अध्यात्म और प्रेम

April 1964

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“अध्यात्म में प्रेम का प्रमुख स्थान है पर यह प्रेम देश के प्रति, देश-वासियों के प्रति, देश के गौरव, उसकी महानता और जाति के सुख, दैवी आनन्द का, या अपने देशवासियों के प्रति आत्म-बलि देने, उसके कष्ट निवारण के लिए स्वयं कष्ट सहन करने, देश की स्वतन्त्रता के लिए अपना रक्त बहाने, जाति के जनकों के साथ-साथ मृत्यु का आलिंगन करने में, आनन्द की अनुभूति करने का हो। व्यक्तिगत सुख का प्रेम नहीं। मातृ-भूमि के स्पर्श से शरीर के पुलकित होने का आनन्द हो और हिन्द महासागर से जो हवायें बहती हैं, उनके स्पर्श से भी वहीं अनुभूति हो। भारतीय पर्वत माला से बहने वाली नदियों से भी वही सुख प्राप्त हो। भारतीय भाषा, संगीत , कविता, परिचित दृश्य, स्रोत, आदतें, वेश-भूषा जीवनक्रम आदि भौतिक प्रेम के मूल हैं। अपने अतीत के प्रति गर्व, वर्तमान के प्रति दुःख और भविष्य के प्रति अनुराग उसकी शाखायें हैं। आत्माहुति और आत्म-विस्मृति, महान सेवा, और देश के लिए महान सेवा, और देश के लिए अपार सहन शक्ति उसके फल हैं। और जो इसे जीवित रखता है, वह है देश में भगवान की, मातृ-भूमि की अनुभूति, माँ का दर्शन, माँ का ज्ञान, और उसका निरन्तर ध्यान एवं माँ की स्तुति तथा सेवा।”

-योगी अरविन्द


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