Quotation

April 1964

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जालंधर-में तुलसी जयन्ती के अवसर पर महाकवि को श्रद्धाँजलि देते हुए पंजाब के राज्यपाल श्री गाडगिल ने रहस्योद्घाटन किया कि अब भगवान, ने निश्चय किया है कि वे अवतार धारण नहीं करेंगे, क्योंकि इतने अवतार होने के बाद भी संसार की स्थिति में कुछ अधिक परिवर्तन नहीं हुआ। अब भगवान प्रतिभाशाली साहित्यकारों और कवियों के रूप में संसार के सम्मुख प्रकट होंगे। तुलसीदास ऐसे ही प्रतिभाशाली कवि थे।

हमें यह भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि सुख पदार्थों में नहीं भावनाओं में सन्निहित है। भावनाओं को जितना ऊँचा उठाया जायगा, जितना परिष्कृत किया जायगा, जितना आदर्शवाद का पुट दिया जायगा उतनी ही आध्यात्मिकता बढ़ेगी और उस अध्यात्मवादी दृष्टि कोण के आधार पर हर वस्तु सुन्दर, सुरम्य एवं आनन्ददायक दृष्टिगोचर होने लगेगी। सूर्य का प्रकाश पड़ने पर हर वस्तु चमकती है। इसी प्रकार अध्यात्मवादी दृष्टिकोण अपनाने वाले के पास जो साधारण वस्तु होगी, जो सामान्य परिस्थितियाँ रहेगी, जो सामान्य श्रेणी के मनुष्य रहेंगे वे सब आनन्ददायक, सन्तोषजनक उत्साहवर्धक एवं शान्ति प्रदान करने वाले परिलक्षित होने लगेंगे।

सहिष्णुता-सुखी जीवन का सम्बल

संसार में अनेक प्रकार के मनुष्य हैं और उनमें सबके स्वभाव, रुचि, प्रकृति आदि अलग-अलग हैं। कई व्यक्तियों के गुण-धर्म एक दूसरे के विरोधी भी होते हैं। फलतः वे बहुधा टकरा जाते हैं और कष्ट भुगतने पड़ते हैं। इस स्थिति को टालने का एक मात्र उपाय हैं-सहिष्णुता। हम सहनशील बने और प्रकृति की प्रतिकूलताएँ एवं मनुष्य की प्रतिकूल भावनाओं को शाँति-पूर्वक सहन करने की आदत डालें तभी हम संसार में सुख-पूर्वक जीवन निर्वाह कर सकते हैं।

हमारे ऋषि-मुनियों ने भी सहिष्णुता को मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य माना है। असहिष्णु व्यक्ति कभी अपनी उन्नति नहीं कर सकता। आध्यात्मिक जीवन की बात छोड़ दें, व्यावहारिक जीवन में भी सहनशील बनने की निताँत आवश्यकता है। इसके बिना हम अपना जीवन सुख-पूर्वक नहीं बिता सकते। प्रकृति भी हमें सहिष्णुता का पाठ पढ़ा रहीं है। गरमी, सर्दी, बरसात का ऋतुएँ, भूख, प्यास, निद्रा आदि के आवेग प्रकृति द्वारा निर्मित किये गये हैं, जिन्हें इच्छा या अनिच्छा से सहन किए बिना हमारा निर्वाह नहीं हो सकता। अतएव हमें इन सब प्रतिकूलताओं को स्वेच्छा से सहन करने की आदत डालनी चाहिए।

जैसा कि ऊपर कहा गया है सब मनुष्यों के आचार-विचार, स्वभाव, रुचि आदि में भेद हुआ करता है। परन्तु आचार-विचारों में मत-भेद होते हुए भी हमें किसी के साथ द्वेष-भाव नहीं रखना चाहिए। हमें यह कभी नहीं सोचना चाहिए कि हमारे ही आचार-विचार सबसे श्रेष्ठ हैं और अन्य सब लोग गलत मार्ग पर जा रहे हैं। इस प्रकार की भावना हमारे अहंकार की सूचक और पोषक कहलायेगी। हमें यह मानकर कि दूसरे व्यक्तियों के विचारों में भी कुछ सचाई हो सकती है, नम्रतापूर्वक उन्हें सहन करने की क्षमता प्राप्त करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त यदि कोई व्यक्ति किसी कारणवश या अज्ञानवश हमें कटु वचन कहता है, गाली-गलोज करता हैं या ताड़ना देता है, तो उसके प्रति क्षमा-भाव दर्शाते हुए उसे हमें सहन करना चाहिए। क्षमा-भाव के उदय से हृदय के भीतर आध्यात्मिक प्रकाश का उदय होता है और जीवन में सुख और शाँति की मात्रा बढ़ती है। जो व्यक्ति यह सोचना हैं कि अमुक व्यक्तियों ने उसका अपमान किया, अनादर किया जा उसको किसी प्रकार कष्ट दिया अतः हमें उसका बदला चुकाना चाहिए, वह व्यक्ति स्वप्न में भी मानसिक शाँति नहीं पा सकता और न आध्यात्मिक मार्ग में ही अग्रसर हो सकता है। जिसमें प्रतिहिंसा की भावना भरी हुई है, जो बदले की भावना के कारण अस्थिर एवं क्षुब्ध हैं, ऐसे विकारग्रस्त हृदय में सच्ची शाँति किस प्रकार रह सकती है?

दुष्ट, दुराचारी, उच्छृंखल, अनाचारी, आतताइयों को सुधारने के लिए प्रयत्न करना आवश्यक है। उनकी उपेक्षा करने या क्षमा करने से वे और भी अधिक उच्छृंखल बन जाते हैं और अपनी सफलता पर मदान्ध होकर आगे अपनी दुष्टता को और भी अधिक बढ़ा सकते हैं, इसलिए उनका प्रतिरोध करने के लिए राजसत्ता, सामाजिक सहयोग अथवा व्यक्तिगत संघर्ष का मार्ग अपनाना पड़ता है। यह कठोर कार्य हाथ में लेते हुए भी रोगी की चिकित्सा करने जैसी उदात्त भावनायें ही मन में रखनी चाहिए। घृणा और द्वेष,पापों से करना चाहिए पापी से नहीं। गन्दगी की सफाई करने जैसे स्वच्छ भाव से भी अनीति का प्रतिरोध किया जा सकता है। इसका उपाय गाँधीजी ने एक व्यापक आन्दोलन के रूप में आरम्भ किया था और इस शक्ति द्वारा उन्हें ब्रिटिश सरकार जैसे शक्ति-शाली शत्रु को परास्त करने में सफलता मिली।

घृणा और शत्रुता के, असहिष्णुता एवं विक्षोभ के भाव जितनी हानि प्रतिपक्षी को पहुँचाते हैं, उससे अधिक अपनी हानि करते हैं। आग जहाँ रहती है पहले उसी को जलाती है। दुर्भाव रखने वाला उससे अधिक हानि उठाता है जितना कि जिसके प्रति दुर्भाव है उसे हानि होती हैं। इसलिए संघर्ष भी यदि आवश्यक हो तो उसे उदारता और सहिष्णुता की भावनायें रखकर ही करना चाहिए।

हम सहिष्णुता से ही आत्मिक उन्नति कर सकते हैं। ईश्वर हमारी परीक्षा लेने के लिए ही प्रतिकूलताओं एवं कठिनाइयों को हमारे सम्मुख उपस्थित करता है। अतः हम प्रतिकूलतायें देखकर घबरायें नहीं वरन् उन्हें हिम्मत के साथ आनन्दपूर्वक सहन करने की आदत डालें। हमें कठिनाइयों के बीच रहने में, उन्हें सहर्ष झेलने में आनन्द आना चाहिए। जो व्यक्ति कष्ट, अपमान, पीड़ा, दुःख, हानि वियोग को हँसते हुए सहन कर सकता है वही सच्चा सहिष्णु है, वही सच्चा आध्यात्मिक है और वही सच्चा ईश्वर परायण है। हमें किसी के दुर्वचनों को सुनकर क्रोध नहीं करना चाहिए। बल्कि उस व्यक्ति का अशाँत एवं दया पात्र समझ कर उस पर क्षमा भाव दर्शाना चाहिए। हम अपने आत्म स्वरूप का विस्मरण न करते हुए मान-अपमान, सुख-दुख, हानि-लाभ और संयोग-वियोग में सदा समबुद्धि रखें और क्रोध को अपना महान शत्रु मानकर उससे अलग रहे तभी हमारा जीवन सुखी हो सकता है। बदला लेने की, प्रतिहिंसा की शक्ति न होने से अनिच्छा पूर्वक सहन कर लेना सच्ची सहिष्णुता नहीं है। यदि मन में प्रतिहिंसा की भावना बनी रही तो हमारी सहिष्णुता, सहिष्णुता नहीं निर्बलता या कायरता ही होगी और प्रतिहिंसा की भावना अन्दर ही अन्दर हमारे चित्त को विषाक्त बना देगी। इस प्रकार विकारयुक्त चित्त में वैरभाव अपना घर बना लेता है, जिसके कारण चित्त की सारी शुभ वृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। यह अटल सत्य है कि हिंसा को प्रतिहिंसा से नष्ट नहीं कर सकते, उसे प्रेम, सहिष्णुता और क्षमा द्वारा ही जीता जा सकता है। जहाँ प्रतिहिंसा घुटने टेक देती है, वहाँ सहिष्णुता, क्षमा और प्रेम सफल होते हैं, यह अनुभवजन्य सत्य है।

सब से खेद और परिताप की बात तो यह है कि जो धर्म हमें प्रेम, सहिष्णुता, दया, क्षमा, करुणा और मैत्री का पाठ पढ़ा रहे हैं, उन्हीं धर्मों को लेकर हम आपस में विरोध, निंदा और घोर असहिष्णुता का वातावरण बनाये हुए हैं। धर्म जो मनुष्य को शाँति प्रदान करने के लिए बनाये गये थे आपस में टकराकर अशाँति के आगार बने हुए हैं। आज पानी में ही आग लगी हुई दिखाई देती है। हम अपने ऊंचे आदर्श से पतन के गहरे गर्त में गिर रहे हैं और वह भी परम पवित्र धर्म के नाम का। कैसी लज्जा-जनक बात है। आज प्रत्येक परिवार, संस्था, संगठन, समाज में असहिष्णुता, दलबन्दी, फूट, ईर्ष्या, द्वेष आदि दुर्गुणों का बोलबाला है, जिससे न केवल हमारा वैयक्तिक, पारिवारिक जीवन ही छिन्न-भिन्न और अशाँत बना हुआ है बल्कि हमारा राष्ट्रीय जीवन भी पामालडडडडड हो गया है। सबके हृदय में, मस्तिष्क में घोर असहिष्णुता का ताँडव चल रहा है, जिसके कारण हमने इस स्वर्गसम वसुन्धरा को घेरकर-कुण्ड बना रखा है और सब से बड़ा आश्चर्य तो यह है कि असहिष्णुता के इन दुष्परिणामों को देखते हुए भी हमारी आंखें अब तक नहीं खुल पा रही हैं। हम यह जरा भी नहीं सोचते कि यह क्षण भंगुर, नश्वर देह क्या इसी कलह और ईर्ष्या की अग्नि में जलाने के लिए है? क्या इस देवदुर्लभ मानुष तन को जो अनेक पूर्व जन्मों के पुण्य से प्राप्त हुआ है, इन्हीं क्षुद्र बखेड़ों में लगाकर सारा जीवन अशाँति में ही व्यतीत करें? क्यों हम जीवन की इस अमूल्य निधि का यह दुरुपयोग कर रहे हैं? क्यों हम आनंदमय संसार को, इस प्रेम के नन्दनवन को असहिष्णुता की ज्वाला से जलाकर खाक कर रहे हैं?

सहिष्णुता का ही दूसरा नाम तप है। यदि कोई प्रशंसा करे तो फूलकर कुप्पा न होना और यदि कोई गालियाँ दे तो गुस्से से लाल न हो जाना, दोनों अवस्थाओं में एक समान रहना, यह है सच्ची सहिष्णुता। जिसमें यह सहनशक्ति होती है, उसके जीवन में एक अनोखी मिठास, अपूर्व शाँति, अद्भुत सन्तोष और एक दिव्य अनुभूति का संचार होता है। सहन-शीलता में वह जादू की शक्ति है कि वह बुरे से बुरे व्यक्तियों को बदल देती है। महात्मा सुकरात का नाम तो आप ने सुना ही होगा। बड़े ऊँचे दर्जे के सन्त पुरुष थे वे, परन्तु दुर्भाग्य से उनका विवाह एक ऐसी स्त्री के साथ हो गया जो बड़ी ताड़का थी। सदैव क्रुद्ध रहती थी। बिना गाली कभी सीधे मुँह से बात नहीं करती थीं। सुकरात के शिष्यों ने कई बार कहा-’गुरुजी। यह कैसा संकट आपने पल्ले बाँध रखा है, इसे छोड़िये। हम आपका दूसरा विवाह करा देते हैं।” सन्त सुकरात कहते-”नहीं, ऐसी बात अब भूल कर भी मत कहना। यह मेरी परीक्षा का साधन है। यह मेरी सहिष्णुता की परीक्षा है कि मैंने क्रोध पर विजय पाई या नहीं?”

स्वाध्याय-सन्दोह-

आपत्तियों से डरिये नहीं-लड़िये

कठिनाइयों से लड़ने का अभ्यास कीजिये

मनुष्य का विकास सदा कठिनाइयों से लड़ते रहने से होता है। जो व्यक्ति कठिनाइयों से जितना ही भागता है, वह अपने आपको उतना ही निकम्मा बनाता है और जो उन्हें जितना ही आमन्त्रित करता है वह अपने आपको उतना योग्य बनाता है। मनुष्य के जीवन में सफलता उसकी इच्छा-शक्ति के बल पर निर्भर करती है। जो व्यक्ति जितना ही यह बल रखता है वह उतना ही सफल होता है। जिस व्यक्ति को कठिनाइयों से लड़ने का अभ्यास होता है, वह नई कठिनाइयों के आने पर उनसे भयभीत नहीं होता, वरन् जम कर उनका सामना करता है। कायरता की मनोवृत्ति ही मनुष्य के अधिक दुःखों का कारण होती है। निर्बल मन का व्यक्ति सदा बुरी कल्पनायें अपने मन में लाया करता है। वह अपने आपको चारों और आपत्तियों से ही घिरा पाता है। अतएव जीवन को सुखी बनाने का सर्वोत्तम उपाय कठिनाइयों का सामना करने को सदा तत्पर रहना ही है।

मनुष्य की कठिनाइयाँ दो प्रकार की होती हैं-एक बाहरी और दूसरी आभ्यन्तरिक अर्थात् भीतरी। साधारण मनुष्य की दृष्टि बाहरी कठिनाइयों की ओर ही जाती है, विरले ही मनुष्य की दृष्टि भीतरी कठिनाइयों को देखने की क्षमता रखती है। परन्तु वास्तव में मनुष्य की सच्ची कठिनाइयाँ आन्तरिक ही होती है, बाहरी तो आन्तरिक कठिनाइयों का आरोपण मात्र हैं। किसी भी प्रकार की परिस्थिति मनुष्य को लाभ अथवा हानि दोनों पहुँचाने की शक्ति रखती हैं। जो परिस्थिति मनुष्य को भयभीत करती है वही वास्तव में उसकी हानि करती है। यदि परिस्थिति कठिन हुई और उससे मनुष्य भयभीत न हुआ तो वह मनुष्य की हानि न करके लाभ ही करती है।

जिस व्यक्ति को अपने कर्तव्य पर पूरी श्रद्धा होती है और जो उसे पूरा करने के लिये सब कुछ करने को तैयार रहता है, उसे कोई भी परिस्थिति भयभीत नहीं करती। मनुष्य के मन में अपार शक्ति है। वह जितनी शक्ति की आवश्यकता अनुभव करता है उतनी शक्ति उसे अपने ही भीतर मिल जाती है।

-मनोविज्ञान और जीवन

हर समस्या हल हो सकती है

विचारों की शक्ति से ही संसार के सब काम होते हैं। यह जगत भी विचार से ही उत्पन्न हुआ है। जिस वस्तु से यह संसार बना है वह भी विचार ही है, जिसे वस्तु का जामा पहना दिया गया है। मनुष्य की सब सिद्धियाँ पहले विचार में आई और फिर वस्तु रूप में प्रकट हुई। ईश्वरीय कानून के आधार पर व्यवस्था के साथ जब विचारों का प्रयोग होता है तो रचनात्मक काम होते है, और उनसे हमको लाभ पहुँचता है किन्तु जब इनका दुरुपयोग होता है तो उनसे हमारा विनाश होता है और हमको हानि पहुँचती है।

ऐसी कोई कठिनाई नहीं है, चाहे वह कितनी ही बड़ी क्यों न हो, जिसे दृढ़ विचारों के सामने झुकना न पड़े और ऐसा कोई व्यावहारिक विषय नहीं है जो बुद्धि और आत्मिक बल से सफल न बनाया जा सके। जब आप बहुत गहराई के साथ और ध्यानपूर्वक अपने हृदय की परख करते हैं और काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि उसके चारों और घूमने वाले शत्रुओं को अपने वश में करते हैं तब कहीं आप विचारों की शक्ति को समझ पाते हैं। उस समय आपको मालूम होता है कि इन विचारों में जादू-सा कितना बल हैं और इसका प्रभाव अनिवार्य रूप से हमारी बाहरी अन्य बातों पर कितना पड़ता है? उस समय आपको यह बात समझ में आ जाती है कि यदि इन विचारों का उचित उपयोग किया जाय तो जीवन में परिवर्तन हो सकता है और उसे सुखी बनाया जा सकता है।

-’नर से नारायण’

जीवन में दुःखों का भी उपयोग है

हम दुःख से छुटकारा पाने का उपाय करें इसमें तो कोई बुराई नहीं, परन्तु दुःख का नाम लेते ही अधीर हो जाना, आपत्ति के आने पर कि कर्तव्य विमूढ़ होकर दूसरों पर अकारण दोषारोपण करना आदि ऐसी बातें हैं जिन पर हमको अवश्य विचार करना चाहिये। दुःख सर्वथा घृणास्पद ही है अथवा उसमें कई अंश भले भी मौजूद हैं, उसमें मनुष्य जाति का अहितसाधन करने के सिवाय कुछ अच्छाई भी है या नहीं, इस विषय में हमको विवेक-पूर्वक विचार करना चाहिये।

दुःख के परिणामों की ओर दृष्टि डालने से जान पड़ेगा कि वह कई अंशों में मनुष्य का शिक्षक और उन्नति का मार्गदर्शक है। शूरता और धैर्य की शिक्षा तो आपातकाल में ही प्राप्त हो सकती है। जिस मनुष्य ने बाल्यावस्था से ही आपत्तियाँ सहन की हो उसका अनुभव बहुत विस्तीर्ण हो जाता है। इसके विपरीत जन्म से ही लाड़-प्यार और सुख में रहने वाला मनुष्य प्रायः डरपोक हो जाता है। दुःख का नाम सुनते ही उसका चित्त व्यथित हो जाता है। इतिहास में सैंकड़ों दृष्टान्त ऐसे मिलेंगे जिनमें कि आपत्ति उठाने वाले मनुष्यों ने अपने अनुभव के सहारे बहुत कुछ कर दिखाया है।

-’जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्न’

धैर्यवान पुरुष संकटों की परवा नहीं करते

जीवन को सुख के साथ व्यतीत करने के लिये ही नहीं बल्कि अपने कर्तव्य कर्मों को उचित रीति से सम्पादन करके सफलता प्राप्त करने के लिये भी धैर्य की आवश्यकता होती है। कर्तव्य पथ में विघ्न आ जाने पर डरपोक मनुष्य लोगों की अप्रसन्नता का खयाल करके आगा-पीछा करने लगता है। किसी काम का निश्चय कर लेने के बाद यदि कभी उसे ऐसी आशंका होती है कि इस काम के करने से मेरी लोक-प्रियता नष्ट हो जायगी, या धन की हानि हो जायगी, अथवा किसी बड़े श्रीमान या अधिकारी का कोपभाजन होना पड़ेगा तो वह तुरन्त डर कर उससे पीछे पैर हटा लेता है। पर वास्तव में ऐसे ही समय पर नीतिमत्ता और सिद्धाँत-प्रियता की परीक्षा हुआ करती है। ऐसे अवसर पर धैर्यवान पुरुष संकटों की परवाह न करके अपने सिद्धान्तों की रक्षा करता है और अपने विवेक के आदेश के सम्मुख किसी की अन्याय युक्त आज्ञा को स्वीकार नहीं करता है। जब अच्छी तरह सोच विचार कर एक बार किसी कार्य का निश्चय कर लेता है, तो फिर चाहे उसके मार्ग में कितने ही विघ्न आवें वह अपने मार्ग से इधर-उधर नहीं हटता। वह अपने निज के तथा ईश्वर के भरोसे सब विघ्न बाधाओं को तिनके के समान तुच्छ समझता हैं। ऐसे दृढ़, धैर्यशाली उच्चकोटि के पुरुषों को लक्ष्य करके ही भर्तृहरि ने कहा है-”न्यायात्पयः प्रविचलन्ति पदं न धीरः।” ऐसे ही नीति धर्मयुक्त कर्तव्य पथ पर स्थिर रहने वाले सज्जन पुरुषों की कीर्ति सर्वत्र व्याप्त होती है और सर्व-साधारण उसे विश्वास की दृष्टि से देखने लगते हैं। यही साँसारिक सफलताओं का रहस्य है। विशेषकर जो व्यक्ति सार्वजनिक क्षेत्र में काम करते है और जनता को किसी उच्च-आदर्श के पीछे अग्रसर करना चाहते है, उनको इसके बिना कदापि सफलता प्राप्त नहीं हो सकती।

-’जीवन संग्राम’

दृढ़ निश्चय का सत्परिणाम

महाकवि कालिदास ने एक स्थान पर लिखा है कि “इस वस्तु की प्राप्ति के लिये दृढ़ संकल्प करने वाले मन को और नीचे की तरफ बहने वाले जल की चाल को कौन रोक सकता है?” निस्सन्देह जो मनुष्य आत्म-विश्वास की शक्ति के आधार पर किसी काम में हाथ लगाता है उसे सफलता अवश्य होती है। ऐसा मनुष्य न तो दूसरों के उपहास की परवा करता है, न अपने शत्रुओं से भयभीत होता है और न मित्रों के साथ छोड़ देने से घबड़ाता है। उसे अपने मार्ग से कोई विचलित नहीं कर सकता।

यह देखकर आश्चर्य होता है कि दृढ़प्रतिज्ञ मनुष्य के लिये संसार में कैसी सुगमता से मार्ग निकल आता हैं और पक्के निश्चय वाले के सामने से समस्त कठिनाइयाँ किस प्रकार गायब हो जाती हैं। जो मनुष्य पहले ही यह कल्पना करने लगता है कि मैं इस काम को नहीं कर सकता वह उस काम को वास्तव में कभी न कर सकेगा। पर उस दृढ़ मनुष्य को कौन परस्त कर सकता है जिसको अपने ऊपर पूरा भरोसा है और जो किसी उपहास अथवा विपरीत मत प्रकट करने की कुछ भी परवा नहीं करता। उसको अपने इष्ट मार्ग पर चलने से न तो निर्धनता रोक सकती है, न विपत्ति हतोत्साह कर सकती है, न कठिनाई विचलित कर सकती है। वह अपनी दृष्टि सदा अपने लक्ष्य पर रखता है और निरन्तर उसकी और बढ़ता चला जाता है।

-’सफलता का मार्ग’

शक्तियों का अपव्यय रोका जाय

शक्तियों के अपव्यय को रोकने से उनका संग्रह होता है और वह संचय बढ़ते-बढ़ते कुछ ही समय में समृद्धि का रूप धारण कर लेता है। उन्नतिशील लोगों के कार्य-क्षेत्र भिन्न-भिन्न भले ही रहे हो पर तरीका सभी ने एक ही अपनाया है- अपनी क्षमता को दुरुपयोग से बचाकर सदुपयोग में लगाना। उस मंत्र की साधना को जो कोई भी कर सकेगा उसे सिद्धियाँ मिले बिना रहेंगी नहीं। लक्ष्य भौतिक हो चाहे आध्यात्मिक तरीका यही अपनाना पड़ता है। जिन्हें भौतिक प्रगति अभीष्ट है वे अपनी भौतिक क्षमताओं का अपव्यय रोक कर उस कार्य में संलग्न करते हैं जिससे लाभ होने की आशा हो। इसी प्रकार आध्यात्मिक लक्ष्य वाले व्यक्ति निरन्तर यह ध्यान रखते हैं कि उनकी सामर्थ्य का प्रतिकूल दिशा में तनिक भी प्रयोग हो रहा हो तो उसे रोक कर अभीष्ट मार्ग पर लगाये जाने में पूरी-पूरी सावधानी बरती जाय।

संसार के प्रगतिशील देशों ने जो भौतिक प्रगति की है उसमें किसी देवता का वरदान नहीं वरन् उनकी यह सतर्कता ही प्रधान कारण बनी हुई है कि अपनी सामर्थ्य का उचित उपयोग किया जाय। इन सतर्कताओं से समय का सदुपयोग, धन का सदुपयोग, वाणी का सदुपयोग, विचारों का सदुपयोग व्यवहार का सदुपयोग, इन्द्रियों का सदुपयोग, भावनाओं का सदुपयोग, आदि का जिनने जितना ध्यान रखा है उन्हें उतनी ही मात्रा में प्रगति के पथ पर बढ़ चलने में, सफलता प्राप्त कर सकने में सुविधा हुई है।

समय को ही लीजिए वह मनुष्य की सबसे बड़ी सम्पत्ति है। समय का उपयोग जिस दिशा में भी किया जाय उसी में आशातीत प्रगति होने लगती है। हम भारतवासी अपने समय में से एक चौथाई का भी सदुपयोग मुश्किल से कर पाते हैं, शेष तीन चौथाई आलस्य, प्रमाद, मटरगस्ती ओर फूहड़ ढंग से काम करने में बर्बाद होता रहता है। लोग समझते यह हैं कि हम सारे दिन काम में लगे रहते हैं, हमें फुरसत नहीं मिलती, पर जब यह जाँचा जाता है कि उनने इतने व्यस्त रहकर भी कितना काम कर लिया तो परिणाम बहुत ही स्वल्प और निराशाजनक दीखता है। व्यवस्था, कार्य-विभाजन, नियमितता के आधार पर पूरी दिलचस्पी एवं मनोयोग के साथ जो कार्य किये जाते हैं वे थोड़े समय में अधिक मात्रा में एवं उत्तम स्तर के बन पड़ते है। पर जो भार ढोने की तरह अधूरे मन से, अस्त-व्यस्त क्रम के साथ किये जाते हैं, उनमें सारा दिन गुजार देने पर भी प्रतिफल बहुत ही स्वल्प और घटिया स्तर का सामने आता है।

आमतौर से आजीविकोपार्जन में आठ घण्टे लगते हैं। आठ घण्टे सोने आराम के लिए निकाल दें तो शेष आठ घण्टे ऐसे बच जाते हैं जिनकी बर्बादी रोक कर यदि उन्हें व्यवस्थित कर लिया जाय तो एक नया जीवन किसी भी उन्नति के लिए मिल सकता है। आठ घण्टे के परिश्रम में आमतौर से रोजी रोटी की इतनी बड़ी समस्या जिस पर जीवन का सारा दारोमदार निर्भर रहता है हल हो सकती है तो सोने के बाद बचे हुए आठ घण्टे में किसी भी दिशा में आशाजनक प्रगति की जा सकती है। संसार में सभी उन्नतिशील लोगों ने इस बचे हुए समय का शिक्षा, स्वास्थ्य, उपासना, परमार्थ कला आदि की साधना में उपयोग किया है, और इतना लाभ उठाया है जितना सामान्य व्यक्ति पूरे समय उसी कार्य में लगे रहने पर उठा सकते है।

समय का मूल्य और महत्व ठीक तरह न समझने के कारण हम उसका सदुपयोग नहीं कर पाते। घड़ी तो कितने ही व्यक्ति बाँधे फिरते हैं पर एक-एक मिनट का कार्य-विभाजन और सदुपयोग करने वाले लोग उनमें से बहुत ही कम होते हैं। घड़ी का वास्तविक लाभ वही उठाता है जो अपने एक-एक क्षण का सदुपयोग करने की व्यवस्था ठीक रखने के लिए घण्टे मिनटों पर ध्यान रखे रहता है। आलस्य और प्रमाद ही हमारे दारिद्र और पतन का प्रमुख कारण हैं। जब तक उन्हें न छोड़ा जायगा, श्रमशीलता, फुर्ती, नियमितता, समय ही पाबन्दी अपने काम में पूरी दिलचस्पी रखने की आदत हम न डालेंगे तब तक इसी हीन दिशा में पड़ा रहना पड़ेगा। व्यवस्थित पुरुषार्थ ही भौतिक जीवन की समस्त सफलताओं का प्रधान कारण है। इसी देवता का अनुष्ठान करने से लोग तुच्छ परिस्थितियों से ऊँचे उठकर महानता का गौरव प्राप्त करने से समर्थ हुए हैं। हमें अपने समाज और देश को सुखी, सम्पन्न और समृद्ध बनाना, हो तो इन सद्गुणों को जन-जीवन में प्रवेश कराना पड़ेगा। धन सम्पत्ति आमदनी या सुख साधन किसी अन्य प्रकार से बढ़ जाने पर भी समय को गँवाते रहने वाले प्रमादी लोग दीन दरिद्र ही बने रहेंगे। उनकी बढ़ी हुई आमदनी निरर्थक अपव्यय में ही नष्ट होती रहेगी।

समय के सदुपयोग की भाँति ही धन का सदुपयोग अपना महत्व रखता है। धन कमाना कितने ही लोग जानते है पर उसका खर्च करना किन्हीं विरलों को ही आता है। जो पैसा स्वास्थ्य संवर्धन के उपयुक्त सात्विक आहार-बिहार की व्यवस्था में, मानसिक विकास के लिए न संवर्धन में, परिवार को प्रगतिशील बनाने के साधन जुटाने में, लोकहित के परमार्थकारी सत्कर्मों में खर्च किया जाना चाहिए, वह नशेबाजी, सिनेमा, शौकीनों, यारबाशी, फैशन एवं विलासिता के ठाठ-बाठ जमा करने जैसी निकम्मी बातों में बर्बाद होता रहता है। उपयोगी कार्य रुक जाते है। और निरर्थक बेहूदगियाँ सारा पैसा खा जाती हैं। आर्थिक तंगी, कर्जदारी बेहूदगियाँ सारा पैसा खा जाती हैं। आर्थिक तंगी, कर्जदारी के कष्ट से हमारा सारा समाज कराह रहा है इसका प्रधान कारण भी एक ही है खर्च का क्रम आमदनी के अनुरूप सन्तुलित न रखना। गरीब और कम आमदनी के अनुरूप सन्तुलित न रखना। गरीब और कम आमदनी वाले व्यक्ति भी जब तथा कथित ‘स्टेंडर्ड’ बनाने के फेर में न पड़कर अपनी औकात और हैसियत के अनुसार केवल उपयोगिता के लिए ही खर्च करने की नीति बना लेते हैं और अपव्यय की मूर्खता करना छोड़ देते हैं तो सीमित साधनों से भी उन्हें व्यवस्थित जीवन का आनन्द मिलने लगता है।

आर्थिक उन्नति के जितने भी महत्वपूर्ण उपाय हो सकते हैं उनमें सबसे प्रभावशाली यह है कि हर व्यक्ति पैसे का महत्व समझे और उसे केवल सदुद्देश्य के लिए, सद्व्यय करने की नीति का कठोरतापूर्वक पालन करने लगे। बेकार कामों में होने वाली धन की बर्बादी के लिए रोका जा सके और उसे जीवन विकास के कार्यों में विवेकपूर्वक प्रयुक्त किया जा सके तो वर्तमान आमदनी से भी हमें विकसित जीवन का लाभ मिल सकता है। यदि हमें अपने समाज को धनी बनाना हो तो कृषि, उद्योग, शिल्प, वाणिज्य आदि का संवर्धन करने के साथ ही यह और भी नितान्त आवश्यक है कि हर व्यक्ति के स्वभाव में मितव्ययिता और धन के सदुपयोग की बात गहराई तक बिठा दी जाय।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118