भौतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोण

April 1964

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मानव-जीवन के दो स्तर हैं एक बाह्य दूसरा आन्तरिक, एक भौतिक दूसरा आत्मिक। इनमें से जिसकी प्रधानता होती है उसी के अनुसार जीवन का स्वरूप बनता है। भौतिकतावादी जीवन भौतिक-स्थूल दृष्टिकोण का प्रतिफल है और आध्यात्मिक जीवन मनुष्य की सूक्ष्म विवेक बुद्धि की प्रेरणा पर अवलम्बित है।

बाहर से देखने में भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में कोई विशेष अन्तर दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि शरीर के पोषण एवं निकटवर्ती स्वजनों के प्रति कर्तव्य पालन के लिए गृही-विरक्त सभी को जीवनोपयोगी वस्तुओं का उपार्जन एवं संग्रह करना पड़ता है। उनकी मात्रा में न्यूनाधिकता हो सकती है पर उस अनिवार्य प्रक्रिया से छुटकारा किसी को भी नहीं मिल सकता।

गृहस्थ को आजीविका उपार्जन के लिए कृषि, व्यापार, मजदूरी, शिल्प आदि कार्य अपनाने पड़ते हैं तो विरक्त को भिक्षा, कंद मूल फल संग्रह, आदि के लिए उद्योग करना पड़ता है। सभी को वस्त्र चाहिए, सभी को निवास के लिए घर चाहिए। पात्र चाहे कमण्डलु हो, चाहे धातु का बना हो आवश्यक ही रहता है। माला, पुस्तक, आसन, वस्त्र, कंबल, झाडू, जल पात्र, दीपक, अग्नि साधन, कुटी, आश्रम, गुफा तो साधु को भी चाहिए। उनके टूटने-फूटने पर उन्हें बार-बार प्राप्त करना पड़ता है। भोजन और जल भी बार-बार चाहिए। इनके साधन जुटाने में काफी समय लगाना पड़ता है। गृहस्थों का जिस प्रकार अपना 4-6 आदमियों का परिवार होता है, साधुओं के भी उससे अधिक सहचर, शिष्य, स्नेही, मनुष्य या पशु-पक्षी बन जाते हैं। पूर्ण एकाकी जीवन किसी के लिए सम्भव नहीं। मनुष्य की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि उसकी भावनाओं का विकास दूसरों के सहचरत्व में ही सम्भव है। पूर्ण एकाकीपन तो जड़ता की ओर ही ले जाता है। सहचरों के साथ जो कर्तव्य एवं भाव-कुभाव गृहस्थ को रहते हैं लगभग वैसे ही साधु को भी बने रहते हैं।

वनवासी तपस्वी को सिंह का भय, व्याघ्र से घृणा, भोजन की इच्छा, साधन सामग्री की चिन्ता, मुक्ति की अभिलाषा, बन्धनों से घृणा, सज्जनों से राग, दुर्जनों से द्वेष एवं आन्तरिक कुसंस्कारों से संघर्ष करते रहना पड़ता है। सुविधाओं को जुटाने एवं असुविधाओं को मिटाने के लिए उन्हें भी बहुत कुछ सोचना और करना पड़ता है। लगभग ऐसी हो प्रक्रिया गृहस्थ जीवन में भी बनी रहती है। इस प्रकार विचारपूर्वक देखने से दोनों ही प्रकार के-सभी प्रकार के जीवन भौतिकवादी दीखते हैं। जीवित मनुष्य इनसे छुटकारा नहीं पा सकता क्योंकि उसका निर्माण ही इस ढंग से हुआ है कि प्रयत्न और पुरुषार्थ, साधन और सुविधा के लिए उसे एक निश्चित ढर्रे पर चलना ही पड़ेगा। मात्रा का अन्तर रहे तो भी वस्तु स्थिति में अन्तर नहीं आता। बाह्य जीवन हर व्यक्ति का भौतिकवादी ही होता हैं।

प्रश्न भीतरी स्थिति का है। अन्तर इतना ही रहता है कि एक श्रेणी के व्यक्ति भौतिक वस्तुओं के प्रति भावनाएं रखते हैं, उनसे प्रेरणा प्राप्त करते हैं, उनकी प्राप्ति से सुखी और दुखी होते हैं, अपना लक्ष इन भौतिक पदार्थों और परिस्थितियों को ही बनाये रहते हैं। ऐसे लोगों को भौतिकतावादी कहा जाता हैं। दूसरी श्रेणी के व्यक्ति वे हैं जो भावना को महत्ता देते हैं, वस्तु को उसका उपकरण मानते हैं। वस्तुओं की निस्सारता, जड़ता और क्षणभंगुरता को समझते हुए केवल उनके सदुपयोग की बात सोचते रहते है। विश्व-मानव की श्रेय साधना ही उनका लक्ष होता हैं। जीवन की गतिविधियों का और अपनी कार्य पद्धति का निर्माण वे इसी आधार पर करते हैं। ऐसे व्यक्तियों को अध्यात्मवादी कह सकते हैं।

भौतिकवादी और अध्यात्मवादी का अन्तर प्रत्येक पदार्थ और स्थिति में बिलकुल भिन्न होता है। यह भिन्नता ही उनके उत्थान और पतन का कारण बनती है। एक युवा लड़की को दो व्यक्ति ध्यानपूर्वक देख रहे हैं। इनमें से एक वासना की दृष्टि से और एक आत्मा की सुरम्य आभा देखकर पुलकित होने के लिए देखे तो बाह्य दृष्टि में दोनों की क्रिया एक होते हुए भी उनका प्रतिफल एक दूसरे से सर्वथा भिन्न होगा।

मंदिर में दो व्यक्ति भगवान का दर्शन तन्मयतापूर्वक कर रहे हैं। एक भावनापूर्वक इस प्रतिमा में घट-घट वासी सर्वव्यापी भगवान की झाँकी करता हुआ गद्-गद् होता है। दूसरा मुकुट शृंगार का, पत्थर आदि का मूल्य आँकता हैं और दूसरी प्रतिमाओं के बाह्य साधनों के साथ तुलना करता है, उसको समग्र दृष्टि विलास तक सीमित है। ऐसी दशा में दोनों का देव दर्शन भिन्न परिणाम ही उत्पन्न करेगा। एक और तीसरा चोर व्यक्ति जो मूर्ति का कीमती शृंगार चुराने की घात लगा कर खड़ा है और उसके लिए अवसर खोजने में तत्पर है, उपरोक्त दोनों व्यक्तियों से भी भिन्न प्रकार की परिणित का अधिकारी होगा। एक को भगवान के दर्शन का लाभ मिलेगा, दूसरा शृंगार एवं मन्दिर की शोभा की आलोचना करके मनोरंजन करेगा, तीसरा पाप में प्रवृत्त होकर दुख भोगेगा, पकड़ा गया तो जेल जायगा। इस प्रकार एक ही प्रकार से देव-दर्शन कर रहे तीन व्यक्ति तीन तरह की गति को प्राप्त होंगे।

एक व्यक्ति धन-संजय में अपना गौरव मानता है, स्त्री को रमणी एवं दासी के रूप में सुखोपभोग की सामग्री मानता है, अहंकार की तृप्ति में प्रसन्न होता है, तो उसे स्थिति की अनुकूलता एवं प्रतिकूलता के अनुसार सुख-दुःख मिलेगा। सच तो यह है कि उसे हर समय दुःख ही दुःख रहेगा। क्योंकि जो छोटी-मोटी सफलता मिलेगी वह तृष्णा की तुलना में कम ही होगी। इसलिए और अधिक की आकाँक्षा में उपलब्ध साधन अपर्याप्त एवं असन्तोषजनक ही मालूम पड़ेंगे और वह निरन्तर खिन्न ही बना रहेगा। भौतिकवादी दृष्टिकोण में सदैव, असंतृप्ति, कुढ़न एवं खिन्नता ही बनी रहेगी क्योंकि इस संसार की सब वस्तुएं मिल कर भी एक व्यक्ति की तृष्णा को पूरी नहीं कर सकती।

दूसरा व्यक्ति जो धन को ईश्वर की अमानत एवं उच्च आदर्शों के लिए सदुपयोग की सामग्री मात्र मानता है उसे धन के सम्बन्ध में अकुलाहट क्यों होंगी? उचित साधनों से जितना कमाया जा सकता है उतने का श्रेष्ठतम सदुपयोग कर लेने की कला यदि याद हो तो थोड़े से पैसे में भी उतना आनन्द एवं सत्परिणाम प्राप्त किया जा सकता है जितना धन कुबेरों के लिए भी सम्भव नहीं हो सकता। संसार में इतिहास में जगमगाते हुए महापुरुषों में से अधिकाँश निर्धन श्रेणी के थे। जो कुछ पास था उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करते हुए वे प्रगति के आवश्यक साधन एकत्रित कर सके। किन्तु जिनके पास धन के अटूट भंडार भरे पड़े थे उनने उससे अपना नाश ही किया, अगणित दोष, एवं दुर्गुण खरीद लिये जो निर्धनों को कदाचित ही प्रभावित करते है स्वविवेकी धनवान जितनी तेजी से अपना और समस्त समाज का नाश करते है। उतना अविवेकी निर्धन नहीं कर पाता। इन बातों पर विचार करते हुए अध्यात्मवादी दृष्टिकोण वाला व्यक्ति जो उचित मार्ग से काम कर सकता है उतने का सदुपयोग करते हुए सुख रहता हैं। वह यह सोच भी नहीं पाता कि धन का जमा होना न होना भी किसी के गौरव को बढ़ाने-घटाने का कारण बन सकता है।

नारी के प्रति माता, बहिन और पुत्री की पवित्र भावनाएं रखने वाला व्यक्ति कितना शान्त और सन्तुलित रहता है इसकी कल्पना भी लम्पट प्रकृति के दुष्ट दुराचारी एवं वासनाओं के कीड़ों के लिए कठिन होती है। वे सदा हाथ मलते और अपनी दुर्बुद्धि की आग में जलते रहते हैं, यदाकदा जो थोड़ी सी सफलता प्राप्त कर लेते हैं उतनी में भी अपनी प्रतिष्ठा को तो वे खो ही बैठते हैं। भले लोगों के बीच उन्हें घृणा, आशंका और तिरस्कार की ही दृष्टि से देखा जाता है। अपनी पत्नी में रूप यौवन या अन्य आकर्षण को खोजने वाले और उसी आधार पर सन्तुष्टि-असंतुष्टि की बात सोचने वाले लोग दांपत्ति जीवन का आनन्द क्या उठा सकेंगे? उनमें से हर एक को असंतोष ही रहेगा, क्योंकि मनुष्य अपूर्ण है। दूर से कोई पूर्ण भले ही दीखे पास से हर वस्तु अपूर्ण दिखाई पड़ती है, ऐसी दशा में पत्नी भी किसे मनोवांछित मिलेगी? हाँ, जिसने पतिव्रत धर्म की तरह पत्नी व्रत को आदर्श मान लिया है और उस धर्म कर्तव्य को निवाहते हुए जैसी भी कुछ सहधर्मिणी मिली है उसे पूर्ण प्रेम प्रदान करते हुए, सन्तोष और स्नेह के साथ शिरोधार्य करते हुए, क्षमा उदारता ओर आत्मीयता की भावना से उसकी त्रुटियों को निवाहते हुए सुधारने का सौम्य प्रयत्न करते हुए- जो अपने गृहस्थ को स्वर्गीय बनाना चाहेगा, उसे त्रुटिपूर्ण नारी प्राप्त होने पर भी सदा सुख शान्ति का ही दर्शन होता रहेगा।

अहंकार की तृप्ति के लिए अनावश्यक अपव्यय, फैशन, ठाट-बाट पदवी, मान सम्मान की आकाँक्षा जिसे बनी रहेगी उसे दूसरों का गुलाम बनकर रहना होगा। दूसरे क्या पसन्द करते हैं, दूसरों को प्रभावित कैसे किया जा सकता है यही सोचने में उसे अपनी शक्ति और सामर्थ्य का बहुत बड़ा अंश खर्च कर देना पड़ेगा। किन्तु जिसने सादगी को ही सौंदर्य और सज्जनता का प्रतीक माना है वह मितव्ययिता बरतते हुए सीधे-साधे ढंग का कम खर्चीला जीवन बना लेगा और सदा सुखी रहेगा। सामाजिक प्रतिष्ठा का माध्यम ठाठ-बाठ को मानना वस्तुतः बहुत ही छिछोरपन है। यदि ऐसा रहा होता तो रंग-मच पर सजा-धजा राज का अभिनय करने वाले नटों को संसार में भारी मान मिलता। बनावट का खोखलापन और ओछापन दूर से ही दीखता है। और हर समझदार आदमी उसे व्यंग, उपहास और बचकानेपन का ही प्रमाण मान सकता है। एक ओर ठाठ-बाठ के नाम पर आवश्यक कार्यों से भी वंचित रहना और उसके आडम्बर पर बहुत धन एवं समय खर्च करना, दूसरी ओर विचारशील लोगों की दृष्टि में उपहासास्पद बनना यह दुहरी मार ढोंगी अहंकारग्रस्तों पर पड़ती है। सादगी की सज्जनता का महत्व जो, समझते हैं वे अपनी शक्तियों का सदुपयोग दूसरी बातों में करते हैं और प्रगति पथ पर तेजी से अग्रसर होते चले जाते हैं।

संसार की वस्तुओं में सौंदर्य और सुख को तलाश करते हुए उनके पीछे दौड़ते रहने वाले लोग भौतिकवादी कहे जाते है और उनका यह दृष्टिकोण इसलिए अनुपयुक्त माना जाता हैं कि उसे अपनाने वाले को मृग तृष्णा की तरह आजीवन भटकते रहते भी कभी शान्ति और सन्तोष का दर्शन नहीं हो पाता। धनी, मानी व्यक्ति भी कितने अशान्त, उद्विग्न, असंतुष्ट और खिन्न रहते हैं, उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य कितना जर्जर का चुका होता है, उसका अनुभव दूरवर्ती को नहीं समीपवर्ती को ही हो सकता है। बाहर के लोग उनका ठाठ-बाठ देखकर यह कल्पना करते हैं कि यह लोग सुखी होंगे पर सच बात यह है कि जिस मार्ग पर ये चल रहे हैं उसमें, जीवन का निरर्थक अपव्यय हो जाने के अतिरिक्त लाभ कुछ भी नहीं मिलता।

वस्तुओं के प्रति अत्यधिक आकर्षण, उनके प्रति अनावश्यक मोह, आत्मघात के समान ही हानिकारक है। नर-तन जैसा सुरदुर्लभ अवसर इन्हीं बाल क्रीड़ा में बिना ढंग और जो कुछ कमाया धमाया है उसे कूड़े करकट की तरह यों ही छोड़कर चलते बनना इसमें कौन-सी बुद्धिमानी है। आशा और तृष्णा के झूले में झूलते हुए एक अतृप्ति की चसक सी जब नशे बाजों के व्यसन की तरह पीछे लग जाती है तो छूटती भले ही न हो पर उसका परिणाम नशे बाजों के द्वारा पूर्ण बर्बादी के बाद किये जाने वाले पश्चाताप जैसा ही होता है।


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