चान्द्रायणव्रत द्वारा शरीर-शोधन

April 1964

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गायत्री की उच्चस्तरीय साधन में चान्द्रायणव्रत का महत्व विशेष रूप से माना गया है। यों साधारण अनुष्ठानों में भी किसी-न-किसी रूप में उपवास तो करना ही होता है। फल, दूध पर जो लोग नहीं रह सकते, वे शाकाहार से काम चलाते हैं। जो अन्न लेते हैं वे भी अस्वाद व्रत निवाहते है या फिर इतना भी न बन पड़े तो एक समय एक अन्न और एक शाक लेकर आधा उपवास तो कर ही लेते हैं। उपवास भी अनुष्ठान के साथ चलने वाले आवश्यक नियमों में से एक माना गया है। चान्द्रायण व्रत इसका और भी परिष्कृत रूप है। उसमें रहने वाली अन्य अगणित विशेषताओं के कारण ऋषियों ने इस महाव्रत को ‘तप’ कहा है। तपश्चर्या के साथ की गई गायत्री उपासना का विशेष परिणाम होना ही चाहिए। शास्त्रकारों ने वर्तमान युग की स्थिति को देखते हुए अन्य युगों की कठोर तपश्चर्याओं का निषेध करते हुए वर्तमान काल के उपयुक्त तपों में चान्द्रायण को ही सर्वश्रेष्ठ माना है।

शरीर-शोधन की दृष्टि से चान्द्रायणव्रत एक बहुत ही प्रखर वैज्ञानिक पद्धति है। प्राकृतिक-चिकित्सा-विज्ञान के प्रमुख सिद्धान्तों का उसमें भली प्रकार समावेश हो गया है। चिकित्सा-पद्धतियों में सबसे निर्दोष और रोगों की जड़ को काट डालने वाली प्राकृतिक-चिकित्सा ही है। उस पद्धति में उपवास और एनीमा यह दो प्रधान आधार हैं। उपवास में पाचन यन्त्रों को विश्राम मिलने से उन्हें पुनः नवजीवन प्राप्त करके तत्परतापूर्वक अपना काम करने की क्षमता उपलब्ध करने का अवसर मिलता है। एनीमा से मलाशय में भरी हुई सड़न और सूखी मल ग्रन्थियों की सफाई करके उदर को निर्मल बनाने की प्रक्रिया सम्पन्न होती है। पेट में भरी हुई अम्लता, सड़न दूषित वायु एवं विषाक्तता ही शरीर के विभिन्न अंगों में दीख पड़ने वाले, अगणित रोगों की एक मात्र कारण होती है। प्राकृतिक चिकित्सा में पेट की सफाई करके उसे निर्मल बनाने और उपवास द्वारा विश्राम देकर उसे पुनः सशक्त बनाने का जो प्रयत्न किया जाता है उससे निस्संदेह अनेक नये-पुराने रोगों की निवृत्ति में जादू की तरह लाभ होता है। यों कटि-स्नान, मिट्टी की पट्टी सूर्य स्नान, आलिस आदि उपचार भी प्राकृतिक-चिकित्सा में काम आते हैं, पर उन सब का लाभ उपरोक्त दो प्रधान प्रयोगों की तुलना में नाममात्र का ही है। तीन-चौथाई लाभ तो उपवास और एनीमा के दो प्रयोगों में ही हो जाता है। अन्य सब उपचार मिलकर एक-चौथाई लाभ भी मुश्किल में पहुँचा पाते हैं।

उपवास हर व्यक्ति से एक जैसा नहीं कराया जा सकता। उसकी शारीरिक और मानसिक स्थितियों ध्यान में रखकर यह निर्णय करना पड़ता है कि उपवास कितने दिन का और किस प्रकार कराया जाय। सब रोगियों को एक लाठी से नहीं हाँका जा सकता। यदि इस निर्णय में गलती हो तो उसका उलटा प्रभाव भी हो सकता है। कई बार लम्बे उपवास यदि अवैज्ञानिक विधि से किए जायं तो पेट में पड़ा हुआ मल गांठें बनकर आँतों में अटक जाता है और मनुष्य के लिये एक नया संकट उत्पन्न कर देता है। रूढ़िवादी लोग बिना पानी पीये उपवास करते हैं और उससे अपने स्वास्थ्य के लिए खतरा खड़ा कर लेते हैं। औषधि सेवन की तरह उपवास भी एक विज्ञान है। इसलिए उसका प्रयोग भी अन्धा-धुन्ध नहीं वरन् वैज्ञानिक आधार पर ही करना चाहिए। लम्बे उपवास शरीर-शोधन के लिए बड़े उपयोगी सिद्ध होते हैं पर वह उपयोगिता इस बात पर निर्भर है कि उसे शरीर-विज्ञान के नियमोपनियमों को ध्यान में रखते हुए किया गया है या नहीं?

चान्द्रायणव्रत एक ऐसी वैज्ञानिक-पद्धति है जिसमें उपवास सम्बन्धी सभी नियमों और सावधानियों का भली प्रकार ध्यान रखा गया है। धीरे-धीरे भोजन की मात्रा घटाने और धीरे-धीरे बढ़ाने से स्वास्थ्य को झटका नहीं लगता और किसी खतरे की संभावना नहीं रहती। फिर भी अमावस्या से चार-पाँच दिन पहले और पीछे करीब दस दिन की अवधि ऐसी होती है जिसमें आहार बहुत स्वल्प रह जाता है और उलटी, अनिद्रा, दाह, पेशाब पीला होना पेट में जलन, आँखों के आगे अंधेरा, शरीर में कंपकंपी जैसे उपद्रव खड़े होने लगते हैं। उस स्थिति में दुराग्रह से काम लेना उचित नहीं होता वरन् फलों का रस, शाकों का रस, दूध, छाछ आदि प्रवाही पदार्थ देने की अतिरिक्त व्यवस्था कर देना उचित रहता है। अन्य दिनों में भी आहार घटने के साथ-साथ इन प्रवाही वस्तुओं की संतुलित मात्रा देनी आरम्भ कर देनी चाहिए।

शास्त्रों में चान्द्रायण-व्रत के समय एनीमा देने का विधान भले ही न हो पर आज के दुर्बल स्वास्थ्यों को देखते हुए उसकी भी अनिवार्य आवश्यकता है। आहार घटने पर पेट में दबाव कम रह जाता है और टट्टी उतरने में अड़चन पड़ती है। ऐसी दशा में बीच में दस दिनों में एक दिन छोड़कर या नित्यप्रति एनीमा का प्रयोग करते रहना चाहिए। आदि के दस दिन और अन्त के दस दिनों में शौच साधारण रीति से होने लगता है पर उन दिनों भी पेट की सफाई की दृष्टि से सप्ताह में दो बार एनीमा देकर आंतों को स्वच्छ बनाने का प्रयत्न जारी रखना चाहिए।

पुरानी-पद्धति के अनुसार पूर्णिमा के दिन आहार में जितना अन्न खाया गया हो उसे तोल कर उसी का पन्द्रहवाँ अंश प्रतिदिन घटाना चाहिए। इस विचार में प्रधानतया अन्न का ही उल्लेख है। पर प्राकृतिक चिकित्सा की दृष्टि से लम्बे उपवासों में फल,शाक, दूध, दही जैसी वस्तुओं का ही प्रयोग होना चाहिए। अन्न खाना हो तो वह स्वल्प मात्रा में ही रहे। प्राचीन काल में कुछ भी नियम रहा हो आज मनुष्यों की जो शारीरिक स्थिति है और प्राकृतिक-चिकित्सा शास्त्र जिन तथ्यों का प्रतिपादन करता है उन्हें देखते हुए यह उचित है कि शाक, फल, दूध, दही का आहार लिया जाय और उन्हीं को क्रमशः घटाया जाय। इस घटोत्तरी की अवधि में जल का अंश कम न होने पावे वरन् कुछ बढ़ ही जाय, इसका ध्यान रखना चाहिए। जल के साथ नींबू नमक या नींबू शहद की मिलावट बार-बार की जाती रहे तो इससे उपवास की सफलता में सहायता हो मिलती है।

अन्धाधुन्ध चाँद्रायणव्रत जिसमें अन्नाहार को पन्द्रहवाँ भाग घटाते-बढ़ाते चलना ही नियम माना जाता, जल का प्रयोग कम ही होता है और मल-शोधन पर कोई ध्यान नहीं जाता, अवैज्ञानिक है। उससे उलटी हानि होने का, पाचन-प्रणाली बिगड़ जाने का खतरा रहता है। इसलिए आत्म-कल्याण, उपासना एवं तपश्चर्या की दृष्टि से भी जिन्हें यह साधना करनी हो उन्हें भी आरोग्य-शास्त्र की मर्यादाओं को ध्यान में रखते हुए ही उसे सम्पन्न करना चाहिए और इस दृष्टि से नियमों में कुछ हेर-फेर करना हो तो बिना किसी ननुनच के उसे कर ही लेना चाहिए।

प्राकृतिक चिकित्सा के द्वारा अपने और अपने परिवार की स्वास्थ्य-रक्षा का प्रयोग हम चिरकाल से करते रहे हैं। गत दो-तीन वर्षों से गायत्री-तपोभूमि का उसका अन्य रोगियों पर भी प्रयोग चल रहा है। इन दिनों तीन-चार सौ रोगियों की चिकित्सा करने का अवसर मिला है। इस अवधि में वैज्ञानिक विधि से चान्द्रायणव्रत कराते हुए जितना लाभ रोगियों को दिया गया है उसे देखते हुए हमारी सुनिश्चित धारणा यह बन गई है कि शरीर-शोधन की यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण पद्धति है। अलग-अलग प्रकार के रोगों में एक ही चिकित्सा करने की यह एक अनुपम प्रणाली सिद्ध हुई है। गलित कुष्ठ, हृदय की धड़कन, रक्त पित्त, अनिद्रा, रक्तचाप, शिरशूल, वायु गोला, पथरी, गुर्दे का दर्द, जैसे कठिन रोगों में चान्द्रायणव्रत के माध्यम से की हुई चिकित्सा द्वारा आशाजनक लाभ पहुँचा है। सामान्य रोगों में होने वाले लाभों को तो आश्चर्यजनक ही कहा जा सकता है।

इस महाव्रत के साथ-साथ व्रत करने वाले के शारीरिक कष्टों को देखते हुए कटि-स्नान, मेहन-स्नान, मालिश, मिट्टी का उपचार, सूर्य, किरणों का प्रयोग आदि अन्य विधानों को भी काम में लाया जाय और जहाँ आवश्यकता हो निर्दोष जड़ी-बूटियों का भी सेवन कराया जाय तो उससे रोगों की निवृत्ति एवं शरीर-शोधन की प्रक्रिया और भी प्रभावशाली हो जाती है। तब चान्द्रायण साधारण व्रत उपवास न रहकर शरीर-शोधन का एक प्रभावशाली माध्यम भी बन जाता है। आहार के घटाने-बढ़ाने के क्रम में दूध कल्प, छाछ-कल्प, फल-कल्प, शाक-कल्प आदि विविध प्रकार के कल्प भी कराये जा सकते हैं और उससे चान्द्रायणव्रत सोने में सुगन्ध बन सकता है। ऐसा हमने अपने इन तीन वर्षों के अनुभव से सुनिश्चित निष्कर्ष निकाला है।

जिन्हें प्रत्यक्षतः कोई भी रोग नहीं दीखता किन्तु शारीरिक प्रगति मन्द हो रही है, दुर्बलता घेरे रहती है, उस आयु में जितनी सशक्तता रहनी चाहिए वह नहीं दिखाई देती, थोड़े ही श्रम में अधिक थकान आती है तो समझना चाहिए कि चिकित्सक की दृष्टि में कोई रोग विशेष भले ही न हो पर प्रगति का द्वार अवरुद्ध करने वाली अशक्तता अवश्य बनी हुई है। इसी कारण असमय में बुढ़ापा आ घेरता है और इन्द्रियाँ समय से पहले जवाब देने लगती हैं। आँखों से कम दीखना, दांतों का कमजोर होना, स्मरण-शक्ति की कमी, खुलकर भूख न लगना, दस्त साफ न होना बुरे सपने दीखना, कामोत्तेजना की शिथिलता आदि अशक्तता के चिह्न जिनमें मौजूद हैं उन्हें निरोग नहीं कहा जा सकता है। इन लक्षणों वाले व्यक्तियों के भीतरी अवयव शिथिल पड़े होते हैं, रक्त समुचित मात्रा में नहीं बनता और चेहरे मुर्झाये हुए बने रहते हैं, आलस्य घेरे रहता है और थोड़ा-सा श्रम करने में बुरी तरह थकान अनुभव होने लगती है। ऐसे शरीरों को जीवित होते हुए भी अर्ध-मृतक माना जाता है। आधी चौथाई शक्ति का उत्पादन होने से वे काम भी एक बलिष्ठ मनुष्य की तुलना में आधा चौथाई ही कर पाते हैं।

ऐसे लोगों के लिए भी शरीर-शोधन की दृष्टि से चान्द्रायणव्रत बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है। विधिपूर्वक किया हुआ उपवास काया-कल्प की तरह उपयोगी सिद्ध होता है। अज्ञात वास की एक वर्ष साधना के समय सन 61 में हमने शाकाहार पर उपवास दिया था उसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण को प्रधानता दी गई। उस अवधि में घी तो दर्शन को भी न था, दूध भी कभी-कभी ही मिला था, फिर भी उससे 20 पौण्ड वजन बढ़ गया और शरीर में नई स्फूर्ति एवं कान्ति आदि दीखने लगी। यों छोटे-बड़े उपवास हम समय-समय पर जीवन भर करते रहे हैं पर उनमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण न था। आरोग्य-शास्त्र के नियमों को ध्यान में रखकर एक वर्ष का उपवास हमारे जीवन में एक कायाकल्प जैसा वरदान सिद्ध हुआ है। इसलिए भी और तीन वर्षों में प्राकृतिक चिकित्सा विधि से अनेक रोगियों की चिकित्सा में सफलता प्राप्त करने में उपलब्ध हुए अनुभवों के आधार पर भी हमें यह प्रतीत हुआ कि उपवास शरीर- शोधन का एक श्रेष्ठ उपाय है। आरम्भ में कुछ वजन जरूर घट जाता है पर पीछे उसकी पूर्ति तेजी से होती है। बीमारियों और विभिन्न अंगों की दुर्बलता आदि से छुटकारा पाने के लिए उपवास का सहारा लेना प्रत्येक व्यक्ति के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकता है। उपवासों में एक मध्यम वृत्ति का सुसंयमित विधान चान्द्रायणव्रत का भी है।

चान्द्रायणव्रत में ध्यान रखने योग्य कुछ बातें ऐसी है जिन्हें बहुत-ही ध्यानपूर्वक समझ लेना चाहिए। एक यह है कि प्राचीन सिद्धान्त का आधुनिक परिस्थितियों के साथ ताल-मेल मिलाते हुए चला जाय। पन्द्रह दिन आहर घटाने और पन्द्रह दिन बढ़ाने वाला सिद्धाँत सही है। इस आहार में फल, शाक, दूध, छाछ जैसी वस्तुओं की प्रधानता रहनी चाहिए। अन्न रखना हो तो उसकी मात्रा स्वल्प ही रहे। जल खूब लिया जाय। जल में नीबू, शहद ग्लूकोज जैसी वस्तुयें मिलाते रहना चाहिए। स्थिति के अनुसार पेट की सफाई के लिए एनीमा जरूर लेते रहना चाहिए ताकि उपवास के दिनों पेट में गर्मी बढ़ने से मल सूख कर उसकी गांठ न बनने पायें। व्रत के दिनों में शारीरिक श्रम कम से कम करना चाहिए ताकि संचित शक्ति का अनावश्यक व्यय न हो। टहलना और मालिश इन दो व्यायामों की व्यवस्था बनी रहे तो पर्याप्त है। उपवास के दिनों शरीर में कुछ कमजोरी सी प्रतीत होती है। अन्न भी एक नशा होता है वह न मिले तो देह में हलका-हलका-पन लगता है। उससे घबराना न चाहिए। जो उपवासकर्ता उस छोटी-सी कठिनाई से डरते, घबराते हैं वे अपनी मानसिक दुर्बलता के कारण इस महाव्रत का लाभ खो बैठते हैं।

उपवास काल में कई बार ‘उखाड़’ होते हैं। पेट की कब्ज के भार में कितने ही रोग दबे पड़े रहते हैं, जैसे-जैसे पेट हलका होता जाता है वैसे ही वैसे वे दबे हुए विकार उखड़ कर ऊपर आते हैं और मितली, सिरदर्द मुँह में कडुआपन, अनिद्रा आदि कई विकार अनायास ही उठ खड़े होते हैं। उनके लिए क्या, कैसा उपचार करना चाहिए। इसका निर्णय शारीरिक और मानसिक स्थिति को देख कर किया जा सकता है। ऐसी दशा में अनुभवी परामर्शदाता की आवश्यकता रहती है। वह न मिले तो भी सामान्य ज्ञान के आधार पर उन स्वल्प कालीन उभार विकृतियों का समाधान किया जा सकता हैं। कोई निर्दोष जड़ी-बूटी औषधि के रूप में भी उस समय ली जा सकती है।

चान्द्रायणव्रत करने और कराने वाले को शरीर शास्त्र की और उपवास की प्रति-क्रियाओं का समुचित ज्ञान रहे तो इसके सहारे इस महाव्रत का परिपूर्ण लाभ उठाया जा सकता है। अपने तथा दूसरे अनुभवी लोगों के ज्ञान के आधार पर इस सम्बन्ध की प्रत्येक बारीकी का दिग्दर्शन कराने वाले एक विशेष ग्रन्थ की आवश्यकता पड़ेगी। अवकाश मिलते ही उसे प्रस्तुत करेंगे। अभी तो इन लेखों से बताई हुई जानकारी के आधार पर भी एक सीमा तक काम चल सकता है।

गायत्री तपोभूमि में एक-एक महीने के चान्द्रायणव्रत शिविर, समय-समय पर होते रहते हैं। आगे जब संजीवनी विद्या के मासिक शिविर आरम्भ होंगे, तब साथ ही उन लोगों का भी कार्यक्रम चलता रहेगा जो चान्द्रायण व्रत के साथ गायत्री अनुष्ठान करते हुए अपने शारीरिक और मानसिक रोगों का निवारण करना चाहेंगे। इस प्रकार यह व्रतशील, तपस्वी शारीरिक और मानसिक आरोग्य प्राप्ति की साधना करते हुए जीवन जीने की विद्या के महत्वपूर्ण ज्ञान का लाभ भी प्राप्त करते रह सकेंगे।

मानसिक उत्कर्ष के लिये चान्द्रायण व्रत की उपयोगिता

चान्द्रायण व्रत पूर्णिमा से आरम्भ होता है। जितना आहार प्रारम्भ में लिया गया हो उसे क्रमशः घटाते हुए अमावस्या और प्रतिपदा को निराहार रहते हैं। इसके बाद चन्द्रमा की कलाओं की भाँति आहार को क्रमशः बढ़ाते हुए पूर्णिमा तक गत पूर्णिमा जितने आहार तक पहुँच जाते हैं। इस मोटे नियम को सभी जानते हैं। पर साथ ही यह भी जानना चाहिए कि केवल भूखे रहना ही चान्द्रायण व्रत नहीं है। शरीर की भाँति अन्तःकरण का-मन,बुद्धि चित्त, अहंकार का भी उसमें शोधन करना पड़ता है। यदि यह शोधन, कार्य न हो तो इस महाव्रत को तपश्चर्या न कहा जा सकेगा फिर यह लंघन करने का एक साधारण शारीरिक आरोग्य विधान मात्र रह जायगा। ऐसी दशा में पापों का प्रायश्चित और आत्म उत्थान का जो महात्म्य शास्त्रकारों ने वर्णन किया है वह कहाँ पूरा हो सकेगा?

चान्द्रायण व्रत के दिनों में शरीर से मल निष्कासन करने और आन्तरिक अवयवों को विश्राम देने की भाँति मन को भी इसी प्रकार साधना संभालना पड़ता है। उपवास के दिनों में शरीर को आराम एवं विश्राम देना आवश्यक है। उन दिनों यदि बहुत दौड़-धूप की जाय तो लाभ के स्थान पर हानि की सम्भावना रहेगी। इसी प्रकार इस तपश्चर्या के दिनों में मानसिक विश्राम मिलना आवश्यक है। चिन्ताएं सब से अधिक मानसिक तनाव उत्पन्न करती हैं। उद्वेग, आवेश, उत्तेजना, द्वेष, भय, क्रोध, आशंका आदि से ग्रस्त मनुष्य के मन पर निरन्तर तनाव बना रहता है और इस कारण आत्म चिन्तन, आत्म शोधन, आत्म विकास, आत्म शान्ति का जो कार्यक्रम इस तपश्चर्या के दिनों बना रहना चाहिए वह सम्भव नहीं हो पाता। अतएव मानसिक शान्ति एवं निश्चिन्तता की स्थिति उत्पन्न करना आवश्यक है। नित्य प्रति के घरेलू काम धन्धों से छुट्टी लेकर कहीं अन्यत्र शान्ति पूर्ण स्थान में उन दिनों रहा जा सके तो सर्वोत्तम हैं। शास्त्रकारों ने इसी दृष्टि से तीर्थों में, गुरुजनों के निकट एवं तपोवनों में चान्द्रायण व्रत करने का विधान किया है। यदि घर से बहुत दूर जा सकता न सम्भव हो तो भी ऐसी व्यवस्था तो करनी ही चाहिए कि उन दिनों मानसिक विश्राम एवं निश्चिन्तता की स्थिति बनी रहे।

जब पूर्ण निश्चिन्तता एवं एकान्त की स्थिति हो तो इस एक महीने में सवालक्ष गायत्री पुरश्चरण करना चाहिए। प्रतिदिन 42 माला जप करने में लगभग 4 घण्टे नित्य लगते हैं। इतने दिनों त्रिकाल संध्या का नियम है प्रातः दो घण्टे, मध्याह्न एक घण्टा और सायंकाल एक घण्टा का कार्यक्रम बना लेने से या इसमें कुछ और हेर-फेर कर लेने से प्रतिदिन 42 माला का क्रम बन सकता है। जिन्हें शारीरिक अशक्तता हो या चिकित्सा शिक्षा आदि का भी क्रम बनाना हो वे दस दिन में चौबीस हजार जप के हिसाब से 30 दिन में तीन लघु अनुष्ठान कर सकते हैं। इसमें 24 माला प्रतिदिन करनी पड़ती हैं जिनमें घण्टा के लगभग लगता है। प्रातः, मध्याह्न, सायं के तीन भागों में बाँट कर इसे बहुत आसानी से पूरा किया जा सकता है। इस विभाजन में प्रायः अधिक जप करते हैं। सायंकाल इससे कम रखा जाता है। मध्याह्न के लिए और भी कम संख्या रखी जा सकती है। सवालक्ष पुरश्चरण करना या चौबीस हजार के तीन अनुष्ठान करने, यह पहले ही निश्चय कर लेना चाहिए और उसी क्रम से साधना क्रम चलाना चाहिए।

अन्य अनुष्ठानों की भाँति ब्रह्मचर्य से रहना इन दिनों अनिवार्य है। पलंग छोड़ कर भूमि या तख्त पर सोना चाहिए। हजामत, कपड़े धोना, भोजन बनाना आदि अपने शरीर की सेवाएं यथा सम्भव अपने हाथों ही करनी चाहिए। चमड़े का उपयोग भी उन दिनों नहीं करना चाहिए क्योंकि आजकल आमतौर से हत्या किए हुए पशुओं का चमड़ा ही उपलब्ध होता है। प्राचीनकाल में अपनी मौत पर हिरनों की मृगछाला काम में लाई जाती थी पर आज तो हत्या न किये हुए जानवरों का चमड़ा मिलना कठिन है। उस हत्या का पाप माँसाहारी की भाँति चमड़ा उपयोग करने वाले को भी लगता है, इसलिए इस तपश्चर्या के समय जूते, पेटी आदि कोई वस्तु चमड़े की न लेकर, रबड़, कपड़ा आदि की वस्तुएं प्रयुक्त करनी चाहिए।

यह कहने की आवश्यकता नहीं कि क्रोध, झूठ, चोरी, हिंसा, गाल, छल, बेईमानी आदि कुकर्मों और विभिन्न प्रकार के कुविचारों एवं मानसिक पापों से भी बचना चाहिए। रोग की चिकित्सा के दिनों में जिस प्रकार आहार बिहार का विशेष परहेज रखना पड़ता है, इसी प्रकार चान्द्रायण व्रत के दिनों में भी शारीरिक और मानसिक पापों से बचने का पूरा-पूरा प्रयत्न करना चाहिए। यह बचाव घर से दूर- व्यक्तिगत स्वार्थों से असम्बद्ध स्थानों में अधिक सुविधापूर्वक बन पड़ता है। वैसे मनस्वी लोगों के लिए हर बात हर जगह सम्भव हो सकती है।

प्रसन्नता, मुस्कान, सन्तोष, निश्चिन्तता और निर्भयता की सत्प्रवृत्तियों को इन दिनों स्वभाव का अंग बनाने के लिए विशेष रूप में प्रयत्न करना चाहिए। शत्रुता, प्रतिहिंसा एवं किसी को सताने की बात तो इन दिनों सोचनी भी नहीं चाहिए। अपने गुण, कर्म और स्वभाव में जो त्रुटियाँ दीखती हों उन्हें एक निष्पक्ष समीक्षक की दृष्टि से ढूँढ़ते रहना चाहिए और ऐसे उपाय सोचने चाहिए कि इन दुर्बलताओं को हटा कर अपना व्यक्तित्व किस प्रकार अधिक निर्मल, अधिक उज्ज्वल एवं अधिक उत्कृष्ट बनाया जाय। गायत्री उपासना का वास्तविक उद्देश्य आत्म चिन्तन, आत्म शोधन एवं आत्म निर्माण ही है। इस एक महीने की अवधि में विचार प्रवाह इन्हीं कार्यों में संलग्न रहना चाहिए। ताकि व्रत समाप्त होने पर अपना जीवन क्रम स्पष्ट रूप से परिवर्तित हुआ परिलक्षित होने लगे।

एक महत्वपूर्ण कार्य इन दिनों इस जीवन में बन पड़े पापों का प्रायश्चित करना भी है। पूर्व संचित कर्मों का भोग इसी जन्म में पूरी तरह भुगत जाय इसी दृष्टि से विधाता हमारे प्रारब्ध की रचना करता है। यदि नये पाप न किये जाये तो आगे के लिए भवबन्धनों में पड़ने की आशंका नहीं रहती। पर यदि इस जन्म में अशुभ कार्य करने फिर आरम्भ कर दिये तो आगे फिर उनका परिणाम भोगने के लिए जन्म-मरण के चक्र में बंधना पड़ेगा। इसलिए बुद्धिमता इसी में है कि इस जन्म में निष्पाप रहा जाय। अब तक जो पाप बने हों उनका प्रायश्चित कर लिया जाय और आगे के लिए यह व्रत लिया जाय कि दुष्कर्मों से बचे रहेंगे। प्रायश्चित्य करने से इस जन्म के पाप भुगते जा सकते है इसलिए चान्द्रायण व्रत का एक उद्देश्य यह भी माना गया है कि इस जन्म में बन पड़े पापों के प्रति सच्चे हृदय से दुःखी होने, दण्ड भुगतने और आगे के लिए पूर्ण सतर्क रहने की विविध प्रायश्चित्य व्यवस्था को इस अवधि में पूर्ण कर लिया जाय।

अत्यन्त विश्वस्त ऐसे उदार हृदय गुरुजनों के आगे अपने सभी पाप प्रकट कर देने चाहिए जो उन्हें सुन कर न तो घृणा करें और न दूसरों से उनकी चर्चा करके सामाजिक प्रतिष्ठा नष्ट करने की नादानी कर बैठे। पापों का प्रकटीकरण आवश्यक है पर वह होना अत्यन्त विश्वस्त गुरुजनों के सम्मुख ही चाहिए। अन्यथा उस प्रकटीकरण का दुरुपयोग हुआ तो मानसिक विक्षोभ और भी अधिक बढ़ सकता है। पापों को छिपाये रहने से मस्तिष्क में एक तरह की घुटन पैदा होती रहती हैं, मानसिक ग्रंथियां बनती रहती हैं जिनके कारण अनेकों मानसिक एवं शारीरिक रोग उठ खड़े होते हैं। फोड़े में भरे मवाद की तरह मन से दबे हुए दुराव दुष्कर्मों को छिपाये रहने से अनेक मनोविकार उत्पन्न होते हैं। इस तथ्य को जान कर पाश्चात्य मानसिक रोगों के चिकित्सक घण्टों बात-चीत करके अपने रोगियों के मन में दबी हुई व्यथा वेदनाएँ, दुराव भरी अभिव्यंजनाएं उसी के मुँह से उगलवा लेते हैं। रोगी यदि सब कुछ कह दे तो उसका चित्त हलका हो जाता है और केवल इतने मात्र से भयंकर मनोविकारों से सहज ही छुटकारा मिल जाता है।

चान्द्रायण व्रत को मानसिक शोधन की दृष्टि से पापों के प्रकटीकरण का विधान रखा गया है। जिन मनोविज्ञान वेत्ता गुरुजनों के सम्मुख सब कुछ कह दिया गया है वे उस पिछली भूल का प्रायश्चित्य भी बताते हैं। दुष्कर्मों द्वारा समाज को जो हानि पहुँचाई गई है उसकी क्षति पूर्ति के लिए लोकोपयोगी सत्कर्म करने से बहुत कुछ काम चल जाता है। साबुन से मैल कट सकता है तो पुण्यों की अभिवृद्धि से पापों का शोधन भी हो सकता है। जो भूल हो गई वह लौट तो नहीं सकती पर अपनी गलती मान लेने, उसे भविष्य में न करने और जो किया है उसका दण्ड भोग लेने से, पिछली भूलों का शोधन और प्रायश्चित्य हो सकता है। इस प्रकार अगले जन्म में मिलने वाले दण्डों का उसी जन्म में भुगतान करके आगे की त्रासदायक सम्भावनाओं से छुटकारा पाया जा सकता है। किस पाप के लिए, किस स्थिति का व्यक्ति क्या प्रायश्चित्य करे उसका एक-सा विधान नहीं बन सकता, इसके लिए देश काल पात्र एवं परिस्थितियों का विचार करते हुए दूरदर्शी मनीषियों के परामर्श से ही कुछ ठीक निर्णय किया जा सकता हैं।

स्वाध्याय एवं सत्संग के माध्यम से सद्भावनाओं की अभिवृद्धि होती है। सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है और आत्म शोधन की व्यवस्था बन पड़ती है, इसलिए यह एक महीने की अवधि को प्रधानतया इसी प्रकार के विचारोत्तेजक वातावरण से भरा पूरा रखना चाहिए। जिस प्रकार बीज बोने के दिनों में जो फसल बोई जाती है वह ठीक प्रकार उगती है, उसी प्रकार चान्द्रायण व्रत के दिनों में जो सद्विचार मनोभूमि में किये जाते हैं वे मजबूती से जड़ जमा लेते हैं और आशाजनक परिणाम उत्पन्न करते हुए फलते-फूलते हैं। अन्य समयों में प्राप्त की गई शिक्षाएं उतनी हृदयंगम नहीं हो पाती, जितनी कि इस तपश्चर्या के दिनों में होती है। प्रातः सायंकाल की संध्या उपासना अधिक सत्परिणाम उपस्थित करती है, औषधि सेवन का समय भी प्रायः सुबह शाम का ही रहता है। ऋतुकाल में गर्भ स्थापना की सम्भावना अधिक रहती है। इसी प्रकार तपश्चर्या की मनोदशा में सद्विचारों ओर सत्प्रेरणाओं को अन्तःकरण के गहन स्तर तक पहुँचाया जाना अधिक सम्भव होता है।

मानसिक रोगों की चिकित्सा के लिए चान्द्रायण व्रत एक प्रभावशाली उपचार पद्धति सिद्ध हुई है। स्मरण शक्ति की कमी, तुनकमिज़ाजी, चिड़चिड़ापन, जल्दी भावावेश में आ जाना, सहनशीलता का अभाव, छिद्रान्वेषण पराये दोषों को ढूँढ़ते रहना, निन्दा, चुगली, ईर्ष्या, कटुभाषण, अन्यमनस्कता, सूखापन, अनुत्साह, आलस्य, प्रमाद, छोटी-सी कठिनाई को बहुत बड़ी मानना, भीरुता, इन्द्रियों पर काबू न रख सकना, चित्त की चञ्चलता, जल्दी निराश हो जाना, चिंतित बने रहना, भविष्य के लिए बुरी-बुरी आशंकाएं करते रहना, बुरे स्वप्न, दुराग्रह, मिथ्या अहंकार, शेखीखोरी, प्रेम भावना का अभाव, लापरवाही आदि अनेक मानसिक एवं स्वभावजन्य रोग चान्द्रायण व्रत की अवधि में आसानी से दूर होते देखे गये हैं। इन दोषों की निवृत्ति के लिए जो उपचार इन दिनों किये जाते हैं उनकी सफलता प्रायः असंदिग्ध ही रहती है।

हमारे देश में मानवीय दोष दुर्गुणों की अधिकता के कारण शारीरिक रोगों की तरह मानसिक रोग भी बुरी तरह फैले हुए हैं। रोगी शरीरों को लेकर कुछ महत्वपूर्ण पुरुषार्थ बन नहीं पड़ता उसी प्रकार रोगी मस्तिष्क भी जीवन को भार ही बनाये रहते हैं। किसी दिशा में ठोस प्रगति करने की दृष्टि से वे निकम्मे ही सिद्ध होते हैं। इसलिए शारीरिक अस्वस्थता दूर करने की भाँति मानसिक वयोवृद्ध एवं सुशिक्षित सज्जनों को इन पंक्तियों द्वारा विशेष रूप से आमंत्रित किया जा रहा है। वे इसी जेष्ठ सुदी 14 से 24 जून से एक वर्ष के लिये मथुरा जाने की तैयारी करें। उनका यह एक वर्ष अब तक के जीवन में सबसे अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध होगा ऐसा विश्वास किया जा सकता है।

युग- निर्माण के लिए इसी धरती पर स्वर्ग अवतरित करने के लिए हमें अनेक कार्य करने होंगे। उन कार्यों में यह त्रिविध शिक्षण नितान्त आवश्यक हैं। ‘अखण्ड-ज्योति’ के प्रत्येक पाठक को इसके लिए आमन्त्रित किया जा रहा है। जो जिस शिक्षा की अपने लिये उपयुक्तता समझें वे उसके सम्बन्ध में आवश्यक पत्र-व्यवहार करके स्वीकृति प्राप्त कर लें। यह बात भूलनी न चाहिए कि साधन कम और शिक्षार्थियों की संख्या अधिक होने से क्रमशः थोड़े-थोड़े लोगों को ही स्थान मिल सकेगा। हाँ अपना नाम नोट कराकर यथा समय स्थान मिलने के लिये स्वीकृति अभी से भी प्राप्त कर सकते हैं।

दुर्बलता निवारण के लिए भी हमें कुछ सोचना और करना चाहिए। हमने पिछले तीन वर्षों से मानसिक रोगों के निवारण में चान्द्रायण व्रत के साथ जड़ी-बूटी सेवन तथा उपचारों द्वारा जो सफलता मिलते देखी है उससे यह कहा जा सकता है कि शारीरिक कायाकल्प की तरह मानसिक कायाकल्प के लिए भी चान्द्रायण व्रत को एक महत्वपूर्ण माध्यम बनाया जा सकता है।

नई पीढ़ियों को तेजस्वी एवं होनहार बनाने की दृष्टि से यदि माता-पिता मिल कर चान्द्रायण व्रत करें तो उनके सुसंस्कारी शरीरों से वैसी सन्तानें उत्पन्न होनी सम्भव हैं जैसी कि प्राचीन काल में महानता के जन्मजात संस्कार लेकर भारत के घर-घर में नर रत्न जन्मा करते थे।

“अखण्ड-ज्योति” परिवार के मनस्वी परिजनों को युग-निर्माण के उपयुक्त भावनाएं एवं आत्म-बल प्राप्त करने के लिए एक चान्द्रायण व्रत करने की तैयारी करनी चाहिए। उनको इस तपस्या को सफल बनाने के लिए हमारा आवश्यक मार्ग-दर्शन प्रत्येक परिजन के लिए प्रस्तुत है।

भव्य समाज की नव्य रचना

मंजिल अधूरी न रह जाय।

आशा यह थी कि राजनैतिक स्वतंत्रता मिलने के बाद राष्ट्र-निर्माण के अनेक मोर्चों पर दस गुनी शक्ति से कार्य आरम्भ होगा और समान स्वाधीनता के अनेक पहलू, जो उज्ज्वल बनाये जाने शेष हैं वे अधिक उत्साह और अधिक सुविधापूर्वक सँभाले जा सकेंगे। स्वराज्य का महत्व इसलिए होता है कि उसके उपरान्त प्रजा को अपने भाग्य को बनाने-बिगाड़ने की स्वाधीनता मिल जाती है। जिन लोगों ने स्वाधीनता संग्राम का यज्ञ रचा था उनकी कल्पना यही थी कि-”भारतीय समाज सभी दिशाओं में गई गुजरी स्थिति में पड़ा है, पर स्वराज्य के बाद उन सबको ठीक करना सरल हो जायगा। जितना त्याग इस मोर्चे पर करना पड़ रहा है इतना उन मोर्चों पर न करना पड़ेगा, इसलिये अब की अपेक्षा राष्ट्र-निर्माण के उन हलके-फुलके कार्यों को करने के लिये अब की अपेक्षा अनेक गुने लोक-सेवी मिल जायेंगे। प्रथम मोर्चे पर सफलता मिलने के उपरान्त लोगों का उत्साह भी बहुत बढ़ेगा और वे अधिक तत्परता-पूर्वक देश को समुन्नत बनाने में लग जायेंगे।

आज परिस्थिति बिलकुल ही उलटी हो रही है। देश-भक्ति के लिये-पिछड़े हुये राष्ट्र को ऊँचा उठाने के लिये-अधिक से अधिक त्याग करने की जो होड़ परस्पर लगी हुई थी, वह स्वराज्य के बाद और भी अधिक तीव्र होनी चाहिये थी, पर खेद पूर्वक स्वीकार करना पड़ता है कि वह पूरी तरह समाप्त नहीं तो बुरी तरह शिथिल अवश्य हो गई है। यह उन बलिदानी शहीदों के प्रति विश्वासघात है-जो हमारे ऊपर क्रान्ति के एक भारी अंश को पूरा करने का उत्तर-दायित्त्व सौंप कर गये है। उन्हें यह पक्का विश्वास था कि हमारे बाद की पीढ़ी हम से भी अधिक देश-भक्त एवं भावनाशील होगी। जो कार्य हम से शेष रहेगा उसे वह सहज ही पूरा कर लेगी और समुन्नति भारत का सुन्दर चित्र कल्पना मात्र न रह कर अगले दिनों साकार होकर रहेगा। पर आज जब कि मंजिल का बहुत बड़ा भाग पूरा करने कि लिये बाकी पड़ा है इस प्रकार की शिथिलता कितनी दुखदायक प्रतीत होती है।

विचार क्रान्ति का महान कार्य अभी तक लगभग बिलकुल अधूरा पड़ा है। सामाजिक क्रान्ति होनी शेष है। यह दो क्रान्तियाँ जब तक पूर्ण न हो जावें तब तक राजनैतिक क्रान्ति का उद्देश्य पूरा न हो सकेगा। सुख समृद्धि बढ़ाने के लिये जितनी आर्थिक योजनाएं बन रही हैं, उनका कुछ लाभ तभी मिल सकता है जब हम उस उपार्जित अर्थ का सदुपयोग करना जाने। एक ओर आर्थिक लाभ बढ़े, दूसरी ओर दुर्व्यसनों की मात्रा बढ़ जाय, सामाजिक कुरीतियाँ विद्रूप धारण कर लें तो उस थोड़ी-सी बढ़ी हुई आय से भला कितना किसका कुछ भला हो सकेगा।?

स्वर्गीय शहीद जो जिम्मेदारियाँ छोड़ गये हैं उनको पूरा करने के लिये अब किसी को जेल जाने, फाँसी खाने, घर छोड़ने या अपनी अर्थ-व्यवस्था बर्बाद करने की आवश्यकता नहीं है। केवल इतना करना है कि भावनाएं प्रबुद्ध रखें, अपने व्यक्तिगत कार्यों में, व्यवसायिक पारिवारिक कार्यों में, एक और कार्यक्रम लोक-कल्याण के लिए कुछ समय निरन्तर लगाते रहने का व्रत ग्रहण कर लें। जैसे दैनिक जीवन के अन्य कार्यों और उत्तर-दायित्त्वों का निरन्तर ध्यान रखा जाता है, इसी प्रकार समाज के नव-निर्माण के लिए भी प्रयत्नशील रहा जाय। शरीर और मन की शक्तियों का कुछ अंश इस दिशा में भी हम लोग लगाये रहे तो ‘अखण्ड-ज्योति’ परिवार के हम सदस्यगण इतना बड़ा


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