही अधूरा छोड़ देता है और यह मान लेता है कि यह उसके बस की बात नहीं।

किंतु यह बात जानने की है कि कठिनाइयाँ मनुष्य की बाधक बनकर नहीं आती हैं वरन् उसके लक्ष्य को आसान बनाने के लिये ही आती हैं। किसी शायर ने इसी की भावाभिव्यक्ति करते हुये लिखा है :-

रंज से खूँगर हुआ ईंसाँ तो मिट जाता है जरा।

मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी कि आसाँ हो गईं।

निरन्तर सफलता से तो संसार का केवल एक पक्ष समझ में आता है। कठिनाइयाँ हमें दूसरे भाग का भी बोध करा देती हैं। वे हमें यथार्थ में जीवन जीने की कला सिखा देती हैं। इनके बिना किसी भी प्रयोजन की सिद्धि, चाहे वह आध्यात्मिक हो अथवा साँसारिक सम्भव न होगी।

सुख और दुःख संसार रथ के दो पहिये हैं। एक का अस्तित्व दूसरे पर टिका है। एक दिन है तो दूसरा रात। एक शरीर है दूसरा प्राण। दोनों के मध्य से ही जीवन की सरिता का प्रवाह बहता हैं। यदि अन्धकार न हो तो फिर प्रकाश की महत्ता ही क्या रहेगी। तात्पर्य यह है कि जीवन को क्रियाशील बनाये रखने के लिये दोनों ही आवश्यक हैं। इनसे बचा भी नहीं जा सकता। जब तक शरीर है तब तक सुख-दुःख का निवारण नहीं हो सकता।

सुख प्राप्ति के मार्ग में जो परिस्थितियाँ बाधा उत्पन्न करती हैं उन्हें कठिनाइयाँ मानते हैं। धन-क्षय, शारीरिक व्याधियाँ, अप्रिय पुरुषों का संग, प्रियजनों से विछोह इन्हें ही मोटे तौर पर कठिनाइयाँ मानते है। आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति में मनोविकारों व स्वभावजन्य कुकृत्यों को कठिनाई माना जाता है। इन्हीं के कारण मनुष्य दुःखी रहता है। किन्तु यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो यही परिस्थितियाँ ही महान परिणामों की जननी हैं। उपनिषद्कार ने लिखा हैं “दिवमारुतह तपसा तपस्वी”। तप से ही आत्मोत्थान सम्भव है। तप का अर्थ कड़कती धूप में बैठ कर जप ध्यान करना, गहन शीत में स्नान करना अथवा शारीरिक तितीक्षा नहीं। इसका सर्वमान्य अर्थ यही है फिर मनुष्य मार्ग में आई हुई कठिनाइयों से निरन्तर संघर्ष करें। इनसे लड़ते हुये अपने लक्ष्य की प्राप्ति करें। हीरा बिना रगड़ लाये चमकता नहीं। मनुष्य बिना परीक्षा दिये पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता। कठिनाइयाँ और कुछ नहीं, वे एक कसौटी मात्र हैं जो आगे के लिये सचेष्ट करती हैं।

कोई विद्यार्थी यह कहे कि छमाही परीक्षा से न तो मैं उत्तीर्ण होता हूँ न ही अनुत्तीर्ण फिर क्यों कलम, दावात, कापी और कागजों में व्यर्थ खर्च करूं? कई बीमारी आदि का बहाना बनाकर उसे टाल भी देते हैं। किंतु चतुर अध्यापक उन्हें ऐसा करने से रोकते हैं और उन्हें बताते हैं कि यदि यह परीक्षा न दी तो यह कैसे अनुमान लगा पायेंगे कि वार्षिक परीक्षा में किन-किन विषयों में कितना परिश्रम करना है। पहली स्थिति में तो फेल होने की ही अधिक आशंका रहती है। ऐसे विद्यार्थियों की तरह अपने लिये भी यह उचित है कि अपनी प्रगति के लिये कठिनाइयों को जीवन का आवश्यक अंग मान लें।

बिना विपत्ति की ठोकर लगे विवेक की आँखें नहीं खुलती। सच्चे ज्ञान की कसौटी यह है कि उसे कठिनाइयों में प्राप्त किया गया हो। प्रसिद्ध उपन्यासकार श्री प्रेमचन्द्र ने लिखा हैं “विपत्तियों से बढ़कर तजुर्बा दिलाने वाला विद्यालय आज तक नहीं खुला।” कठिनाइयाँ मनुष्य के विकास का साधन हैं। जिस तरह आग की तेज भट्टी में तपाने पर सोने का रंग निखर आता है वैसे ही सच्चे व्यक्ति का जीवन कठिनाइयों की आग से परिपक्व बनता है। महात्मा गांधी, बुद्ध, ईसा, आदि महापुरुष पग-पग पर कठिनाइयों से लड़े थे तब महान सामाजिक व राजनैतिक क्राँतियों का उन्नयन कर सके थे।

विपत्ति में मानसिक शक्तियाँ अंतर्मुखी हो जाती हैं। इससे मनुष्य को सत्य असत्य, अपने पराये का यथार्थ ज्ञान होता है। आत्मीय स्वजनों की पहिचान भी कठिन समय आ पड़ने पर ही होती है-

कहि रहीम संपत्ति सगे बनत बहुत बहुरीति।

विपति कसौटी जे कसे तेई साँचे मीत॥

सच्चे मित्र की, आत्मीय की पहिचान कठिनाइयों में होती है। इसे और भी स्पष्ट शब्दों में व्यक्त करते हुये कवि ने लिखा है :-

रहिमन विपदा हूँ भली जो थोड़े दिन होय।

हित अनहित या जगत में जानि पड़े सब कोय॥

अपना हितैषी कौन है और कौन कपटपूर्वक धूर्तता का, धोखेबाजी का व्यवहार कर रहा है इसकी परीक्षा मुसीबत पड़ने पर ही होती है। सुखी जीवन के तो हजार साथी होते हैं पर मुसीबत पड़ने पर कोई सच्चा सगा ही काम देगा।

सन्मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति की सच्ची परीक्षा कठिनाइयों में ही होती है। ऐसे अवसरों पर बहुधा लोगों को यह कहते सुना जाता है कि उन पर परमात्मा रूठा है। उनके दुर्दिन चल रहे हैं। पर स्थिति ठीक इससे विपरीत है। महात्मा स्वेट मार्डेन ने लिखा है-”जितने दुःख, जितनी विपत्तियाँ हमें प्राप्त होती हैं उनका कारण यही है कि अनन्त ऐश्वर्यशाली एवं सर्व-शक्तिमान परमात्मा से हम अलगाव का भाव बनाये हैं।” कठिनाइयाँ वह वरदान हैं जिन्हें देकर परमात्मा हमें अपने पास बुलाना अपनी पवित्र गोद में बिठाना चाहता है। सच्चे आध्यात्मवादी की पहिचान मुसीबतों में होती है। मुसीबतों में तपे बिना व्यक्ति अपने आप को ब्रह्मवादी घोषित करने का अधिकार नहीं पाता है, सच्चा ईश्वर-वादी वह है जो कहता है ‘मालिक मुझे सुख नहीं दुःख दे। सुविधायें नहीं मुसीबतें दे, ताकि तुम से विलग न होऊँ।’

विपत्ति वह खराद है जिससे परमात्मा अपने रत्नों की चमक बढ़ाता है। इसलिये आप देखिए कि आप के जीवन में भी कठिनाइयों है अथवा नहीं। आप आध्यात्मवादी हैं आपके जीवन में निरी कठिनाइयाँ बाघ की भाँति मुँह बाये खड़ी हैं। आप इसने विचलित तो नहीं हो रहे। यदि आप के पाँव लड़खड़ाते हैं तो सम्हल कर खड़े होइये। धर्म और अव्यवसाय का अवलम्बन कीजिये। जिसे धीरज है जो परिश्रम से पाँव पीछे हटाना नहीं जानता सफलता की देवी उसी के गले विजय-माला पहनाती है। धैर्य प्रारम्भ में कंकआडडडडडडड भले ही लगे किंतु उसका फल मधुर होता है।

आत्म-निर्भर बनने का और अपने में आत्म-विश्वास जागृत करने का एक ही गुरु-मंत्र है कि-आप अपने जीवन में कठिनाइयों को आने दीजिये, दूसरों के दुःख तकलीफ और मुसीबतों में हाथ बटाइये। दूसरों की सहायता कीजिए और परमात्मा आपकी सहायता करेगा। दूसरों के दुःखों को समझिए और अनुभव कीजिए कि आप असंख्यों से सुखी हैं, ऐसा दृष्टि-कोण बना लेने से कठिनाई और दुःख की परिस्थितियाँ टल जायेंगी और अपने पीछे सफलता की राह बना जायेगी। किसी कवि ने कहा है-

गम राह नहीं कि साथ दीजे।

दुःख बोझ नहीं कि बाँट लीजे॥

कठिनाइयाँ छोटे मनुष्यों को निस्तेज निष्प्राण बना सकती हैं किंतु महान वे हैं जो दुःखों की छाया में पलते हैं, औरों के दुःखों, मुसीबतों में हाथ बंटाते हैं। पुरुषार्थ भी इसी का नाम है कि व्यक्ति परिस्थितियों से संघर्ष करे। स्वयं उनका पराया न हो वरन् उन्हें वशवर्ती करें।

सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एलफ्रेड एडलर का मत है कि भयभीत और हीन-भावनाओं के व्यक्ति वे होते हैं जिनके जीवन में कभी कठिनाइयाँ नहीं आई होती अथवा जो कठिनाइयों से कतराते या बचते रहते हैं ऐसे व्यक्तियों का मानसिक विकास रुक जाता है। ऐसे व्यक्ति छोटे-छोटे कार्यों में भी सफलता नहीं पाते। कठिनाइयाँ अपने आप में उतनी भयावह नहीं होती जितनी उनकी भयोत्पादक कल्पना। जब कभी किसी कठिनाई का आभास हो, आत्म-विश्वास जगाइये, निश्चय ही उससे आप को हितकर परिणाम प्राप्त होंगे।

पूर्व-काल में शैक्षणिक व्यवस्था ऐसा बनाई गई थीं जिसमें अनिवार्य रूप से छोटे-बड़े बालकों को गुरुकुल में रखकर अक्षर ज्ञान कम और व्यावहारिक जीवन में कठिनाइयों का अधिक से अधिक पाठ पढ़ाने का क्रम रखा जाता था। जब तक यह पद्धति चलती रही इस देश में साहसी, पुरुषार्थी, चरित्रवान और प्रतिभाशाली नररत्नों की कमी नहीं रही। किंतु जब से कठिन परिस्थितियों में रहकर जीवन बिताने का ह्रास हुआ तब से निर्बल निस्तेज और दुराचारी व्यक्तियों का ही बाहुल्य होता चला जा रहा है।

इन परिस्थितियों के रहते हुये किसी व्यक्ति, समाज, राष्ट्र का उत्थान सम्भव नहीं। कठिनाइयों से न जूझने का अर्थ यह है कि व्यक्ति सत्य की अवहेलना कर रहा है और मिथ्याचार को प्रोत्साहन दे रहा है। साहस सदाचार आदि नैतिक सद्गुण कठिनाइयों से विमुख होते ही पलायन कर जाते हैं तब फिर व्यक्तित्व के विकास का मार्ग अवरुद्ध होना ही निश्चित मानिये। एक व्यक्ति ने अपना जीवन लक्ष्य प्राप्त करने के लिये साधना उपासना का क्रम बनाया। पड़ोस वालों ने देखा तो लगे उपहास करने। बस उसका उत्साह ढीला पड़ गया। ऐसी अवस्था में सत्य की खोज करना एवं अपनी दुर्बलताओं से जूझना कहाँ बन पड़ेगा? पर दूसरे वे होते हैं जो यह मानते हैं कि उपहास करने वाले व्यक्ति हमें बुराइयों से सावधान रखने वाले पहरुये हैं। जो लोग उपहास और अवरोध की परवा न करते हुये अपने रास्ते पर चलते रहते हैं वे स्वयं सफलता प्राप्त करते हैं और दूसरों के लिये प्रेरणा का स्रोत भी बनते हैं। ऐसे ही व्यक्ति समाज का उत्थान कर सकते हैं। उन्हीं से आध्यात्मिक प्रगति का आशा की जा सकती है।

जीवन के विभिन्न व्यवसायों में चाहे वह लौकिक हो अथवा आत्मा परमात्मा की भक्ति से सम्बन्ध रखने वाले हो सब में कठिनाइयों के मार्ग से ही गुजरना पड़ेगा, शरीर मिला है तो रोग, शोक, बीमारी आदि आयेंगी ही। जीवनयापन के लिये कोई भी उद्योग करें, उसमें सब ओर लाभ ही लाभ हो यह संभव नहीं। सुख सुविधाओं की सामान्य इच्छा सभी को होती है फिर सारी सुख-सुविधायें आपको ही मिल जायेंगी इसकी कोई गारन्टी नहीं है। अतएव आप ऐसे समय में भी संतोष और धैर्य की वृत्ति बनाये रहें और अपने चरम लक्ष्य की प्राप्ति में लगे रहें तो आपका जीवन सफल माना जायेगा।

दुःख और कठिनाइयों में ही सच्चे हृदय से परमात्मा की याद आती है। सुख सुविधाओं में तो भोग और तृप्ति की ही भावना बनी रहती है। परमात्मा की याद तब आती है जब व्यक्ति असहाय-सा चारों ओर से अपने आपको कठिनाइयों से घिरा पाता है। इसलिये उचित यही है कि विपत्तियों का सच्चे हृदय से स्वागत करें। परमात्मा से माँगने लायक एक ही वरदान है कि वह कष्ट दे, मुसीबतें दे ताकि मनुष्य अपने लक्ष्य के प्रति सावधान व सजग बना रहे। कृष्ण के समक्ष अपनी इच्छा-व्यक्त करते हुये कुन्ती ने ऐसी ही कामना की थी-

विपदःसन्तु नः शाश्वत तत्र तत्र जगद्गुरो।

भवतो वर्शनम यत्स्पाद पुनर्भव दर्शनम्॥


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