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April 1964

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ऋजुँ पश्यत मा वज्रं डस्यं षडत माक्तम। दीर्ध पश्यत मा हस्वं परं षश्यत नापरम॥

अपनी दृष्टि सरल रखो, कुटिल नहीं। सत्य बोलो, अनृत नहीं। दीर्घदर्शी बनो, अल्पदर्शी नहीं। परमतत्व को देखो, क्षुद्र वस्तु को नहीं।

हमने पाश्चात्य लोगों के दोष दुर्गुण सब सीख लिए उनका अन्धानुकरण करने में बन्दर को भी मास्त कर दिया पर वे सद्गुण न सीखे जिनके कारण वे आज स्वास्थ्य धन, विद्या, विज्ञान एवं प्रसन्न रहने और सुखमय जीवन यापन कर सकने की सफलता प्राप्त कर सकने में समर्थ हुए हैं। सीखना ही हो तो आज के पाश्चात्य जगत से हमें उनके वे सद्गुण सीखने चाहिएं जिनके कारण वे अपनी निर्धारित दिशा में सफलता पर सफलता प्राप्त करते हुए आगे बढ़ते चले जा रहे हैं। हमें न केवल व्यावहारिक सद्गुणों में ही पाश्चात्य लोगों से आगे बढ़ना है वरन् आध्यात्मिक उच्च आदर्शों से अपनी वाणी ही नहीं क्रिया को भी इतना सशक्त बनाना हैं जिसका अनुकरण करने के लिए हमारा विश्व आह्लादित हो और अन्तर्राष्ट्रीय जगत में जो सर्वनाश की भयानक संभावनाएं दिखाई पड़ रहीं हैं वे स्नेह, सहयोग में बदल कर सच्ची विश्व शान्ति की भूमिका सम्पन्न कर सकें।

प्रगतिशील-विद्यासागर

बंगाल के प्रसिद्ध विद्वान ईश्वर चंद्र विद्यासागर अपने जीवन के अंतिम दिनों में भारत के आकाश में उज्ज्वल नक्षत्र की तरह चमकने लगे थे। उनने संस्कृत में उच्च परीक्षाएं पास की। सैंकड़ों को विद्या दान दिया। संस्कृत कालेज के प्रिंसिपल हुए, अनेक ग्रन्थ लिखे। संस्कृत सीखने की सरल विधि निकाली। तथा नारी उत्थान के लिए बहुत काम किया।

बंगाल में उन दिनों विधवाओं की बड़ी दुर्दशा थी। कुलीनता के नाम पर वयोवृद्ध पुरुष भी कई-कई लड़कियों से विवाह कर लेते थे और उन्हें विधवा छोड़कर चले जाते थे। ऐसी विधवाओं की एक बहुत बड़ी संख्या बंगाल में थी। उनकी हृदयस्पर्शी दुर्दशा से द्रवित होकर विद्यासागर ने विधवा विवाह आन्दोलन चलाया। ‘बोधिनी’ पत्रिका निकाली और विधवा विवाह के समर्थन में एक बड़ा ग्रन्थ लिखा जिसमें शास्त्र पुराणों के द्वारा अपने मत की पुष्टि की गई थी। इस आन्दोलन से पुरातत्व पंथियों में बड़ा बावैला मचा और वे उन्हें जान से मार देने तक की धमकियाँ देने लगे। पर वे जरा भी विचलित नहीं हुए और उस आन्दोलन को दृढ़तापूर्वक चलाते रहें। उन्होंने अपने खर्चें से सौ से अधिक विधवाओं के विवाह कराये। उन्हीं के प्रयत्न का फल था कि समाज का इस ओर ध्यान गया है और कुलीन कहलाने वाले हिन्दुओं में भी विधवा विवाह की प्रथा चल पड़ी। उनने जोर डालकर सरकार से एक कानून भी पास करवाया जिसके अनुसार विधवा विवाह उचित ठहराया गया और विधवाओं तथा उनके बच्चों को भी उत्तराधिकार प्राप्त हुआ। उनके द्वारा किये हुए कार्यों को देखते हुए सरकार ने उन्हें सी. आई. ई. की उपाधि दी।

इन महापुरुष की सादगी विलक्षण थी। एकबार एक युवक थोड़ा सामान लिए स्टेशन पर कुली की प्रतीक्षा कर रहा था, कुली न मिलने से परेशान था। विद्यासागर उधर से निकल रहे थे। उनने युवक की परेशानी का कारण मालूम किया और उसका बोझा सिर पर रखकर उसे यथा, स्थान पहुँचा दिया। युवक पैसे देने लगा तो उनने अपना परिचय दिया और कहा अपना काम आप करने की आदत डालो यही मेरी मजदूरी हैं। युवक बहुत शर्मिन्दा हुआ और क्षमा माँगने लगा।

उनकी आमदनी अच्छी थी पर वे अपने लिए कुछ भी न रखते थे। जो कमाते गरीबों विद्यार्थियों और मुसीबत ग्रस्त लोगों में बाँट देते थे। यह सहायता कार्य वे गुप्त रूप से करते थे ताकि किसी को उनकी प्रशंसा करने या कृतज्ञता प्रकट करने का अवसर न मिले।


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